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गरीबी के सवाल में उलझी सरकार, नए मापदंडों के बहाने 2012 में पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों तक टालना चाहती है

गरीबी रेखा के दायरे में आने वाले व्यक्ति के खर्च के सवाल को सुलझाने की बजाय उलझाने की कवायद फिलहाल जारी है। शीर्ष अदालत में हलफनामा पेश करने के बाद योजना आयोग और सरकार की छीछालेदर के बाद नए सिरे से गरीबी रेखा तय करने के ऐलान से तो यही जाहिर होता है कि सरकार गरीबी रेखा का हल निकालना नहीं चाहती। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने संयुक्त पत्रकारवार्ता में साफ कर दिया है कि सामाजिक, आर्थिक और जातिगत गणना के आंकड़े सामने आने के बाद ही गरीबी रेखा का निर्धारण किया जाएगा। आखिर गरीबी का जाति से क्या तात्पर्य? नए मापदंडों के बहाने केंद्र सरकार गरीबी रेखा को 2012 में पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों तक टालना चाहती है।
यदि वाकई सरकार गरीबी रेखा तय करके जनकल्याणकारी योजनाओं को लागू करने की इच्छा रखती तो उसके पास अर्जुन सेन समिति की वह रिपोर्ट है जिसमें देश की 70 फीसदी जनता को गरीब बताते हुए उनकी आमदनी 20 रुपये रोजाना बताई गई है, लेकिन यह रिपोर्ट गरीबों की तादाद ज्यादा तय करती है इसलिए इसे दरकिनार कर दिया गया है। योजना आयोग द्वारा शीर्ष न्यायालय में पेश शपथ-पत्र ने पहले ही तय कर दिया था कि केंद्र सरकार गरीबों की वास्तविक संख्या और बदहाली से रू-ब-रू होना ही नहीं चाहती।
इस कारण किस आय के व्यक्ति को गरीब माना जाए यह मुद्दा विवाद का हिस्सा बना हुआ है। गरीबी मापने के जो भी अंतरराष्ट्रीय पैमाने हैं और निष्पक्ष सोच के जो अर्थशास्त्री हैं उनकी सलाह को सरकार दरकिनार करके अपने ढंग से गरीबी तय करने के मापदंड अपनाती रही है। सरकार की मंशा गरीबी की सही माप से कहीं ज्यादा गरीबी छिपाने की कोशिश है ताकि अर्थव्यवस्था की विकास दरऊंची बनी रहे और नवउदारवाद की आर्थिक नीतियों का पोषण होता रहे। गरीबों की रोजमर्रा की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति हो अथवा न हो, लेकिन उनको लाभ पहुंचाने वाली योजनाओं के आंवटन में कटौती की जाती रहे।
इसी मानसिकता के चलते बेलगाम मंहगाई के बावजूद हलफनामे में यह कथन शपथपूर्वक कहने में कोई संकोच नहीं किया कि गांव का गरीब 26 रुपये प्रतिदिन और शहरी गरीब महज 32 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से न केवल पेट पाल सकता है, बल्कि शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं के साथ अन्य दैनिक जरूरतें भी पूरी कर सकता है। इससे जाहिर होता है हमारे नीति-निर्माताओं के जनसरोकारों से कोई मानवीय ताल्लुक तो बचे ही नहीं और वह अपनी जिम्मेदारी से भी मुंह फेर लेना चाहते हंै। जब महंगाई दिन-दूनी, रात-चौगुनी आसमान छू रही हो तब सरकार सुरेश तेंदुलकर समिति द्वारा 2004-05 में जताई कीमतों के आधार पर गरीबी रेखा का निर्धारण करने पर आमादा है।
इस रिपोर्ट में शहरी क्षेत्र के लिए 579 रुपये और ग्रामीण क्षेत्र के लिए 447 रुपय प्रतिमाह की आमदनी को गरीबी रेखा का आधार माना गया है। हलफनामा के अनुसार जून 2011 की कीमतों के आधार पर शहरी क्षेत्र में 965 रुपये और ग्रामीण क्षेत्र के लिए 781 रुपय प्रतिमाह खर्च करने वाले को गरीब नहीं माना जा सकता। संप्रग सरकार की गरीबी पर पर्दा डालने की आत्ममुग्ध कोशिश दरअसल गरीबी के आंकड़ों के साथ खिलवाड़ है। यह बयान इस बात का भी संकेत है कि अर्थव्यवस्था में कहीं कुछ जबरदस्त गड़बड़झाला है और खाद्य सुरक्षा खतरे में है। महंगाई का बेलगाम घोड़ा जिस तरह से आम आदमी की दैनिक जरूरतों को रौंदता हुआ आगे बढ़ रहा है उससे तो गरीबों की संख्या में और इजाफा होना चाहिए था। तो फिर गरीबी छिपाने की कोशिश किसलिए?
मनमोहन सरकार अपनी पीठ थपथपाने का दावा 2005-06 में भी कर चुकी है। तब योजना आयोग के आंतरिक मूल्यांकन में जताया गया था कि गरीबी रेखा के नीचे जीने वालों का अनुपात घटकर 24 प्रतिशत रह गया है, जबकि इसके ठीक पहले 2004-05 में यह अनुपात 27.5 प्रतिशत था। गरीबी में एकाएक साढ़े तीन प्रतिशत की कमी आना आश्चर्यजनक था। पिछले एक दशक की प्रगति को गरीबी घटने का आधार मानें तो वह महज 0.8 प्रतिशत की वार्षिक दर से घटी है। फिर यह बढ़ोतरी किस कलाबाजी की देन रही? योजना आयोग ने इस करिश्मे की वजह सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि को बताया था जो 2005-06 में 9.4 प्रतिशत थी, लेकिन इसके पहले के दो वर्षो में यह विकास दर 8 प्रतिशत के लगभग रही थी। हालांकि तब गरीबी घटने की दर में तेजी दिखानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं दिखा। अब सवाल यहां यह उठता है कि आखिर सरकार अपनी ही गरीब जनता के साथ यह फरेब क्यों रच रही है?
पूर्व में गरीबी का आकलन पोषक तत्वों की उपलब्धता के आधार पर किया जाता था। मसलन शहरी व्यक्ति की आय इतनी हो कि वह 2100 कैलोरी और ग्रामीण व्यक्ति 2400 कैलोरी ऊर्जा देने वाले खाद्यान्न खरीद सके। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् भी कहता है कि स्वस्थ व्यक्ति के लिए 2800 कैलोरी ऊर्जा की जरूरत होती है। इस तरह प्रत्येक परिवार को 50 से 65 किलोग्राम अनाज, 6 से 8 किलोग्राम दाल और 3 से 5 किलोग्राम तेल मिलना चाहिए। खाद्यान्न की यह उपलब्धता केवल उदरपूर्ति से जुड़ी है जबकि मनुष्य की बुनियादी जरूरतें इसके इतर भी हैं। लिहाजा गरीबी के मानदंड की इस प्रचलित अवधारणा को नकारा गया और गरीबी नापने की नई पद्धति विकसित हुई, जिसमें पोषक खाद्यान्न के साथ रसोई पकाने के लिए ईंधन, बिजली, कपड़े और जूते-चप्पल शामिल किए गए। सुरेश तेंदुलकर द्वारा किए गए गरीबी के आकलन का आधार यही है। इस रिपोर्ट ने तय किया है कि 41 करोड़ लोग ऐसे हैं जो जीने के अधिकार से वंचित रहते हुए भुखमरी के दायरे में जीने को अभिशप्त हैं।
ये आंकड़े इस हकीकत के निकट हैं कि भारत में 40 फीसदी से भी ज्यादा लोग प्रतिदिन भूखे सोते हैं। तेंदुलकर समिति ने तय किया था कि 41.8 प्रतिशत आबादी मसलन 45 करोड़ लोग प्रतिमाह प्रति व्यक्ति 447 रुपये में बमुश्किल जीवन-यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक गरीबी नापने का मानक पैमाना 14 रुपये से ज्यादा और 25 रुपये से कम आय वाले ग्रामीण व्यक्ति को गरीब मानने का रहा है। शहर में 580 रुपये प्रतिमाह कमाने वाला व्यक्ति को गरीब माना जाता है। विश्व में प्रचलित गरीबी की परिभाषा के दायरे में भारत का आकलन करें तो यह कड़वी सच्चाई है कि भारत की कुल आबादी दुनिया की कुल आबादी की महज 17 प्रतिशत है और दुनिया के 36 प्रतिशत गरीब भारत में रहते हैं। तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट आने के दो साल पहले 2007 में राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण के जरिये अर्जुन सेन ने बताया था कि भारत की 77 फीसदी आबादी यानी 83.5 करोड़ लोग 20 रुपये से भी कम आय पर गुजारा करने को मजबूर हैं। इस समिति ने साढ़े सात करोड़ लोगों की आय प्रतिदिन मात्र नौ रुपये बताई थी।
तेंदुलकर समिति ने जिन गरीब राज्यों की सूची जारी की हैं उनमें उड़ीसा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार जैसे राज्य शामिल हैं। यहां अचरज में डालने वाली बात यह है कि इन्हीं राज्यों में बढ़ता नक्सलवाद सरकारों के लिए संकट बना हुआ है। इससे जाहिर होता है कि आमजन के बीच संसाधनों का न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं हो पा रहा है। इस हकीकत के सामने आने से यह आरोप भी सही नजर आता है कि केंद्र व राज्य सरकारें राजकोष का उपयोग गरीब तबके के कल्याण की बजाय पूंजीपतियों के सरोकार कैसे साधे जाएं इसमें ज्यादा है। संभवत: गरीबी पर पर्दा भी इसीलिए डाला जा रहा है। देश में जितने अधिक गरीब होंगे उसी अनुपात में भारत सरकार को गरीबों के लिए सब्सिडी की सुविधाएं कम मुहैया करानी होंगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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