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जी हां! यहां लगती है इंसानों की मंडी, बुंदेलखण्ड, उत्तर प्रदेश
चौंकिए मत, यह सच है. बुंदेलखण्ड के जनपदों के तकरीबन सभी कस्बों
में 'इंसानों की मंडी' लगती है, जहां सूखे और बेरोजगारी से पस्त गरीब
दिनभर के लिए खुद की 'बोली' लगाते हैं. इसे बुंदेलखण्ड की बदकिस्मती
कहें या कुछ और! सरकारी आंकड़ों की बाजीगरी के चलते विशेष पैकेज और एक
सौ दिन काम की गारंटी देने वाली योजना 'मनरेगा' भी यहां नाकाम साबित
हो रहा है.
उत्तर प्रदेश में बुंदेलखण्ड के सभी जनपदों बांदा, चित्रकूट, महोबा,
हमीरपुर, जालौन, ललितपुर व झांसी में कामगारों के हालात बेहद खराब
हैं. पिछले कई साल से पड़ रहे सूखे की वजह से यहां के लोग 'कर्ज और
मर्ज' के शिकार हो गए हैं. करीब साठ हजार किसानों पर दो अरब से ज्यादा
सरकारी कर्ज लद गया है. अदायगी न कर पाने पर किसान आत्महत्या तक करने
लगे हैं, हालांकि राज्य सरकार यह मानने को तैयार नहीं है.
लोगों की बेबसी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तकरीबन सभी
जनपदों के कस्बों के चौराहों में भोर से ही 'इंसानों की मंडी' सजने
लगती है. गांव-देहात से आए गरीब हाथ में फावड़ा-कुदाल व डलिया लिए
किसी सेठ-महाजन के आने का बेसब्री से इंतजार करते मिल जाएंगे. इन
मंडियों में श्रमिकों को दो श्रेणी में बांटा गया है- पुरुष को
'बेलदार' और महिला को 'रेजा'.
पुरुष को डेढ़ सौ व महिला को सवा सौ रुपये की दिहाड़ी दी जाती है,
इसके एवज में उन्हें 12 घंटे कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. काम की ललक
में मजदूर खुद की 'बोली' लगाने के लिए मजबूर हैं, कम रेट बताने पर ही
काम मिल पाता है.
बांदा के महोतरा गांव के 70 साला बुजुर्ग भोला रैदास के पास एक विश्वा
जमीन नहीं है, जर्जर काया में वह लाठी के सहारे रोजाना पांच किलोमीटर
पैदल चल कर अतर्रा कस्बे में चारपाई की बुनाई का काम करता है. दिन भर
में वह 25-30 रुपये कमा लेता है, सरकारी सुविधा कुछ भी नसीब नहीं
है.
वह बताता है कि 'दिन भर में जो कमाया, उसी से शाम को आटा-भात लेकर पेट
की आग बुझाते हैं. काम न मिलने पर भूखे पेट रात गुजारनी पड़ती है.'
पचोखर गांव की गायत्री (31) व सावित्री (36) का अलग दर्द है. वह बताती
हैं कि 'घर में दुधमुंहे बच्चों को छोड़कर काम की तलाश में आई हैं, न
तो राशन कार्ड है और न ही जीने का दूसरा सहारा. महात्मा गांधी
राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) का जॉब कार्ड तो बना है, पर
प्रधान काम नहीं देते.' ये दोनों पिछले चार साल से यहां काम की तलाश
में आती हैं.
चित्रकूट जनपद दशकों से डाकुओं और दादुओं के लिए जाना जाता है, यहां न
तो आवागमन के साधन हैं और न ही उद्योग-धंधे. बरगढ़ में पूर्व
प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहल पर एशिया की सबसे बड़ी ग्लास फैक्टरी
की स्थापना हुई, वह भी बंद है. जंगलों में बसे लोग दो वक्त की रोटी के
जुगाड़ में रोजाना शहर के चक्कर लगाते हैं.
यहां के सरकारी बस स्टॉप पर सैकड़ों की तादाद में श्रमिक एकत्र होकर
अपनी 'बोली' लगाते हैं. यही हाल हमीरपुर, झांसी और ललितपुर जनपद का
है. ललितपुर के मड़वारी गांव के दलित सियाराम का कहना है, "रोजाना
पंद्रह किलोमीटर की दूरी तय कर काम की तलाश में शहर आना उसकी मजबूरी
है, क्योंकि गांव में सरकारी काम मिलता नहीं और बड़े लोगों की 'चाकरी'
में बसर नहीं किया जा सकता."
एक सामाजिक कार्यकर्ता नसीर अहमद सिद्दीकी को सूचना का अधिकार
(आरटीआई) के तहत भारत सरकार द्वारा दी गई सूचना के अनुसार, चालू
वित्तवर्ष के चार माह (अप्रैल, मई, जून व जुलाई) में बांदा जनपद में
25,097 मजदूरों को 85 दिन, चित्रकूट में 19,686 मजदूरों को 49 दिन,
हमीरपुर में 21,313 को 95 दिन, महोबा में 11,170 श्रमिकों को 135 दिन
झांसी में 30,876 को 121 दिन, जालौन में 38,303 को 99 दिन व ललितपुर
में 44,409 श्रमिकों को 156 दिन यानी चित्रकूटधाम मंडल में 77,266
लोगों को 364 व झांसी मंडल में 1,13,588 कामगारों को महज 376 दिवस,
बुंदेलखण्ड में कुल 1,90,854 कामगारों को 740 दिन ही काम दिया गया
है.
नसीर का कहना है, "यह आंकड़ों की बाजीगरी है, गरीबी, भुखमरी और
तंगहाली जैसे हालात से जूझ रहे बुंदेलखण्ड में मनरेगा धरती से ज्यादा
कागजों पर चल रही है. इसीलिए गरीब रोजी-रोटी की तलाश में रोज बिकने को
मजबूर होता है."
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