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रामलीला मैदान की रावण लीला पर सर्वोच्च न्यायालय का विचित्र फैसला
रामलीला मैदान में हुई रावण—लीला पर सर्वोच्च न्यायालय ने जो निर्णय
दिया है, वह अपने आप में बड़ा विचित्र है। सबसे पहले तो सर्वोच्च
न्यायालय की सराहना करनी होगी कि उसने आगे होकर इस रावणलीला को मुकदमे
का विषय बनाया। लेकिन छ: माह तक खोदा पहाड़ और उसमें से निकाला क्या?
निकाला यह है कि चार जून को बर्बरतापूर्ण कार्रवाई के लिए सिर्फ
दिल्ली पुलिस जिम्मेदार है। क्या अदालत को यह पता नहीं कि दिल्ली
पुलिस भारत के गृह—मंत्रालय के अंर्तगत है? रामलीला
मैदान में आयोजित अनशन क्या किसी गली—कूचे में चोरी चकारी का मामला
था, जिसे पुलिस खुद अपने बूते हल कर सकती थी? जिस मामले को सुलझाने के
लिए चार—चार मंत्री हवाई अड्डे दौड़ गए हों, क्या दिल्ली पुलिस उसके
बारे में अपने आप फैसला कर सकती थी? आश्चर्य है कि
अदालत ने पुलिस को तो रावण—लीला के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया लेकिन
उसके राजनीतिक आकाओं के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला। गरीब की जोरू सब
की भाभी! अदालत के सम्मान की रक्षा तो तब होती जब वह असली अपराधियों
पर उंगली धरती! अदालत ने यह अच्छा किया कि दिवंगत राजबाला समेत अन्य घायलों को मुआवजा देने
की बात कही, लेकिन 75 प्रतिशत मुआवजा सरकार दे, यह कहा! सरकार के पास
किसका पैसा है? हमारा है। हमारी जूती हमारे ही सर। मुआवजे का पैसा तो
उन राजनीतिक आकाओं से वसूल करना चाहिए, जिन्होंने 4 जून को रामलीला
मैदान में गुंडागर्दी करवाई। रामदेव से 25 प्रतिशत मुआवजा देने की बात
कहना ऐसा ही है, जैसे कार चोर से 75 प्रतिशत और कार मालिक से 25
प्रतिशत कीमत वसूल करना है। मालिक का दोष यह है कि उसने कार को
जंजीरों से बांधकर क्यों नहीं रखा? क्या खूब न्याय है?
यह फैसला यह मानकर चल रहा है कि भारत लोकतंत्र नहीं है, एक ‘पोलिस
स्टेट’ है। यहां प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और मंत्रालयों की कोई हैसियत
नहीं है। गंभीरतम फैसले पुलिस खुद कर लेती है। यदि सर्वोच्च न्यायालय
अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करना चाहता है, तो उसे इस फैसले पर तुरंत
पुर्नविचार करना चाहिए।
यह फैसला बताता है कि इन विद्वान जजों को भारतीय परंपराओं का ज्ञान
ठीक से नहीं है। क्या कोई भक्त अपने धर्मगुरू से मुआवजा मांग सकता है?
और यदि उसे दिया जाए तो क्या वह उसे स्वीकार करेगा? राजबाला के पति के
दो टूक जवाब ने इस फैसले की धज्जियां उड़ा दी। इसीलिए यह बहुत विचित्र
फैसला है।
साभार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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