आज अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी पर भगत सिंह क्रांति सेना और दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) के उपाध्यक्ष और ..
युद्धभूमि में गीता सुनाने के लिए इतना समय मिलना संभव है क्या?

कलियुग के प्रारंभ होने के मात्र तीस वर्ष पहले, मार्गशीर्ष शुक्ल
एकादशी के दिन, कुरुक्षेत्र के मैदान में, अर्जुन के नन्दिघोष नामक रथ
पर सारथी के स्थान पर बैठ कर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश
किया था। इसी तिथि को प्रतिवर्ष गीता जयंती का पर्व मनाया जाता है।
कलियुग का प्रारंभ परीक्षित के राज्याभिशेष से माना जाता है, और
महाभारत युद्ध के पश्चात तीस वर्ष राज्य करने के बाद युधिष्ठिर ने
अर्जुन के पौत्र परीक्षित का राजतिलक किया था।
उस समय दिन का प्रथम प्रहर था। चूँकि सभी योद्धा स्नान-ध्यानादि
नित्यकर्मों से निवृत्त होने के पश्चात ही रणक्षेत्र में प्रवेश करते
थे और युद्ध का प्रथम दिवस होने के कारण उस दिन व्यूह-रचना में भी कुछ
समय लगा ही होगा, अत: कहा जा सकता है कि गीता के उपदेश का समय
प्रात:काल आठ से नौ बजे के बीच होना चाहिए। अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनों
ने ही उस समय कवच धारण कर रखे थे। दोनों के मस्तक पर शिरस्त्राण भूषित
थे। अर्जुन के रथ पर वानर-ध्वज उड़ रहा था और उस रथ में हरे रंग के
चार घोड़े जूते थे। गंधर्वराज चित्ररथ ने पार्थ की मैत्री निभाने के
लिए अपने इन घोड़ों को स्नेहपूर्वक उन्हें प्रदान किया था। आजकल
पृथ्वी पर उस रंग के अश्व नहीं पाए जाते। धनंजय के रथ के यह घोड़े
ऊँचे, दुबले और अत्यंत तीव्रवेगी थे।
सबसे पहले कौरव सेना के महानायक पितामह भीष्म ने ही
शंखनाद किया था। यह कौरव-सेना को उत्तेजित करने के लिए ही नहीं बल्कि
विपक्ष को इस बात की सूचना देने के लिए भी था कि अब वह लोग युद्ध के
लिए पूरी तरह तैयार हैं। सेनापति के शंखनाद के साथ ही अन्यान्य
सेनानायकों ने भी शंखध्वनि की और रणवाद्य बज उठे। इसका प्रत्युत्तर
दिया विजय और मधुसूदन ने अपने शंख प्रतिध्वनित कर। पाण्डवदल की ओर से
की गई इस शंखध्वनि और रणवाद्यों के निनाद ने कौरवों की ओर से आती हुई
आवाज़ों को सहज ही दबा लिया। इसी समय अर्जुन ने अपने सारथी बने माधव
से कहा, ''मेरे रथ को दोनों दलों के मध्य ले चलें। मैं एक बार देखना
चाहता हूँ कि कुटिल दुर्योद्धन की ओर से किन किन लोगों को उनकी मृत्यु
यहाँ खींच लाई है, मुझे किन योद्धाओं के साथ युद्ध में रत होना
है?''
और, दोनों दलों के मध्य जो दूरी थी उसके बीच में अर्जुन का अकेला रथ
बढ़ आया। स्वभावत: उस समय उभय दलों के सभी लोगों की दृष्टि उस अकेले
रथ की दिशा में केन्द्रित हो गई थी। कौरवपक्ष के सेनापति भीष्म थे, और
पाण्डवगण ने अपनी सेना के नेतृत्व का भार सौंपा था महाराज द्रुपद के
ज्येष्ठ पुत्र धृष्ठद्युम्न के हाथों। लेकिन यह सर्वविदित था कि
पाण्डवपक्ष के सर्वश्रेष्ठ महारथी अर्जुन हैं और पितामह भीष्म के
सम्मुख युद्ध में वही टिक सकते हैं। इसी से अर्जुन का रथ जब पाण्डवों
की सेनाभूमि से आगे रणक्षेत्र के मध्य भाग में बढ़ आया तो कौरव उसके
प्रति अत्यधिक सतर्क हो उठे।
सहसा अर्जुन ने अपने हाथों में पकड़े हुए गाण्डीव को रथ के पिछले भाग
में फेंक दिया और अपने मस्तक को झुकाकर खिन्न मुख रथ पर बैठे रहे।
उन्होंने कह दिया, ''हृषिकेश, यहाँ तो दोनों दलों में अपने
स्वजन-संबंधी ही दिखाई पड़ रहे हैं। गुरु, दादा, मामा, साले, श्वसुर,
भाई - सब अपने ही लोग तो हैं। जिनकी सुख-सुविधा के लिए राज्य चाहिए,
वह तो अपने प्राणों का मोह त्याग कर स्वयमेव युद्धभूमि में आ पहुँचे
हैं। मैं त्रिलोक का राज्य पाने के लिए भी इनका वध नहीं कर सकता। अब
यह आप ही बताइए कि ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना अपेक्षित है,
क्योंकि मेरी बुद्धि तो इस समय कोई भी निर्णय लेने मे समर्थ
नहीं।''
और यही वह परिस्थिति थी जिसके मध्य श्रीकृष्ण ने धनंजय को गीता का
उपदेश किया - गीता का वह उपदेश जिसे सुनकर अर्जुन ने अपने गाण्डीव को
पुन: उठा लिया था और बोला था, ''मेरा मोह नष्ट हो
गया, आपकी कृपा से मुझे यथार्थ-स्मृति प्राप्त हुई और अब मैं पूरी तरह
आपके निर्देशों का पालन करने के लिए कृतसंकल्प हूँ।''
भगवान कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने महाभारत युद्ध
प्रारंभ होने के पहले धृतराष्ट्र से कहा था, ''राजन, यदि तुम युद्ध
देखना चाहो तो मैं तुम्हें दिव्यदृष्टि दे सकता हूँ।''धृतराष्ट्र का
त्वरित उत्तर था, ''अपने नेत्रों से मैं स्वजनों का संहार नहीं देखना
चाहता, लेकिन साथ ही युद्ध का पूरा विवरण जानते रहने की उत्कंठा भी
मुझे है। अत: यह दिव्यदृष्टि आप संजय को दे दें। वह युद्ध के दृश्य
देखदेख कर उसका विवरण मुझे सुनाता रहेगा।''
व्यास ने संजय को आशीर्वाद देते हुए उसे वरदान दिया था, 'रणक्षेत्र
में जो कुछ भी होगा उसे तुम यहीं बैठ कर प्रत्यक्षरूप से देख सकोगे।
वहाँ की प्रत्येक बातचीत तुम्हें ज्यों की त्यों सुनायी देगी, और
सम्बद्ध व्यक्तियों के मनोगत भाव तुम्हारे अन्तर्चक्षुओं के समक्ष यों
नाचेंगे जैसे यह धरती और आसमान। भगवान व्यास के इस आशीर्वाद के
परिणामस्वरूप ही गीता का जो उपदेश श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया उसे
संजय ने हस्तिनापुर के राजसदन में बैठे-बैठे सुना और फिर उसे ज्यों का
त्यों धृतराष्ट्र के सम्मुख रखता गया। अवश्य ही गीता का यह उपदेश
श्रीकृष्ण ने उस समय की बोलचाल की भाषा, संस्कृत गद्य में दिया होगा
जिसे कालान्तर में श्लोकबद्ध कर लिया गया। लेकिन श्रीकृष्ण के मुख से
निकले शब्द पद्यबद्ध करने में भी ज्यों के त्यों रक्खे गए हैं, ऐसा
आस्तिकजन का विश्वास है।
लोग शंका करते हैं - युद्धभूमि में गीता सुनाने के लिए इतना समय मिल
पाना सहज संभव है क्या?
ऐसे प्रश्न उस समय की वास्तविक स्थिति न जानने के कारण ही पूछे जाते
हैं, अत: तत्संबंध में निम्न तथ्यों पर ध्यान देना आवश्यक है। गीता
में कुल सात सौ श्लोक हैं। ठीक ढंग से गीता का पाठ करने में लगभग एक
घण्टे का समय लगता है। बोलचाल की भाषा जब संस्कृत रही होगी तब तो उसे
पूरा करने में इससे भी कहीं कम समय लगा होगा।
दूसरे, जब गीता का उपदेश किया गया उस समय युद्ध
नहीं चल रहा था - वह मात्र प्रारंभ होने की स्थिति में था। पाण्डवपक्ष
की ओर से अर्जुन द्वारा अपना घनुष रख देने के बाद कोई दूसरा व्यक्ति
युद्ध का प्रारंभ नहीं कर सकता था, और कौरवों की ओर से उसकी शुरुआत
करनी थी स्वयं पितामह भीष्म को। अर्जुन के धनुष उठाये बिना वह धर्मज्ञ
अपनी ओर से कोई आघात कर नहीं सकते थे। अत: यदि एक घण्टे के स्थान पर
दस घण्टे भी गीता के उपदेश में लगते तो भय या आशंका की कोई बात नहीं
थी।
इसके अतिरिक्त यह भी जानने की आवश्यकता है कि गीता का उपदेश पूर्ण
होने के बाद भी तत्काल युद्ध का प्रारंभ नहीं हुआ था। उपदेशोपरान्त
युधिष्ठिर अपने कवच और शस्त्रों का त्याग कर कौरवदल की ओर गए थे और
वहाँ पहुँचने के बाद भीष्म, द्रोण तथा शल्य जैसे अपने गुरुजनों से
उन्हों ने युद्ध में प्रवृत्त होने की अनुमति माँगी थी। अपनी सेनाभूमि
में वापस पहुचने के लिए युधिष्ठिर को भी घण्टा-आध घण्टे का समय तो लगा
ही होगा।, और उसके बाद ही औपचारिक रूप से युद्ध की शुरुआत हो पाई
थी।
इस प्रकार श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश युद्धभूमि में, शस्त्रसम्पन्न
सैन्यदलों के मध्य नन्दिघोष नामक रथ पर आरूढ़ होकर किया था, गीता का
अर्थ करते समय इस पृष्ठभूमि का स्मरण रखना आवश्यक है।
साभार abhivyakti-hindi.org ...
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