नक्सली हिंसा का प्रतिकार विकास से हो...

Published: Friday, May 31,2013, 09:16 IST
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अमेरिकी मार्क्सवादी नेता बाब अवेकिन के शब्दों में किसी भी प्रकार की क्रांति न तो बदले की कार्यवाही है और न ही मौज़ूदा तंत्र की कुछ स्थितियों को बदलने प्रक्रिया है अपितु यह मानवता की मुक्ति का एक उपक्रम है. परंतु मानवाधिकार को ढाल बनाकर भारत की धरा को मानवरक्तिमा से रंगने वालें “बन्दूकधारी-कारोबारियों” को बाब अवेकिन की यह बात समझ नही आयेगी. भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) की दंड्कारण्य स्पेशल ज़ोनल कमिटी के प्रवक्ता गुड्सा उसेंडी ने इस हमले की जिम्मेदारी लेते हुए बताया कि 25 मई को कांग्रेस की परिवर्तन रैली पर हमला इसलिये किया था क्योंकि इन्हे सलवा ज़ुडूम के प्रणेता महेन्द्र कर्मा को मारकर बदला लेना था. केन्द्र-सरकार जब नेताओं की सुरक्षा नही कर सकती और उसकी नाक के नीचे से इन नक्सलियों के पास अत्याधुनिक हथियार और पैसे पहुँचते है तो आम जनता की सुरक्षा तो भगवान भरोसे ही है. सरकार व नक्सलियो के बीच आम आदिवासी मात्र शरणार्थी बनकर रह गया है. न कोई प्राकृतिक आपदा आई, न कोई महामारी फैली परन्तु फिर भी आम आदिवासी को सरकार के राहत शिविरों मे रहना पड रहा है. देखते ही देखते पूरा क्षेत्र राहत शिविरों से पट  गया. जंगल मे राज़ा की भाँति विचरण करने वाला आदिवासी राहत शिविरों मे रहकर सरकारी दिनचर्या के हिसाब से जीने को मजबूर हो गया. उसके लिये इधर कुआँ उधर खाई वाली कहानी बन गई है. सरकार की बात करेगा तो नक्सली की गोली खानी पडेगी और अगर राहत शिविर छोडकर जायेगा तो नक्सली का जासूस कहकर सरकार की गोली खानी पडेगी. उसकी आज़ादी पूर्णत: छिन चुकी है या यूँ कहे कि उसके लिये अब आज़ादी के मायने ही बदल चुके है.

देश की विकास-धारा को गति देने वाला छत्तीसगढ देश का 20 प्रतिशत स्टील और 18 प्रतिशत सीमेंट का उत्पादन करता है. परंतु यह देश का दुर्भाग्य ही है कि नक्सलवाद के चलते छत्तीसगढ में उथल-पुथल मची हुई है. शायद नक्सली समर्थक अपने कुतर्कों के आधार पर आम आदिवासी को पूरी तरह बरगालाने मे सफल हो गये है कि सराकर के विकास का अर्थ है उनसे उनकी संपदा से बेदखल कर देना. केन्द्र सरकार को छत्तीसगढ को विशेष तौर पर अलग से आर्थिक मदद उडीसा के कालाहांडी की तर्ज़ पर देना चाहिये क्योंकि अकेले छत्तीसगढ में 32 प्रतिशत आदिवासी है और जबतक उन्हे सडक या रेल तंत्र से जोडा नही जायेगा विकास का असली अर्थ ये भटके हुए आदिवासी नही समझ पायेंगे. जल्दी से जल्दी जयराम रमेश द्वारा 50 करोड रूपये की मूल्य के प्रोजेक्ट गवर्नेंस एंड एसिलरेटेड लाईवली हुड्स सिक्योरिटी प्रोजेक्ट्स स्कीम (गोल्स) को लागू किया जाय. ताकि इस प्रोजेक्ट के द्वारा असमानता की खाई को पाटा जा सके. अन्यथा नक्सली समर्थक नेताओं व गैर सरकारी संगठनो के चंगुल मे फँसकर ये भटके हुए आदिवासी यूँ ही बन्दूक उठाते रहेंगे. अत: जितनी जल्दी हो सके केन्द्र व राज्य सरकार मिलकर इस भयंकर समस्या को समय रहते सुलझा लेना चाहिये.

यह एक शाश्वत है कि किसी भी विचार से शत-प्रतिशत सहमत व असहमत नही हुआ जा सकता. इसके लिये लोकतंत्र मे तर्काधारित संवाद किया जा सकता है और अपने वैचारिक प्रकटीकरण के लिये संविधान ने हमें यह व्यवस्था दी है. नीतियों मे न्यूनता हो सकती है, जिसे समयानुसार संशोधित किया जा सकता है परंतु संविधान द्वारा प्रदत्त लोक-कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना को ही धराशायी करने का अधिकार किसी को कैसे दिया जा सकता है. हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि लोकतंत्र में संवाद वह हथियार है जिसकी मदद से कोई भी जंग न केवल जीती जा सकती है अपितु संपूर्ण मानवता की भी रक्षा की जाती है. कोई भी देश वहाँ के निर्मित संविधान से चलता है परंतु स्थिति ज्यादा खतरनाक तब हो जाती है जब आम जनता को संविधान के खिलाफ ही भडकाकर उन्हे हथियार उठाने के लिये विवश कर दिया जाता हो. परंतु कुछ चिंतक-वर्ग अपनी कुंठित मानसिकता के चलते देश को अराजकता के गर्त मे ढकेल कर एक गृह-युद्ध आरंभ करना चाहते है. देश के नीति-निर्मातों को देश-विरोधी हर अभियान को हर स्तर पर अलग-थलग कर उसका बहिष्कार करने के लिये जो भी कठोर फैसले लेना हो तत्काल लेना चाहिये ताकि भारत की धरती पुन: ऐसी रक्त-रंजित न हो.

इस सच्चाई को नकारा नही जा सकता कि आज़ादी के बाद से लेकर आजतक आदिवासियों के विकास के लिये जो भी कदम उठाया गया वह उस आदिवासी के शरीर की सभी 206 हड्डियों को मज़्ज़ा से ढकने के लिये नाकाफी रहा. आज भी उन्हे दो जून की रोटी व पीने के लिये पानी नसीब नही है. ऐसे मे उनके लिये विकास की बात करना मात्र एक छ्लावा है और शहरों की चमचामाती सडके और गगनचुम्बी इमारतें उनके लिये अकल्पनीय है. जिसका लाभ लेकर अरुन्धती राय सरीखे लोगों द्वारा आदिवासियों को सत्ता के खिलाफ बन्दूक उठाने के लिये प्रेरित व विवश किया जाता है. यही वें लोग हैं जो आम आदिवासी को यह समझाते है कि सत्ता द्वारा तुम्हे तुम्हारी संपत्ति से बेदखल कर तुम्हे विस्थापित कर दिया जायेगा. यह ठीक है कि कोई भी स्वस्थ समाज यह सहन नही कर सकता कि उसकी ही धरती पर उसे विस्थापित होकर रहना पडे. आज भी सरकार आम-जन को उसकी संपदा के अधिग्रहण का मुआवज़ा देती ही है. मुआवजे की राशि व प्रकृति को लेकर विवाद हो सकता है परंतु अगर कोई अपनी संपदा ही नही देगा तो सरकार विकास की इबारत कहाँ लिखेगी. सरकार यह सुनिश्चित कर उन आदिवासियों का भरोसा जीतकर वहाँ विकास मार्ग प्रशस्त करें कि इन आदिवासी क्षेत्रों मे यदि कोई आदिवासी विस्थापित होता है तो उसकी संपूर्ण जिम्मेदारी सरकार की होगी. इस प्रकार का कोई भी संवाद आदिवासियों द्वारा सरकार से किया जा सकता है. उन आम आदिवासियों को यह भी समझना होगा कि जो सडक उनके जंगल-खेत-खलिहानों से होकर गुजरेगी वही सडक उनकी इस असमानता को दूर करेगी क्योंकि वर्तमान समय में सडकें ही विकास का प्रयाय है. यदि उनके बच्चे स्कूलों में शिक्षा लेंगे, देश-समाज को समझेंगे, संचार माध्यमों से जुडेंगे तभी तो वे भी भविष्य में देश के विकास मे भागीदार होंगे. सत्ता से सशस्त्र ट्कराव करना कोई बुद्धिमानी नही है क्योंकि जिस भी दिन इनके “प्रेरणा-पुंजों” को नियंत्रण मे लेकर  सत्ता यह दृढ निश्चय कर लेगी कि इन आदिवासियों के पास हथियार नही पहुँचने चाहिये उस दिन इन आदिवासियों के पास मात्र आत्मसमर्पण के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नही रह जायेगा. पंजाब के आतंकवाद का दमन इस बात का एक जीता-जागता उदाहरण है. देर-सवेर इन भटके हुए आदिवासियों को विकास की इस धारा मे आना ही होगा. परंतु सरकार यदि उन भटके हुए आदिवासियों को समझाने में सफल हो गयी तो उन मानवधिकारवादी- कारोबारियों की जीविका कैसे चलेगी मूल प्रश्न यह है.

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