केंद्रीय गृह सचिव द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार कुडनकुलम परमाणु बिजली परियोजना के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों को भड़काने में..
समय है कि भारत मिमियाने की नेहरूवादी नीति छोड चाणक्य का अनुसरण करे : चीनी घुसपैठ
लीजिये... हमारे देश की संप्रभुता पर एक और हमला। एक बार फिर चीन अपने नापाक मंसूबों के साथ हमारी ज़मीन पर आ खड़ा हुआ है। पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में चीन के सैनिक 10 किलोमीटर तक अंदर घुस आए हैं। भारत-चीन की सीमा पर पंगोंग झील में चीनी नावों की मौजूदगी देखी गई है। भारत के एक तिहाई कश्मीर को निगल जाने वाला चीनी ड्रैगन अब लद्दाख की ओर नज़रें गड़ाए है। वह हमारी भूमि से पीछे हटने को तैयार नहीं और हमारे देश की सरकार हमेशा की तरह चीन को ‘कड़ी चेतावनी’ देकर संतुष्ट है। भारत के विदेश मंत्री की मानें तो यह घुसपैठ केवल ‘छोटी-मोटी’ घटना है, और इसकी वजह से चीन के साथ हमारी मित्रता को खतरे मे नहीं डाला जाना चाहिए।
कहीं हम इतिहास की भयंकर भूलों को फिर से दोहराने तो नहीं जा रहे? सन 1962 की कड़वी यादों की कड़वी कड़ियाँ फिर से जुड़ती सी नज़र आ रही हैं। सावधान!
एक सैन्य विशेषज्ञ के अनुसार यदि भारत सरकार का रवैया इसी तरह ढुलमुल और निस्तेज रहा तो जल्द ही भारतीय लद्दाख क्षेत्र भी तिब्बत में तब्दील हो जाएगा, जिसे चीन अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपना घोषित कर भारत को ही अतिक्रमणकारी साबित कर डालेगा।
एक महान क्रांतिदृष्टा की कुछ इसी तरह की चेतावनी को नज़रअंदाज़ करने का दुष्परिणाम हम पहले ही 1962 के युद्ध मे भुगत चुके हैं। सन 1954 में स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने चेतावनी देते हुए कहा था- “चीन किसी भी पल पंचशील सिद्धांत के पाये खींचकर उसे धराशायी कर देगा। जिन 6 वर्षों की आपराधिक बरबादी (1947 के पश्चात) भारत ने की है, उन 6 वर्षों मे चीन ने स्वयं को आधुनिकतम हथियारों से सुसज्जित कर लिया है और भारत की भावनाओं की परवाह न करते हुए एकमात्र “बफर स्टेट’ तिब्बत पर कब्जा कर लिया है।”
किन्तु उस समय हतभाग्य भारत के तत्कालीन नीतिनियंता शांति नोबल के ख्वाबों मे कुछ इस कदर डूबे हुए थे कि वीर सावरकर की इस पूर्व-चेतावनी के बावजूद उन्हे चीनी ड्रैगन का भयावह खतरा नज़र नहीं आया और इस ख्वाब ने भारत को 1962 की शर्मनाक पराजय की गर्त मे धकेल दिया। भारत की संप्रभुता पर लगा वह घाव आजतक रिस रहा है। भारत के सत्ताधीशों ने हमेशा से ही राष्ट्रवादी आवाज़ों को अनसुना किया है और आज भी वही गलती दोहराए जा रहे हैं। गलती... चुप रहने की। इस गलती की सज़ा कहीं हमे अपनी धरती का हिस्सा खोकर न चुकानी पड़े। कम्यूनिस्ट चीन के धूर्तता भरे इतिहास पर दृष्टिपात करें तो इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना 1949 में हुई और भारत पहला ग़ैर कम्युनिस्ट राष्ट्र था, जिसने इसे मान्यता दी। जून 1954 में चीन के प्रधानमंत्री चाउ इनलाई भारत आए तथा भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी अक्टूबर 1954 में चीन की यात्रा की। इसी वर्ष दोनों देशों के मध्य पंचशील समझौता हुआ लेकिन भारत की इस बेवजह भलमनसाहत का परिणाम क्या निकला? 20 अक्तूबर 1962 को चीनी सेना “हिन्दी चीनी भाई भाई” के नारे को उद्ध्वस्त करती हुई भारत मे घुस आई। इस आक्रमण ने सावरकर जी की चेतावनी को सच साबित कर दिया। 1383 सैनिकों की शहादत के उपरांत भी देश को आत्मसम्मान गँवाना पड़ा। इस युद्ध मे 1,383 शहीदों के अतिरिक्त 1,047 भारतीय सैनिक घायल हुए, 1,696 सैनिक लापता थे तथा 3,968 सैनिकों को चीन द्वारा बंधक बनाया गया। भारत के मान-मस्तक मानसरोवर पर चीन ने कब्जा कर लिया, फिर भी भारत चुपचाप बैठकर चीन के आक्रमण को भूलने की कोशिश करता रहा।
इसके बाद बार-बार चीन कभी सिक्किम तो कभी अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख पर अधिकार जमाने की चेष्टा करता आया है। ऐसे में चीन से मित्रता का दंभ भरने वाले हमारे विदेश नीति-निर्धारकों को आखिर चीन की किस बात ने रिझा रखा है, यह समझ से परे है।
चीन अपनी राह मे सबसे बड़ा रोड़ा भारत को मानता है क्योंकि केवल भारत ही श्रमशील जनसंख्या, प्राकृतिक संसाधन, आईटी ज्ञान और तकनीकी मे चीन का मुक़ाबला कर सकता है और यही वजह है कि चीन बहुत पहले से ही सामरिक और कूटनीतिक मोर्चे पर भारत की घेराबंदी शुरू कर चुका है।
भारत की आंतरिक सुरक्षा मे सेंध लगाने से भी चीन कभी नहीं चूकता। भारत के अलगाववादी संगठनों को चीन का पूर्ण अप्रत्यक्ष सहयोग प्राप्त है। कुछ समय पहले चाइना इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रटीजिक स्टडीज की वेबसाइट पर भारत विरोधी लेख जारी हुआ।चीनी विदेश मंत्रालय को सलाह देने वाली इस संस्था के लेख में कहा गया कि चीन को पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल जैसे मित्र देशों की मदद से भारत को 30 टुकड़ों में बांट देना चाहिए।
भारतीय सीमा के भीतर लद्दाख तथा पूर्वोत्तर में चीनी सैनिक की घुसपैठ जारी है. भारत विरोधी मंशा के चलते ही चीन ने पीओके क्षेत्र में 80 अरब डॉलर का निवेश किया है। चीन ने सीधे इस्लामाबाद पहुंचने के लिए काराकोरम होकर सड़क मार्ग भी तैयार कर लिया है। इस निर्माण के पश्चात चीनी दस्तावेजों में अब इस भारतीय भूमि को उत्तरी पाकिस्तान दर्शाया जाने लगा है। भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश को चीन अपना हिस्सा मानता है। गत वर्ष 30 सदस्यीय भारतीय सैन्य प्रतिनिधि दल के एक सदस्य ग्रुप कैप्टन पांगिंग को वीजा नहीं दिया गया क्योंकि चीन इस प्रदेश को अपना हिस्सा मानता है। इसी तरह भारत द्वारा अग्नि-5 नामक इंटर कॉन्टिनेन्टल मिसाइल के सफल परीक्षण पर भी चीन की खीज भरी कुत्सित प्रतिक्रिया देखने को मिली थी जब उसने भारत की सफलता को ‘झूठ’ करार दिया था।
भारत विरोधी गतिविधियों की धुरी बन चुका है चीन; जिसके आसपास भारत के पड़ोसी देश इकट्ठे होकर मोर्चाबंद हो गए हैं। पाकिस्तान, मालदीव, श्रीलंका, बांग्लादेश तथा नेपाल मे आज भारत के पक्ष में माहौल नहीं है। इन सभी पड़ोसी मुल्कों मे चीन की तूती बोल रही है। सुदूर दक्षिण देशों में चीन की बढ़ती दखल ने भारत को चिंता मे डाल दिया है। चीन का पाकिस्तान प्रेम और उसके मिसाइल तथा परमाणु विकास कार्यक्रम में गुपचुप चीनी मदद की बात जगजाहिर है। वह खुलेआम भारत के शत्रुदेश पाकिस्तान को समर्थन व सामरिक सहयोग देता है।
भारत की ढुलमुल विदेश नीति के चलते श्रीलंका को भी चीन ने अपने पक्ष मे कर लिया है। भारत और श्रीलंका के मध्य केवल 35 km की दूरी है जबकि चीन वहाँ से हजारों किलो मीटर की दूरी पर बैठा है। फिर भी चीन ने श्रीलंका मे अपने सामरिक बन्दरगाह स्थापित करने मे सफलता हासिल कर हिन्द महासागर मे अपनी शक्ति मे इजाफा कर लिया है। मालदीव मे भी लोकतान्त्रिक सरकार के तख्तापलट पर भारत की चुप्पी ने चीन को मालदीव मे अपनी पैठ बढ़ाने का मौका दे दिया है।
कभी भारत के विश्वस्त पड़ोसी रहे नेपाल को चीन ने शक्ति की धौंस और कम्युनिज़्म की पुचकार से अपने पक्ष मे झुका लिया है। अवैध माल तथा नकली नोटों की तस्करी के लिए नेपाल चीन को अपनी जमीन मुहैया करा रहा है तथा दोनों देश मिलकर भारत की मौद्रिक अर्थव्यवस्था को तोड़ने में जुटे हैं। वामपंथी दुराग्रहों से ग्रसित भारतीय विदेश नीति चीन के विरुद्ध प्रभावशाली विरोध दर्ज कराने से भी परहेज बरत रही है।
इन्हे समझ जाना चाहिए की चीन कम्युनिस्ट होने के बावजूद विस्तारवादी नीतियों पर चलते हुए अन्य छोटे कम्युनिस्ट देशों को निगलने की ताक मे है और चीन की नज़र मे लोकतान्त्रिक भारत तो धीरे धीरे तोड़कर खाया जाने वाला मज़ेदार बड़ा निवाला है।
चीन द्वारा भारत की ऐसी भीषण घेराबंदी के बावजूद यदि अब भी हम नहीं चेते तो आखिर कब चेतेंगे?
चीन के पास 22,85,000 सैनिकों से युक्त फौज भारत की 13,25,000 की सैनिक संख्या से लगभग दोगुनी है। उसके आयुध भंडार भारत के आयुध भंडार के मुक़ाबले तीन गुना अधिक वृहत है। चीन की परमाणु रक्षा प्रणाली भारत से मीलों आगे है। चीन ने 1964 से ही परमाणु हथियारों का एकत्रीकरण आरंभ कर दिया था और आज उसके शस्त्रागार मे 240 परमाणु हथियार हैं जिनमे से 180 से अधिक हथियार सक्रिय अर्थात किसी भी समय हमला करने मे सक्षम हैं।
इसलिए यह नितांत आवश्यक है कि भारत चीन के प्रति आक्रामक कूटनीति का सहारा ले। भारत को चीन के मुकाबले अपनी सामरिक क्षमता बढ़ाते हुए सभ्यतामूलक हिंदू, बौद्ध पथ द्वारा अपने पड़ोसी देशों और तिब्बत, मंगोलिया, ताइवान, जापान एवं अन्य बौद्ध बहुल राष्ट्रों में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहिए किन्तु दुर्भाग्य से भारत की सेक्युलर राजसत्ता मूल भारतीय धर्मों और प्रतीकचिह्नों के प्रति उपेक्षा का भाव रखना अपना कर्तव्य समझती है जबकि साम्यवादी चीन निर्द्र्वद् रूप से वर्तमान वैश्विक कूटनीतिक परिदृश्य में बुद्ध को अपनी छवि सुधारने और प्रभाव बढ़ाने का साधन बनाए हुए है। इसका असर भारत के महत्वपूर्ण सीमक्षेत्र लद्दाख तथा पूर्वोत्तर राज्यों भी दिखाई देने लगा है. वहां के बौद्ध घरों को चीन ने चाइना निर्मित भगवान बुद्ध के पोस्टर, चित्र, ल्हासा के चमचमाते विशाल चित्र, चीन के सामान्य जनजीवन की खुशहाली दिखाने वाले चित्रों, पोस्टकार्ड और सीडी आदि से भर दिया है। चीन का यह छद्म सांस्कृतिक आक्रमण भारत की धर्मभीरु जनता को भरमाने लिए काफी है और चीन के मानसिक युद्ध की सफलता का द्योतक है. जिस क्षेत्र पर कब्जा करना हो, पहले वहां की जनता का मन जीता जाता है. कूटनीति के इस प्राचीन सूत्र को चीन अच्छी तरह इस्तेमाल कर रहा है।
अब समय आ गया है कि भारत अपने सीमावर्ती क्षेत्रों की जनता को राष्ट्र की मूलधारा से जोड़ने के लिए तत्काल प्रभावशाली एवं वास्तविक कार्ययोजना लागू करे। समय आ गया है कि भारत वामपंथियों द्वारा आरोपित हीनता के भ्रमजाल को तोड़कर अपनी जड़ों की ओर लौटे तथा सम्पूर्ण विश्व में अपने प्राचीन संस्कृतिक विदेश सम्बन्धों को पुनर्स्थापित करे। समय आ गया है कि भारत मिमियाने की नेहरूवादी नीति छोडकर अपने महानतम राजनीतिक पूर्वज चाणक्य का अनुसरण प्रारम्भ करे। अपने शत्रुओं को पहचाने उनके खिलाफ मजबूती के साथ खड़ा होकर विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप मे हुंकार भरे। कायरता को अहिंसा का ताज बहुत पहना चुके हम। अब वीरता को पुनः अंगीकार किया जाए।
वन्देमातरम!
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