घटना उन दिनों की है जब भारत पर चंद्रगुप्त मौर्य का शासन था और आचार्य चाणक्य यहाँ के महामंत्री थे और चन्द्रगुप्त के गुरु भी..
समय के साथ साथ समाज बदलता है परन्तु जो अपना महत्व बनाए रखता है -
वही परंपरा का प्रतीक बन जाता है। ऐसी ही कुछ बातों में से एक है
हमारा पंचांग। माना आज सब कुछ बदल गया है, भले ही अबीर-गुलाल का
वसंतोत्सव (होली) शराब पी कर कपड़े फाड़ कर, ना ना प्रकार के रासायनिक
रंग लगा कर तेज गति से मोटरसाइकिल चलाने के लिए और रंगों में भीग डीजे
में नाचने के लिए मौके में बदल रहा हो या लड़कियाँ रक्षाबंधन पर भाइयों
से मिलने वाले उपहारों की अपेक्षा वैलेंटाइन डे पर बॉयफ्रेंड से मिलने
वाले उपहार के लिए अधिक लालायित रहती हो, फिर भी अपने त्योहारों की
तिथि तो अपने पंचांग से ही निर्धारित होती है। भले हम पंचांग की सुध
भी ना लें, लेकिन हमारे सारे त्योहारों से लेकर, शादी-ब्याह की
तिथियाँ, और शुभ मुहूर्त आदि तो पंचांग से ही निकलता है। भले आज हमें
अपनी जन्मतिथि भी याद ना हो (जिसके आधार पर हमारी जन्मपत्री बनी और
जिसके आधार पर शादी-ब्याह और हर जीवन के हर शुभ-अशुभ का बोध किया जाता
है) और इंग्लिश कलेंडर के अनुसार ही बर्थडे मनाते हो, परन्तु मरने
वाले बुजुर्गों के श्राद्ध तो आज भी पंचांग की तिथि के अनुसार ही होते
हैं। जिस-प्रकार सहस्त्र वर्षों के इस्लामिक, ब्रिटिश और अब सेकुलर
परतंत्रता के बाद भी यज्ञों, मन्त्रों, श्लोकों के माध्यम से पूजा-पाठ
और विवाह-आदि रस्मों में ही सही, लेकिन किसी ना किसी रूप में भी हमारी
संस्कृत अपना अस्तित्व बचाए हुए है, उसी प्रकार इन त्योहारों ने ही
हमारे पंचांग को भी जीवित रखा है। और इसलिए ये भी आवश्यक है की यदि हम
अपनी संस्कृति और धरोहर को पुनः संजोना चाहते हैं, तो हम पंचांग को
थोडा-बहुत ही सही, लेकिन समझने का प्रयास करें।
तो पहला प्रश्न उठता है की हमारे त्यौहार हार साल अपनी दिनांक क्यों
बदल लेते हैं? दीवाली कभी अक्टूबर में तो कभी नवम्बर में, कितनी
कठिनाई होती है इस कारण। क्रिसमस की तरह 'फिक्स डेट' हो तो कैसा हो?
उत्तर ये है कि क्रिसमस की 'फिक्स डेट' तब है जब वो अपने कलेंडर पर
मानता है - ग्रेगरी कलेंडर जिसे आज सब प्रयोग करते हैं। और उसी कलेंडर
के होने के बाद भी गुड फ्राइडे और ईस्टर आदि की दिनांक तो तब भी एक
नहीं रहती - बदलती रहती है। वही हमारे त्योहारों की तिथि हमारे कलेंडर
(पंचांग) के अनुसार हमेशा वही रहती है। दीवाली हमेशा कार्तिक की
अमावस्या को होगी, तो उसी दिन होगी, और होली फाल्गुन पूर्णिमा को होगी
तो तभी होगी। कोई परिवर्तन नहीं। अब आते हैं इनके इंग्लिश केलेंडर के
सापेक्ष आगे-पीछे होने पर। आगे का लेख पढ़कर आप बिना पंचांग देखे अपने
त्योहारों की 'डेट' बता पाएंगे कि किस साल में कौन सा त्यौहार किस
'डेट' पर पड़ेगा।
ये सामान्य ज्ञान है कि इंग्लिश केलेंडर सौर है जबकि हमारा पंचांग
चन्द्र-सौर, अर्थात हमारे पंचांग में चन्द्र एवं सूर्य दोनों की गति
का समावेश है। अब चूंकि ऋतु परिवर्तन आदि में दोनों का ही योगदान रहता
है - इसलिए हमारे पूर्वजों ने दोनों की गति का समावेश किया। चन्द्र
वर्ष ३५४.३७ दिन का होता है और सौर वर्ष ३६५.२४ दिन का, दोनों में
लगभग ११ दिन का अंतर है। हमारे पंचांग के महीने नियमित होते हैं और
चन्द्रमा की गति के अनुसार लगभग २९.५ दिन का एक चंद्रमास होता है
(अर्थात दो पूर्णिमाओं के बीच की अवधि), उसी के अनुसार अपने महीने
होते हैं - अर्थात हर मास में सामान दिन (इंग्लिश केलेंडर की तरह
ऊपर-नीचे नहीं - कभी २८, कभी ३०, कभी ३१) इस प्रकार ३५४.३७ दिन में
हमारा एक चन्द्र वर्ष पूर्ण हो जाता है। इस प्रकार हमारे त्यौहार अगले
वर्ष सौर केलेंडर (इंग्लिश केलेंडर) पर १०/११ दिन पीछे खिसक जाते हैं।
एक और वर्ष - और उसके बाद फिर १०/११ दिन पीछे, या यूँ कहें कि सौर
वर्ष चन्द्र वर्ष से १०.८७ दिन लम्बा होने के कारण, हमारा चन्द्र वर्ष
तो पूर्ण हो गया, परन्तु सौर केलेंडर १०/११ दिन पिछड़ गया। अब चूंकि
सौर महीने और चन्द्र महीने में ये अंतर है, और हम चन्द्र मास के
अनुसार वर्ष गिन रहे हैं, परन्तु हमें सूरज से भी सामंजस्य बिताना है,
इसलिए तीसरे वर्ष १३वें महीने का विधान है जिसे अधिक मास कहा जाता
है।
हिन्दू पंचांग एवं इस्लामिक हिजरी में यही अंतर है। हिजरी संवत में
अधिमास का कोई विधान नहीं है, इस कारण मुस्लिम त्यौहार हर वर्ष ११-११
दिन पीछे खिसकते जाते हैं। ईद दिसंबर से खिसक खिसक कर जनवरी तक आ जाती
है। ये ३ प्रतिशत का वार्षिक घोटाला इकठ्ठा होकर ३३ सालों में
पूरा सौ प्रतिशत हो जाता है यानी पूरा एक साल। यानी कि पृथ्वी
ने तो सूरज के ३३ ही चक्कर लगाए, लेकिन इस्लामिक केलेंडर ३४ साल आगे
बढ़ गया। इसी विकार को दूर रखने के लिए अधिमास हिन्दू पंचांग की
विशेषता है। और ऐसा नहीं कि ये कोई 'जुगाड़' हो - ये तो प्रकृति का सच
है कि ३६ सौर मास निकलते निकलते लगभग ३७ चन्द्र मास निकल जाते हैं।
इसीलिए तीसरे वर्ष एक महीने अधिक होने से हमारे त्यौहार जो फिर ११ दिन
पीछे खिसकते, वो अधिमास आने से तीसरे वर्ष -११+३० = १९ दिन आगे बढ़
जाते हैं। इस प्रकार ३ वर्ष में त्यौहार -११-११-११+३० = ३ दिन (या २
दिन) पीछे खिसके। ये ३ साल में ३ दिन का अंतर ११ सालों में फिर ११ दिन
का हो जाता है, इसलिए तीसरे, छठे, नौवे साल में अधिमास होने के बाद
अगला अधिमास १२वे साल में नहीं अपितु ११वे साल में ही आता है। इस
प्रकार एक अधिमास वाले वर्ष से शुरू कर के, उससे ३ साल, ६ साल, ९ साल
और ११ साल बाद अधिमास वाले वर्ष होंगे। ११ वर्ष में चार अधिवर्ष
(हिन्दू पंचांग का अधिवर्ष, अंग्रेजी का लीप इयर नहीं) और यही क्रम
पुनः चालू।
इसका अर्थ ये कि ११ साल के चक्र के बाद त्यौहार उसी दिन वापस आ
जायेंगे जिस दिन ११ साल पहले वो हुए थे। एक उदाहरण से बात
स्पष्ट होगी। दीवाली की पिछली ११ वर्षों की दिनांक देखते हैं।
२००१ - १४ नवम्बर (अधिवर्ष)
२००२ - ४ नवम्बर (१० दिन पीछे)
२००३ - २५ अक्टूबर (१० दिन पीछे)
२००४ - १२ नवम्बर (अधिवर्ष, -११ + ३० = १९ दिन आगे)
२००५ - १ नवम्बर (११ दिन पीछे )
२००६ - २१ अक्टूबर (११ दिन पीछे)
२००७ - ९ नवम्बर (अधिवर्ष, पुनः, १९ दिन आगे)
२००८ - २८/२९ अक्टूबर (११ दिन पीछे)
२००९ - १७ अक्टूबर (११ दिन पीछे)
२०१० - ५ नवम्बर (अधिवर्ष, पुनः, १९ दिन आगे)
२०११ - २६ अक्टूबर (१० दिन पीछे)
२०१२ - १३ नवम्बर (अधिवर्ष, १८ दिन आगे)
इस प्रकार ११ वर्षों में घूम कर दीवाली १३ नवम्बर पर आ गयी। यदि २०१२
में २९ फरवरी का अतिरिक्त दिन नहीं होता, तो ये २००१ की १४ नवम्बर की
दिनांक से बिलकुल समान हो जाता।
इस प्रकार किसी भी एक वर्ष के किसी एक त्यौहार की दिनांक याद रख कर
बिना पंचांग हाथ में लिए भी अपने त्योहारों का सटीक दिनांक निकाला जा
सकता है। क्योंकि किन्ही भी दो त्योहारों के बीच में अवधि निश्चित
होती है - होली दीवाली के ४.५ चन्द्र माह बाद ही आएगी और दीवाली होली
के ७.५ चन्द्र माह बाद (यदि अधिमास है तो ८.५ चन्द्र माह बाद)।
अब प्रश्न है कि यह अधिक मास कहाँ से आया - तो अधिक मास
ज्येष्ठ-आषाड़-श्रावण और भाद्रपद - इन्ही चारों में से एक मास दो बार
क्रमवार रूप से आता है। जैसे २००४ में श्रावण अतिरिक्त था, २००७ में
ज्येष्ठ, २०१० में वैशाख और अब २०१२ में भाद्रपद। ऐसे में उन दो
महीनों के प्रथम एवं चौथे पखवाड़े में त्यौहार मनाये जाते हैं और
दूसरे और तीसरे पखवाड़े को छोड़ दिया जाता है, अर्थात कृष्ण पक्ष के
त्यौहार पहले पखवाड़े में और शुक्ल पक्ष के चौथे में (उत्तर भारतीय
व्यवस्था में - दक्षिण भारत में मास शुक्ल पक्ष से प्रारंभ होता है और
कृष्ण पक्ष अर्थात अमावस्या पर समाप्त होता है)। उदाहरण के लिए, चूंकि
इस वर्ष भाद्रपद २ हैं, तो भाद्रपद कृष्ण अष्टमी भी दो होंगी, परन्तु
श्री-कृष्ण जन्माष्टमी पहले भाद्रपद में मनाई जाएगी। जबकि २००४ में जब
श्रावण दो थे, तब रक्षाबंधन (पूर्णिमा) दूसरे श्रावण के अंतिम दिन
मनाया गया था।
यहाँ एक बात ध्यान रखने की यह भी है कि चूंकि एक चन्द्र दिवस एक
सौर दिवस से थोड़ा छोटा होता है, इसलिए चन्द्र-तिथि के बदलने का समय
पीछे होता रहता है इसलिए पंचांग में जो तिथि दी जाती है, वह सूर्योदय
के समय की तिथि दी जाती है। इसके अलावा चूंकि चन्द्र की तिथि
(चन्द्रमा समय) पृथ्वी के किसी भी स्थान पर सामान होती है, और
सूर्य की तिथि (सौर समय) अलग अलग (जैसे भारत में दिन तो अमेरिका में
रात), इसी कारण यदि भारत में किसी वर्ष श्रवण पूर्णिमा १५ अगस्त की
शाम को ६ बजे लगी, तो भारत में रक्षाबंधन (चूंकि ये सुबह मनाया जाने
वाला पर्व है) अगले दिन सुबह १६ अगस्त को मनेगा, और चूंकि चन्द्र समय
सारी पृथ्वी पर सामान रहता है, और जब भारत में शाम के ६ बजे थे, तो
अमेरिका में १५ अगस्त की सुबह थी, इसलिए वहाँ १५ अगस्त को ही
रक्षाबंधन मनाया जाएगा।
बाकी पंचांग तो गूढ़ गणनाओं का सिन्धु है। किस प्रकार हमारे पूर्वज
बैठे बैठे बिना किसी कम्प्युटर के चन्द्र-ग्रहण, सूर्य ग्रहण की गणना
कर लेते थे, यह विलक्षण है। चौघड़िया और शुभ-अशुभ मुहूर्त, नक्षत्रों
की युति एवं गति, राहुकालम आदि अनेक सिद्धांत पंचांग में होते हैं,
परन्तु इतने विस्तार में जाना ना संभव है, ना व्यावहारिक दृष्टि से आज
रुचिकर ही होगा। परन्तु ऊपर बताई गयी इतनी सी मूल बातें जान कर भी
अपने पंचांग से मित्रता की जा सकती है।
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