बाबा रामदेव ने अपनी समर्थक राजबाला की मौत के सिलसिले में दिल्ली पुलिस और केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम के खिलाफ मुक..

छत्तीसगढ़ में किए नरसंहार पर ‘भारत की कम्युनिस्ट पार्टी
(माओवादी)’ ने एक आत्म-प्रशंसात्मक विज्ञप्ति निकाली है। चार पन्ने की
विज्ञप्ति का पहला ही शब्द है ‘फासीवादी’। पूरे पर्चे का लब्बो-लुआब
है कि माओवादियों ने जिन्हें मारा वे फासिस्ट थे, और भारत की सरकार और
नेतागण ‘अमेरिकी साम्राज्यवाद के पालतू कुत्ते’ हैं। पूरे पर्चे में
ये गालियां कई बार दुहराई गई हैं। दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन के
इतिहास की सामान्य जानकारी रखने वाला भी इसे पढ़ते ही समझ सकेगा कि यह
पर्चा क्लासिक कम्युनिस्ट दृष्टिकोण की प्रस्तुति है। इसमें वही
जिद््दी अंध-विश्वास है, जिसमें तथ्यों की परवाह नहीं की जाती। अपने
ही अहर्निश प्रचार के घटाटोप से अपना माथा ऐसा चकरा लिया जाता है, कि
वहां किसी समझ, संवाद की गुंजाइश नहीं रह जाती।
बहुत लोग भूल जाते हैं कि माओवादी भी कम्युनिस्ट ही हैं। उनके
संगठन का औपचारिक नाम भी वही है। इसीलिए यह विज्ञप्ति पिछले सौ साल
में देश-विदेश की विभिन्न कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा प्रकाशित
पर्चों से मूलत: भिन्न नहीं है। अर्थात जिसे कम्युनिस्टों ने दुश्मन
(‘जनता का दुश्मन’) घोषित कर दिया, उसे गंदी, भड़काऊ, उग्रतम गालियां
देकर अपनी समझ और करतूत को सही ठहराना। इस पर्चे में भी महेंद्र कर्मा
ही नहीं, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी को भी ‘फासिस्ट’ कहा गया है।
प्रधानमंत्री समेत कई प्रमुख नेता ‘अमेरिकी साम्राज्यवाद के पालतू
कुत्ते’ हैं।
इस भाषा और कथ्य में कुछ भी नया नहीं। अविभाजित भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी भी प्रथम प्रधानमंत्री को ठीक इसी संज्ञा से
पुकारती रही थी। वही समानता अपने विरोधी को फासिस्ट कह कर गालियां
देने में भी है। मार्क्स-लेनिन के साथ माओ को भी अपना मार्गदर्शक
मानने वाले कम्युनिस्टों में कुछ ही अतिरिक्त बातें हैं। वह दूसरे
कम्युनिस्टों से कोई बुनियादी सिद्धांत-भेद नहीं। बल्कि सत्ता पर
कब्जे के लिए अपनाए जाने वाले तरीकों से संबंधित है। माओवादी तीन
बातों पर जोर देते हैं- ‘मुक्त इलाकों का निर्माण’, ‘गांवों से शहरों
को घेरना’ और ‘सत्ता बंदूक की नली से निकलती है’। संक्षेप में अर्थ
हुआ कि हिंसा, हत्या ही एकमात्र तरीका है जिससे विरोधियों को नष्ट कर
पहले किसी इलाके पर कब्जा करो। फिर दायरा बढ़ाते जाओ। इसी तरह देश पर
कब्जा होगा। किसी लोकतंत्र, समाज-सेवा, चुनाव, आदि पचड़े में मत पड़ो।
इतना ही दूसरे कम्युनिस्टों से माओवादियों का भेद है।
इस पर्चे में जिस तरह ‘फासिस्ट’-विरोध के नाम पर अपना कारनामा
सही ठहराया गया, उससे पुन: प्रश्न उठता है कि फासिज्म क्या था, और
कम्युनिज्म से कितना भिन्न था? प्रश्न इसलिए भी मौजूं है, क्योंकि हर
तरह के कम्युनिस्ट और उनके समर्थक लेखक, प्रचारक जिस किसी को फासिस्ट
कह कर खूब रोष झाड़ते हैं। मुख्यत: इसी तकनीक के सहारे स्वयं को
‘जनवादी’ दिखाने, जमाने का यत्न करते हैं। प्राय: ऐसे प्रयत्न सफल भी
होते रहे हैं। इसका एक ऐतिहासिक कारण है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दूसरे चरण में हिटलरी फासिज्म ने
कम्युनिस्ट रूस पर हमला किया। नतीजतन रूसी कम्युनिस्टों को हिटलर से
मजबूरन लड़ना पड़ा। उससे पहले तक दोनों दोस्त थे- यह महत्त्वपूर्ण
तथ्य छिपाया जाता है! 1939-41 के बीच हिटलर और स्तालिन का संबंध कितने
लोग जानते हैं? हिटलर ने स्तालिन से संधि करने के एक ही सप्ताह बाद
द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ किया, यह रणनीतिक तथ्य भी किसे याद है, इसका
आशय समझना तो दूर रहा? सच तो यह है कि कम्युनिस्ट रूस ने ही हिटलर को
वह कूटनीतिक और रणनीतिक सहूलियत प्रदान की जिससे वह पूरा यूरोप रौंदने
में सफल हुआ।
जून 1941 में सोवियत रूस पर हिटलर का हमला स्तालिन के साथ की गई
संधि का उल्लंघन, अर्थात विश्वासघाती था। 1939 में हुई उस संधि के
कारण स्तालिन इतना निश्चिंत था कि उसे जब अपने सैन्य खुफिया विभाग से
हिटलर द्वारा सोवियत रूस पर हमले की संभावना की सूचनाएं मिलीं तो उसने
उसे बार-बार उपेक्षित किया। यही कारण था कि जब हिटलरी हमला हुआ तो
सोवियत सेनाएं बिल्कुल तैयार न थीं। नतीजतन लाखों रूसियों का औचक
सफाया हुआ। रूसियों का यह नाहक विनाश भी स्तालिन के खाते में है, यह
स्वयं रूसी इतिहासकार लिख चुके हैं।
यह दूसरी बात है कि जब हिटलर की अंतत: हार हुई, तब कम्युनिस्ट
रूस की पारिस्थितिक मोर्चेबंदी हिटलर-विरोधियों अर्थात अमेरिका,
इंग्लैंड समेत विश्व की लोकतांत्रिक धुरी के साथ थी। बस, उसी क्षण का
अंतहीन प्रचार करके दुनिया भर के कम्युनिस्टों ने अपने पाप छिपा कर
स्वयं को फासिज्म-विरोधी प्रवक्ता बनाने का उपाय किया। जबकि फासिज्म
के वास्तविक विरोधी लोकतांत्रिक देश थे, कम्युनिस्ट नहीं।
मगर सोवियत सत्ता के विश्वव्यापी संगठित प्रचार ने यह भुला देने
का प्रबंध किया कि 1939 की हिटलर-स्तालिन संधि ने ही हिटलर को मजबूत
बनाया। इतना ही नहीं, उसी संधि ने पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, एस्तोनिया,
लिथुआनिया और लातविया को गुलाम भी बनाया। इन पांच स्वतंत्र देशों को
फासिस्ट जर्मनी और कम्युनिस्ट रूस ने तब आपस में बांट लिया था, यह
तथ्य कितने लोग जानते हैं?
आम कम्युनिस्ट यह सब नहीं जानते। उन्हें रटे-रटाए पार्टी-साहित्य
के अलावा कुछ भी जानने-पढ़ने से बचा कर रखा जाता है। तभी यह जुनूनी
मानसिकता बनती है कि जिस किसी को फासिस्ट कह कर उसकी बर्बरतापूर्वक
हत्या कर दी जाए। इसी तरह के कारनामों को महान प्रगति की दिशा में कदम
बढ़ाना समझा जाए। महेंद्र कर्मा को पचासों गोलियां मार कर उनकी लाश के
पास नाचने वाले मार्क्स-लेनिन-माओ की विचारधारा में विश्वास करते हैं-
इसका कोई अर्थ है! उसे संजीदगी से समझने पर दिखेगा कि फासिज्म और
कम्युनिज्म, दोनों भाई-भाई हैं। भयंकर तानाशाही, नरसंहारकारी
प्रवृत्तियों के पोषक। दोनों का आधार अंध-विश्वासी अहंकारी
विचारधाराएं हैं।
वस्तुत: कई बिंदुओं में कम्युनिस्ट फासिस्टों के बड़े भाई हैं।
हिटलरी फासिस्टों के अमानवीय तरीकों में से कई स्तालिन के लेबर-कैंपों
के तरीकों की नकल थे, यह प्रामाणिक इतिहास है। सिद्धांतत: भी, हिटलर
के ‘नस्ली जन-संहार’ और लेनिन-स्तालिन-माओ के ‘वर्गीय जन-संहार’ में
एक दर्शनीय समानता रही है। इस माओवादी पर्चे में भी कर्मा के किसी
विशेष वर्ग में जन्मे होने को भी उनके जरूरी सफाए का एक कारण बताया
गया है। पूरे विस्तार से। लेनिन का वर्ग-सिद्धांत और व्यवहार भी यही
था। रूसी किसानों की एक पूरी आबादी को कुलक कह कर खत्म किया गया था-
बच्चों, शिशुओं, स्त्रियों समेत। उन निरीह लोगों ने कभी किसी पर कोई
जुल्म किया था, सो बात नहीं। लेनिन की पार्टी ने स्पष्ट कहा कि वह
पूरा शत्रु वर्ग था, इसलिए उन्हें मार डाला गया।
इसीलिए फासिस्ट संहार और कम्युनिस्ट संहार में कोई किसी से छोटा
नहीं। दोनों विचारधारा और शासन विराट पैमाने पर मानवता के अपराधी रहे
हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत की सांयोगिक स्थिति से कम्युनिस्टों
ने अपने को फासिस्ट विरोधी के रूप में प्रचारित किया। उन्होंने इस
भ्रामक धारणा से भरपूर लाभ उठाया कि नाजी-हिटलरी संहार कोई अद्वितीय
किस्म का था। इससे कम्युनिस्ट अपनी ओर से लोगों का संदेह हटाने में
सफल रहे। उन्होंने खूब प्रचार किया कि फासिस्ट दक्षिणपंथी अधिक घृणित
हैं। जबकि कई बिंदुओं पर बात उलटी है।
अगर वास्तविक कारगुजारियों का लेखा-जोखा करें, तो दिखेगा कि
फासिज्म और कम्युनिज्म में भारी साम्य है। पहला, दोनों तानाशाही हैं,
जिसमें सत्ता और सूचना का पूरा तंत्र इने-गिने लोगों के हाथो
संकेंद्रित होता है। मूल लोकतांत्रिक संस्थाएं, विशेषकर स्वतंत्र
प्रेस और न्यायपालिका दोनों को नामंजूर हैं। दूसरा, दोनों ही ‘सफाए’
के हामी हैं।
यानी जनता के किसी न किसी हिस्से को जिंदा रहने देने लायक नहीं
समझते। तीसरे, दोनों को ही भविष्य का अपना नक्शा समाज पर बलपूर्वक
लागू करने के लिए लोगों की जान की भी कोई परवाह नहीं। चौथे, दोनों
युद्धखोर रहे हैं। आसपास के देशों पर हमला कर उन्हें कब्जे में लेना
उनकी आदत रही। पांचवें, घनघोर और प्राय: झूठे प्रचार का दोनों भरपूर
उपयोग करते रहे हैं। छठे, दोनों ही किसी न किसी को शैतान दुश्मन के
रूप में पेश कर अपने अत्याचार छिपाते या उचित ठहराते हैं। इन तत्त्वों
को तनिक हेर-फेर से किसी भी फासिस्ट या कम्युनिस्ट सत्ता में देखा जा
सकता है।
उक्त विशेषताओं की पुष्टि न केवल कम्युनिस्ट-फासिस्ट व्यवहारों
से हुई, बल्कि उनके दस्तावेजों में भी यही झलक है। कम्युनिस्ट अपने
शासनों को ‘सर्वहारा तानाशाही’ बता कर साफ कहते थे कि वहां लोकतंत्र
के ‘खिलौने’ की कतई जगह नहीं है। पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादियों ने
तीन-चार दशकों में बार-बार दिखाया कि लोकतांत्रिक राज्य के तहत भी वे
किस हद तक तानाशाही कर सकते हैं। यह माओवादी पर्चा भी स्पष्ट करता है
कि वही पूरे देश की हर चीज पर निर्णय देने और मनमानी कार्रवाई करने का
एकमात्र अधिकारी है।
कम्युनिज्म और फासिज्म का इतिहास इतने हाल का है कि सामान्य
जिज्ञासु भी दोनों का पूरा कच्चा चिट्ठा पा सकता है। जिस हद तक चीन,
उत्तरी कोरिया या क्यूबा अब भी कम्युनिस्ट हैं, उस हद तक आज भी वहां
उपर्युक्त तत्त्व मौजूद हैं। वहां स्वतंत्र प्रेस, न्यायपालिका और
दूसरे राजनीतिक दलों का कोई अस्तित्व नहीं। चीनी सत्ता ने अपने
निहत्थे छात्रों पर टैंकचलवा दिए, जो कुल दो दिन पहले तक उन्हीं के
शब्दों में ‘देशभक्त’ थे! रूसी, चीनी कम्युनिस्टों ने करोड़ों निर्दोष
लोगों की हत्याएं करने की बात समय-समय पर स्वयं मानी है। फिर भी
उन्होंने किसी को सजा नहीं दी, इस पर ध्यान देना चाहिए। यह एक
धूर्ततापूर्ण रणनीति रही कि सारी दुनिया के कम्युनिस्ट सदैव अमेरिका
को शैतान चित्रित कर अपने अंधे अनुयायियों को युद्ध-मुद्रा में रखते
हैं।
वस्तुत: राजनीति विज्ञान फासिज्म और कम्युनिज्म को
‘सर्वाधिकारवाद’ (टोटेलिटेरियनिज्म) के दो रूप मानता है। सत्ता पर
एकाधिकार, नागरिक अधिकारों का खात्मा, बेहिसाब हत्याएं, प्रेस पर
पूर्ण नियंत्रण और किसी न किसी के खिलाफ घोर दुष्प्रचार- यही फासिज्म
था। फासिज्म का कोई और अर्थ नहीं। ये सभी तत्त्व कम्युनिस्ट मानसिकता
और व्यवहार में भी रहे हैं। इस ताजा माओवादी पर्चे में भी यह आईने की
तरह देखा जा सकता है। बेचारे सामान्य माओवादी न माओ का वास्तविक जीवन
और कार्य जानते हैं, न माओवादी शासनों की सच्चाइयों को, न फासिज्म और
कम्युनिज्म की समानता को। उनकी नृशंसता में इस घोर अज्ञान का भी बड़ा
हाथ है।
साभार जनसत्ता, लेखक शंकर शरण ...
Share Your View via Facebook
top trend
-
चिदंबरम पर केस करेंगे रामदेव, राजबाला का अंतिम संस्कार आज
-
जनरल एवं सेना की छवि धूमिल करने का प्रयास, बग्गा द्वारा इंडियन एक्सप्रेस पर प्रतिबन्ध की मांग
भगत सिंह क्रांति सेना ने प्रेस रिलीज़ जारी करते हुए, जनरल वी.के सिंह एवं भारतीय सेना की छवि को धूमिल करने के प्रयास पर अ..
-
मेघालय में सेवा भारती की आरोग्य रक्षक योजना
मेघालय मे दूर दूर पर्वतों मे बसे गॉंव, घनी बारीश, भयंकर ठंड, आनेजाने के लिए रास्ता नही, कोई सुविधा नही, और इतनी बडी संख्या..
-
दहशत में है कंधमाल : चर्च का गोरखधंधा
कंधमाल (ओडिशा) 2008, जन्माष्टमी के दिन स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की अमानुषिक रूप से हत्या की गई थी। उस घटना को चार साल ..
-
मॉडल्स, रैम्प, शराब और सारे जहां से अच्छा
मंगलवार की रात और दिल्ली का प्रगति मैदान। खादी में लिपटी बला की खूबसूरत, सेक्सी मॉडल्स रैम्प पर कैटवॉक कर रही थीं। बैकग्रा..
what next
-
-
सुनहरे भारत का निर्माण करेंगे आने वाले लोक सभा चुनाव
-
वोट बैंक की राजनीति का जेहादी अवतार...
-
आध्यात्म से राजनीती तक... लेकिन भा.ज.पा ही क्यूँ?
-
अयोध्या की 84 कोसी परिक्रमा ...
-
सिद्धांत, शिष्टाचार और अवसरवादी-राजनीति
-
नक्सली हिंसा का प्रतिकार विकास से हो...
-
न्याय पाने की भाषायी आज़ादी
-
पाकिस्तानी हिन्दुओं पर मानवाधिकार मौन...
-
वैकल्पिक राजनिति की दिशा क्या हो?
-
जस्टिस आफताब आलम, तीस्ता जावेद सीतलवाड, 'सेमुअल' राजशेखर रेड्डी और NGOs के आपसी आर्थिक हित-सम्बन्ध
-
-
-
उफ़ ये बुद्धिजीवी !
-
कोई आ रहा है, वो दशकों से गोबर के ऊपर बिछाये कालीन को उठा रहा है...
-
मुज़फ्फरनगर और 'धर्मनिरपेक्षता' का ताज...
-
भारत निर्माण या भारत निर्वाण?
-
२५ मई का स्याह दिन... खून, बर्बरता और मौत का जश्न...
-
वन्देमातरम का तिरस्कार... यह हमारे स्वाभिमान पर करारा तमाचा है
-
चिट-फण्ड घोटाले पर मीडिया का पक्षपातपूर्ण रवैया
-
समय है कि भारत मिमियाने की नेहरूवादी नीति छोड चाणक्य का अनुसरण करे : चीनी घुसपैठ
-
विदेश नीति को वफादारी का औज़ार न बनाइये...
-
सेकुलरिस्म किसका? नरेन्द्र मोदी का या मनमोहन-मुलायम का?
-
IBTL Gallery
-
-
Discussion with Vinod ji and Mahant Nityanand Das at Mata Katyayani Temple
-
300 global cities, 100,000 people come together with Sri Sri in Argentina
-
Day 02 : 03:00 PM Live Andolankari at Nirnayaka Andolan, Ramlila Maidan, Delhi
-
Meenakshi Lekhi addressing : Hunger Strike in support of Indigenous Peoples of Assam
-
Comments (Leave a Reply)