संसद का मानसून सत्र समाप्त हो चुका है। कोयले घोटाले की आंच ने सरकार को संसद में बैठने नहीं दिया इस 1.86 लाख करोड़ के घोट..

कहा जाता हैं कि भारत विविधताओं का देश है। बात सच भी है। संस्कृति
की समरसता के छत्र में वैविध्य की वाटिका यहाँ सुरम्य दृष्टिगत होती
है। परन्तु आज वही भारत विडंबनाओं का देश बनने की ओर अग्रसर है। कारण
वह मानसिकता है जो भारतीय न होते हुए भी भारतीयों को घेरे जा रही है।
मर्यादा पुरुषोत्तम की जन्मभूमि भारत में मर्यादा ऐसी अन्तर्निहित थी
कि उसे ऊपर से थोपने की आवश्यकता नहीं थी। परन्तु आज ऐसा नहीं होता तो
उसका कारण इन्हीं अन्तर्निहित मर्यादाओं का क्षय है जिस कारण आज
मर्यादाएँ ऊपर से थोपने की आवश्यकता आन पड़ी है। वैलेंटाईन डे आदि पर
दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा मर्यादा स्थापित करने के प्रयास
अन्तर्निहित मर्यादा के उसी अपरदन के कारण जन्म लेते हैं। मर्यादा का
उल्लंघन होगा, तो अपवाद रूप में ये भारत एम एफ हुसैन को बाहर निकलवाने
और भारत तोड़ने के षड्यंत्रकारी प्रशांत भूषण को ‘बग्गा-पाठ’ पढ़ाने की
भी क्षमता रखता है।
सदैव से आध्यात्म को भौतिकवाद से ऊपर रखने वाले इसी भारत ने
"ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत" (अर्थात, उधार लो, मौज करो)
की अवधारणा देने वाले चार्वाक को भी 'महर्षि' कहा, उन्हें ऋषि परंपरा
में शामिल होने का गौरव दिया। वस्तुतः अपने से अलग को भी अपनाने की
भावना, हमारी भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। एक सिंधु के समान
कितनी ही नदियाँ यहाँ मिलती आई हैं और समय के साथ साथ वे सब इसी का
अंग हो गयी। किन्तु भारतीयता ने अपना मूल अर्थ नहीं खोया। और यह भी
प्रमाणित सत्य है कि जो जो इस भारतीयता से ओत प्रोत रहा, उसने इसी
संस्कृति को आगे बढ़ाया। आधुनिक युग की बात करें तो स्वामी विवेकानन्द
का स्मरण होता है। थोड़ा और आगे सावरकर दिखलाई पड़ते हैं। और अभी की बात
करें तो सुब्रमनियन स्वामी और नरेन्द्र मोदी जैसे उदाहरण हैं।
पाठक कहेंगे कि सावरकर, मोदी और स्वामी समरसता के
नहीं अलगाववाद के प्रतीक हैं। परन्तु परछाई देख कर वस्तु के रंग को
काला समझ लेने की भूल तो मूर्ख ही किया करते हैं। यही आज की समस्या
है। अपनी भारतीयता की अन्तर्निहित स्वीकरण की भावना को छोड़ जब हम
पाश्चात्य मापदंड अपनाते हैं, तब हमें नैसर्गिकता भी विकृति लगने लगती
है। ये उन मापदंडों का दोष है कि परछाई देख कर एक शुभ्र वस्तु भी काली
समझ ली जाती है। बात उदाहरण से स्पष्ट हो पायेगी।
समरसता और स्वीकरण, जो अपने नहीं, उन्हें भी अपना लेने का उदाहरण
सावरकर जैसा अनोखा शायद ही मिले। हिंदू मुस्लिम वामनस्य के उस दौर में
सावरकर ने 'हिंदू' शब्द को ऐसा परिभाषित किया कि भारत-भक्त मुस्लिम उस
परिभाषा में हिंदू समाज, हिंदू राष्ट्र की अवधारणा के अंग बन गए।
सावरकर के अनुसार, "जो भी इस भारत भूमि को अपनी पितृभूमि एवं अपनी
पुण्यभूमि मानता है, वह हिंदू है"। अब इस परिभाषा के अनुसार प्रत्येक
राष्ट्रभक्त भारतीय, उसका पंथ कुछ भी हो, उसका पूजा स्थल मन्दिर हो,
अथवा मस्जिद, अथवा चर्च अथवा कुछ और, वह हिंदू हो जाता है। सावरकर के
हिंदुत्व की परिभाषा को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में
अपनाया। सावरकर ने कहा था, "भारत के मुस्लिमों, ये देश आपका है। इसके
टुकड़े करने के षड़यंत्र में न फँसो। आप साथ हो तो आपके साथ, आप साथ
नहीं हो तो आपके बिना, और आप विरोध में हो तो आपने विरोध के बावजूद,
हम भारत को स्वतंत्र करवाएँगे।" विभाजन के लिए उत्तरदायी राजनैतिक दल
के कुछ लोग ऐसा कहने वाले सावरकर को उलटे विभाजन का उत्तरदायी ठहराते
हैं। उन्हें 'हिंदू जिन्ना' तक कह डालते हैं। फ़्रांस
की सरकार सावरकर पर स्मारक बनना चाहती है परन्तु वोट बैंक की राजनीति
में जकड़ी भारत की सरकारें लगभग १५-१६ साल से फ़्रांस को अनुमति नहीं दे
रही हैं। यदि इस परिभाषा पर अमल किया जाये, तो
'अल्पसंख्यक' जैसे कपटपूर्ण शब्द की आवश्यकता ही न
रहे।
कुछ ऐसी ही बात की भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे डॉ. सुब्रमनियन
स्वामी ने। उन्होंने अपनी पुस्तकों में एवं कुछ मास पहले प्रकाशित
अपने लेख में भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए। 'जो भी भारत की
प्राचीन संस्कृति में आस्था रखता है, मानता है कि वह भी इसी मिट्टी की
संतान है, उसके पूर्वज यहीं के थे, कहीं बाहर से नहीं आये, आज उसका
पूजा-स्थल कोई भी हो, वह हमारे 'विराट हिंदू समाज' का अंग है। हाँ,
यदि ऐसा नहीं है, तो वह विरोध, विध्वंस एवं विनाश के बीज बोएगा, और
उसे ऐसा करने से रोकने की आवश्यकता है।' तथाकथित 'अल्पसंख्यक' जिन्हें
स्वयं को छाती पीट पीट कर धर्मनिरपेक्षता का ढोंग करके तुष्टिकरण कर
अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकने वाले राजनैतिक दलों ने इतने वर्षों से
उस अखबार की तरह प्रयोग किया जिसपे खाना खा कर उसे कूड़े में फेंक दिया
जाता है, वे सभी केवल इस अपनत्व को स्वीकार लें, तो वे इस प्रकार
प्रयोग होने से बच जाएँ। परन्तु, उसी लेख के कारण सुब्रमनियन स्वामी
पर अनर्गल आरोप लगाये गए।
अब आते हैं नरेन्द्र मोदी पर। मोदी ने सदैव "मेरे ५ करोड़
गुजराती" कह कर अपनी प्रजा को संबोधित किया। शायद हमारे
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी को उनसे सीख लेने की आवश्यकता है जो वे
उर्दू में लिखा अपना भाषण पढ़ते हुए लाल किले की प्राचीर से भी
भारतवासियों को नहीं, "हिंदुओं, मुस्लिमों, सिखों, ईसाईयों" को
संबोधित करते हैं। सबका साथ, सबका विकास, समरसता, सद्भावना को जीवंत
करके दिखलाने वाले मोदी के गुजरात में विगत ९.५ वर्ष अभूतपूर्व
सांप्रदायिक सौहार्द के वर्ष रहे हैं। दंगों का लंबा इतिहास रखने वाले
गुजरात में २००२ के दंगों के बाद से वहाँ साम्प्रदायिकता का एक पत्ता
नहीं खड़का।
स्वयं भारत सरकार द्वारा मनोनीत समितियों की रिपोर्ट कहती है कि
गुजरात में मुस्लिम भारत के किसी अन्य राज्य की अपेक्षा अधिक सुखी,
अधिक संपन्न हैं। और विकास की अभूतपूर्व आँधी में मोदी ने संस्कृति
सभ्यता का हनन नहीं होने दिया। गुजरात के सांस्कृतिक गौरव को जीवंत
रखा। परन्तु मोदी की छवि उसके बिलकुल विपरीत बनाने के प्रयास किए गए।
वस्तुतः मोदी के चरित्र हनन के जितने प्रयास हुए हैं, उन्हें देख कर
कंस द्वारा कृष्ण की हत्या के लिए भेजे गए तमाम राक्षसों का स्मरण हो
आता है। परन्तु जग जानता है, कंस कृष्ण का कुछ बिगाड़ न सका था, और समय
आने पर, कंस का वध भी कृष्ण के ही हाथों हुआ। और ऐसा भी नहीं कि केवल
कंस वध ही कृष्ण के होने का कारण हो, वह तो प्रारंभ था। मथुरा को कंस
के अत्याचारों से मुक्त करवाने के बाद कृष्ण ने धर्मयुद्ध करवा कर
पूरे भारत को एकीकृत कर सम्राट युधिष्ठिर के शासन में धर्म की
संस्थापना की थी।
अब प्रश्न उठता है कि वे लोग किस मानसिकता का विष लिए घूम रहे हैं
जिन्हें सावरकर, मोदी और स्वामी अपनाने के नहीं, ठुकराने के, जोड़ने के
नहीं, तोड़ने के पैरोकार दिखाई देते हैं। ध्यान रहे ये वही लोग हैं,
जिन्हें सच को सच कहने में मृत्यु आती है। ये वो लोग हैं जो अन्ना
हजारे द्वारा गुजरात के विकास की प्रशंसा करने पर ऐसा विधवा-प्रलाप
करते हैं कि अपने आन्दोलन के निष्फल हो जाने के भय से घबराए अन्ना को
विवश हो कर प्रशंसा वापिस लेनी पड़ती है। महबूबा मुफ्ती मोदी की
प्रशंसा करके मुकर जाती हैं और उनका झूठ बैठक के प्रतिलेखों से सामने
आता है। डेढ़ दशक से अधिक समय से प्रत्यक्ष समाज सेवा में लगी, अनेक
अनाथ बच्चों, विधवा स्त्रियों एवं असहाय वृद्धों के लिए वात्सल्यग्राम
चलाने वाली पूजनीया साध्वी ऋतंभरा के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में
शामिल होने पर इस मानसिकता के लोग ऐसा हंगामा खड़ा करते हैं, जैसे
आसमान टूट पड़ा हो। कारण, उनके विरुद्ध रामजन्मभूमि विवाद से सम्बंधित एक अभियोग न्यायालय में
लंबित है।
परन्तु, उन्हीं लोगों को कभी भी भारत विरोधी भाषण देने वाले शाही इमाम
के आगे मत्था टेकने में कोई खोट दिखाई नहीं देता। और इस मानसिकता के
विकृत रूप की पराकाष्ठा तो तब हुई जब ८ दशकों से इस देश की अस्मिता
एवं अखंडता की रक्षा एवं सेवा में लगे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से अलग दिखलाने के लिए अन्ना और उनकी टीम
ने धरती आकाश एक कर दिए। १० वर्षों से संघ के स्वयंसेवकों द्वारा
स्थापित मुस्लिम राष्ट्रीय मंच पहले कश्मीर और अब सम्पूर्ण
भारत के मुस्लिमों को विद्वेष एवं तुष्टिकरण की राजनीति खेलने वाले
दलों के दुष्प्रचार के चक्रव्यूह से बाहर निकालने में लगा हुआ है। पर
जो लोग सावरकर, मोदी और स्वामी के तत्व को न देख, उनकी परछाई को ही
देख उन्हें गलत समझने की भूल करते हैं, अथवा सब कुछ जान बूझ कर उनके
विरुद्ध दुष्प्रचार करते हैं, वहीं लोग संघ को भी लांछित करने में
सबसे आगे होते हैं।
परछाई तो केवल उस प्रकाश की अनुपस्थिति का प्रमाण है जो व्यक्ति ने
सोख लिया ताकि वह जग को प्रकाशित कर सके। परछाई देख मंतव्य बना लेना
तो भारतीय संस्कृति नहीं। कैसी विडम्बना है कि मोदी के विकास की
प्रशंसा करना भी पाप है, और संघ या साध्वी ऋतंभरा भ्रष्टाचार के
विरुद्ध लड़ने आएँ तो उनसे अछूतों जैसा व्यवहार करने की संस्तुति की
जाती है। क्या 'सत्यमेव जयते' के देश में सच कहना प्रतिबंधित हो गया
है ? हमें सावरकर, मोदी, स्वामी और संघ जैसे उदाहरणों से सीखने की
आवश्यकता है। वही हमारी संस्कृति के आधुनिक प्रतिनिधि हैं, और संरक्षक
भी, और हमारे स्वर्णिम भविष्य के स्वप्न को साकार करने के दायित्व के
उत्तराधिकारी भी। सनातन राष्ट्रवाद को समझने और अपनाने की आवश्यकता
है। भारत को विडंबनाओं का नहीं, पुनः गौरवपूर्ण विविधताओं का राष्ट्र
बना पुनः विश्वगुरु पद पर आसीन करवाने के मार्ग में यह एक महती योगदान
होगा।
अभिषेक टंडन (ये लेखक के निजी विचार हैं)
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