खेडा अफगान (मुजफ्फरनगर)।। मनुष्य यदि किसी काम को करने की ठान ले तो मुश्किलें भी उसके लिए राह बनाने लगती हैं। मुजफ्फरनगर जि..

अन्ना टीम के लोगों ने जब से हिसार पर मुंह खोलना शुरू किया है, कई तात्कालिक और मूलभूत सवाल उठ खड़े हुए हैं। जैसे यह कि हिसार के उप-चुनावी दंगल में सीधे कूदकर क्या उन्होंने ठीक किया और यह मूलभूत प्रश्न भी कि क्या यह आंदोलन सिर्फ कागजी पुलाव बनकर रह जाएगा? क्या इसका हश्र जे पी आंदोलन से भी बुरा होगा?
जहॉं तक हिसार के उप-चुनाव का प्रश्न है, अन्ना खुद हिसार नहीं गए, यह उन्होंने ठीक किया। वे जाते तो उनका वजन काफी घट जाता। लेकिन उन्होंने अपील जारी कर दी। कांग्रेस को हटाओ। उनकी टीम के लोग भी धुआंधार प्रचार में लगे हुए हैं। आम आदमी यह नहीं समझ पा रहा कि अन्ना ने इस वक्त कांग्रेस हटाओ का नारा क्यों दे दिया? यह अभियान शुरू करने के पहले उन्होंने कांग्रेस को दो दिन की मोहलत दी थी और कहा था कि यदि कांग्रेस दो दिन के अंदर यह वचन नहीं देगी कि संसद के शीतकालीन सत्र में वह जन-लोकपाल बिल पास कर देगी तो वे कांग्रेस-हटाओ अभियान शुरू कर देंगे। जाहिर है कि कांग्रेस ने कोई वचन नहीं दिया।
यहॉं प्रश्न यह है कि क्या कांग्रेस या सरकार से ऐसा वचन मांगना अपने आप में उचित था? वास्तव में अन्ना-आंदोलन एक के बाद एक इतनी ठोकरें खा चुका है कि उसे कांग्रेस विश्वासघाती लगने लगे, यह स्वाभाविक है। इसमें कांग्रेस का दोष क्या है? सभी सत्तारूढ़ दलों और सरकारों का रवैया लगभग एक-जैसा ही होता है। वे जन-आंदोलनों को फुस्स करने की पूरी कोशिश करती हैं। साम, दाम, दंड, भेद। यह नेतृत्व और दृष्टि का अभाव ही था कि इतने अपूर्व जन-समर्थन के बावजूद अन्ना और उनकी टीम हर मोर्चे पर गच्चा खा गई। पहले मंत्रियों के साथ साझा बिल बनाने पर और फिर अनशन तोड़ने पर! अनशन तोड़ते वक्त अन्ना की टीम के वकीलों ने सरकारी चिट्ठी की भाषा को ही नहीं समझा। देश के ये जाने-माने वकील अंग्रेजी ठीक से नहीं समझते, यह भी मैं नहीं कह सकता। जिस दिन अन्ना अनशन तोड़ रहे थे, उस पूरे दिन मैं ‘स्टार टी वी चैनल’ के स्टूडियो से बार-बार समझा रहा था कि सरकारी आश्वासन शुद्ध धोखे की ठट्ठी है लेकिन अन्ना टीम के लोग सिर्फ इसी बात से गद्गद् थे कि वाह! हमने सरकार के घुटने टिकवा दिए। सच है! सरकार ने घुटने जरूर टेके लेकिन घुटने टेककर उसने आपको ऐसी टंगड़ी मारी कि आप चारों खाने चित हो गए। उसने आपको रामलीला मैदान से खाली हाथ चलता कर दिया। उसने रामदेवजी के साथ तो दुष्टता की लेकिन अन्नाजी के साथ धूर्तता की।
अन्ना-टीम ने अपनी सबसे प्रमुख तीनों मांगों को ताक पर रख दिया। प्रधानमंत्री, जजों और सांसदों की लोकपाल के दायरे में लाने की। तीन अन्य मांगों को शर्त बना लिया। सरकार ने उन तीन मांगों को भी माना नहीं। उन्हें सिर्फ संसद की स्थायी समिति के पास भेजने की सिफारिश को संसद से पारित करवा दिया। इसका अर्थ क्या हुआ? कुछ भी नहीं। खोदा पहाड़ और चुहिया भी नहीं निकली। न तो जन-लोकपाल बिल के पास होने का कोई ठोस आश्वासन मिला और न कोई समय-सीमा तय हुई। अब एक-डेढ़ माह का समय बीतने पर अन्ना-टीम को लगा होगा कि हम तो बेवकूफ बन गए। पूर्व-अफसरों और वकीलों पर नेता भारी पड़ गए। ऐसे नेता, जिनकी प्रतिष्ठा पैंदे में बैठ चुकी है। तो क्या ऐसी हालत में अन्ना-टीम को गुस्सा नहीं आएगा? यह गुस्सा बिल्कुल स्वाभाविक है।
हिसार में यही गुस्सा प्रकट हो रहा है लेकिन यह निरर्थक है, क्योंकि हिसार में कांग्रेसी उम्मीदवार के हारने की बात तो पहले से ही लगभग तय है। अन्ना के आह्वान की परीक्षा तो तब होती, जबकि हिसार में कांग्रेस की पक्की सीट होती और वहां अन्ना-टीम कांग्रेस की जमानत जब्त करवा देती। अब यदि कांग्रेसी उम्मीदवार किसी वजह से जीत गया या उसके वोट बढ़ गए तो अन्ना-टीम की कितनी किरकिरी हो जाएगी? क्या वह पांच राज्यों के अगले चुनाव में जाने लायक रह जाएगी?
इसके अलावा अकेली कांग्रेस को क्यों हराओ? क्या अकेली कांग्रेस कोई बिल पास कर सकती है? कांग्रेस गठबंधन के साथी दलों को भी क्यों नहीं हराओ? और विपक्षी दल? कौन सा ऐसा विपक्षी दल है, जिसने जन-लोकपाल बिल का पूरा समर्थन किया है? सभी दलों को कुछ न कुछ आपत्ति है, कुछ न कुछ संकोच है, कुछ न कुछ विरोध है। स्वयं अन्ना टीम भी अपने बिल से पूर्ण सहमत नहीं है। वह उसमें खुद भी दर्जनों संशोधन कर चुकी है। ऐसे पल-पल में बदलनेवाले बिल को कसौटी बना लेना और उसके आधार पर संसद को चुनौती देने का औचित्य क्या है? अन्ना को संसद से भी बड़ा बताना हताशा का सूचक है। इस मामले में अन्नाजी काफी समझदार हैं। अन्ना को पता है कि वे न तो कोई नेता हैं, न कोई बुद्धिजीवी, न कोई महान संगठक! वे तो एक प्रतीक भर हैं। भ्रष्टाचार के विरूद्ध उबल रहे जन-आक्रोश के प्रतीक!
इन सीधे-सच्चे प्रतीक को हिलाने-डुलानेवाले लोग दूसरे ही हैं। ये दूसरे लोग भी अच्छे ही हैं लेकिन वे अन्ना की तरह यथार्थवादी बने रहें, यह जरूरी है। वे ये न भूलें कि रामलीला मैदान के अनशन के वक्त जो जन-आक्रोश उमड़ा था, वे उसके निमित्त-मात्र थे। वे उसके कारण नहीं थे, सिर्फ कारक थे। वह आक्रोश उनकी वजह से नहीं उमड़ा था। वह पहले से ही था। उनकी वजह से वह ऊपर उभर आया। इस आक्रोश को उसके मुकाम तक तभी पहुंचाया जा सकता है जबकि उसके पास दूरंदेश नेतृत्व हो, उसकी कुछ विचारधारा हो, संगठन हो, कार्यक्रम हो और रणनीति हो। हिसार के दंगल में कूदना उक्त सभी बातों का नकार है। लोकपाल तो उत्तम किंतु लघु उपाय है। भ्रष्टाचार के दैत्य का दलन तो अनेक गहरे और कठोर उपायों के बिना नहीं हो सकता। एक पार्टी के मुकाबले दूसरी पार्टियों को बेहतर मानने का मतलब क्या हुआ? यही न, कि जो भ्रष्टाचारी आपसे सहमत है, वह भ्रष्टाचारी नहीं है और जो आपसे सहमत नहीं है, वह भ्रष्टाचारी है। वास्तव में सारे मौसेरे भाई हैं। उनमें से आप सिर्फ एक के विरूद्ध हैं, बाकी सबको आप गले लगा रहे हैं।
जयप्रकाश-आंदोलन ने तो समस्त प्रमुख विरोधी दलों को एकजुट कर लिया था। क्या अन्ना-टीम में यह क्षमता है? बिल्कुल नहीं। तो फिर वह दलीय राजनीति में क्यों कूद रही है? क्या पता कांग्रेस के बाद जो दल आएगा, वह उससे भी कहीं ज्यादा भ्रष्ट न हो? क्या अन्ना-आंदोलन दलों के दायरे से बाहर निकल सकता है? क्या वह सत्ता-परितर्वन की बजाय व्यवस्था-परिवर्तन पर जोर दे सकता है? डर यह है कि दलीय और चुनावी राजनीति के दलदल में फंसकर अन्ना-आंदोलन कहीं सिर्फ अखबारों और टीवी चैनलों का गुब्बारा न बनकर रह जाए! इससे अधिक दुखद क्या होगा?
— साभार डॉ. वेदप्रताप वैदिक
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