फुटपाथ पर जीने वाले लोगों की संख्या, विदेशी कंपनियों के कारण बढ़ रही है

Published: Thursday, Dec 01,2011, 12:36 IST
Source:
0
Share
Swadeshi, Brush, Creame, Toothpaste, Swadeshi bacaho andolan, Rajiv Dixit, IBTL

गुलामी नए रूप में : आज चारों ओर घन अन्धकार है एक समाज नहीं एक देश नहीं समुची मानवता एवं समूची प्रकृति के अस्तित्व के लिए गंभीर खतरा पैदा हो चुका है भारत की नहीं विश्व के अनेकों देश विदेशी कंपनियों की गिरफ्त में अपनी राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा के लिए फडफडा रहे हैं स्वविलाम्बी उत्पादों का जहाँ भी जो भी समाज में शेष है वह भी विदेशी कंपनियों के विनाशकारी विकास के चलते नष्ट हो रहा है पुश्तैनी धंधों और कुटीर उद्योगों के उजड़ने से उजड़े लोग शहरों के चौराहों पर खड़े होकर अपना भ्रम बेचने वालों की भीड़ बढा रहे हैं झोपडपट्टियों की संख्या बढती जा रही है साथ ही महानगरों में सड़कों के फुटपाथों पर जीवन जीने वाले लोगों की संख्या बढती जा रही है यह सब पूंजी वादी ढांचे की क्रूर अनिवार्यता है जो पूरी ही रही है।

झूठ पर टिका व्यापार : ये विदेशी कम्पनियाँ विकास के नाम पर आतीं है इनके फलने फूलने के पीछे कुछ मिथ्या धारणाएं काम करती है जैसे ये अपने साथ पूंजी लाएगीं, हमें आधुनिक तकनीक देंगीं, लोगों को रोज़गार के अवसर देंगीं, हमारा निर्यात बढ़ेगा, लेकिन यह कम्पनियाँ करती इसका उलट हैं विकास के नाम पर सदियों से देश में चलने वाला देसी कारोबार हुनर, हस्तशिल्प को उजाड दिया जाता है और उसमें लगे करोड़ों लोगों की आजीविका छीन ली जाती है पूंजी लाने का मात्र दंभ भरा जाता है ये निगमें कुल लागत की ९५% पूंजी राष्ट्रीय संसाधनों से उगाहती हैं मात्र ५% अपने साथ लातीं हैं तकनीक के नाम पर पश्चिम में चलन से बाहर हो गयी और कूडेदान में फेंकने लायक तकनीक की आपूर्ति होती है अधिकांश विदेशी कम्पनियाँ ऐसे क्षेत्रों में कार्य करती हैं जहाँ अधिनिक तकनीक की आवश्यकता ही नहीं होती है उनके सभी वायदे झूठे होते हैं ये ना तो निर्यात बढती हैं ना ही विदेशी मुद्रा का संकट दूर करतीं हैं। इनके कारण देश ऋणपाश के कगार पर पहुँच जाते हैं विदेशी कर्ज के ब्याज को चुकाने के लिए और कर्ज लेना पड़ता है कर्ज देने वाली विदेशी संस्थाओं के इशारे पर सरकारों को देश की नीतियां निर्धारित करनी पड़ती हैं और देश वासियों के हितों को ताक पर रखा जाता है आज हमारे भारत देश की अर्थव्यवस्था अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था के दुमछल्ले के रूप में काम कर रही है यह बात जनता व हर प्रबुद्ध देशवासी के समझने की है।

शिकंजे में फँसी जिंदगी : विदेशी कम्पनियाँ हमारे जीवन में इस तरह से छा चुकीं हैं कि लगता है कि अपनी कोई सोच ही ना बची हो हम यह सोच भी नहीं पाते कि हम प्रातः आँख खुलते ही हम उनके चंगुल में फंस चुके होते हैं सवेरा हुआ हम इन कंपनियों द्वारा निर्मित ब्रुश, टूथपेस्ट हमारे हाथों में आ जाते हैं फिर साबुन हैं क्रीम हैं ब्लेड हैं तरह तरह के सौंदर्य प्रसाधन हैं लगभग हम शरीर की सफाई ही प्रारंभ करते हैं इन कम्नियों के द्वारा बनाये गए सामानों से आज भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से उन कंपनियों की गुलाम बन चुकी है। उपभोक्ता वस्तुओं के क्षेत्र में ७६% बाजार इन विदेशी कंपनियों के सामानों से भरे पड़े हैं दवाओं के क्षेत्र में लगभग ७५% दवाओं पर इनका कब्ज़ा और अंधिकांश दवाएं ऐसी हैं जिनका विश्व के बहुत से देशों प्रयोग नहीं होता अथवा वह प्रतिबंधित हैं। इस प्रकार दवाओं के नाम पर भी देशवासियों को जहर खिला रहीं हैं ये दवाएं, प्रतिवर्ष २००० करोड रु से अधिक का लाभ लेकर जहरीली व गैरज़रूरी दवाएं बाज़ार में उतारी जाती हैं फलत: खेती बाज़ार की मोहताज हो गयीं हैं इनके द्वारा निर्मित उर्वरकों और कीटनाशक दवाओं के जहर से समूची जमीन, अबोह्वौर मानव स्वास्थ्य गंभीर खतरों से जूझ रहा है इन विदेशी कंपनियों की विशालकाय औद्योगिक संस्कृति बर्बर शोषण तथा विनाशकारी नीतियों के कारण पूरी दुनियां में आवाज़ उठने लगी है लेकिन भारत देश के नेता इन्हें पुरे जोशखरोश के साथ इन्हें आमंत्रित कर रहे हैं इन कंपनियों की गहरी साजिश और सरकार की नीतियों के कारण आज देश की सम्प्रभुता संकट में पड़ गयी है।

मुक्ति का मार्ग : असली मायने में देश की राजनैतिक स्वाधीनता को प्राप्त करने सांकृतिक पहचान बनाये रखने हेतु, समाज में गैरबराबरी को समाप्त करने हेतु भूखे पेट को एमन और सम्मान की रोटी देने के लिए आवश्यक है कि इन विदेशी कंपनियों को देश से बाहर निकाला जाये अतः यह आवश्यक है कि हम विदेशी कंपनियों व स्वदेशी कंपनियों के बनाये उत्पादों को जाने विदेशी कंपनियों के उत्पाद का बहिष्कार करें उनसे असहयोग करें स्वदेशी अपनाएं जिससे हर क्षेत्र में घुस कर जो उन्होंने जो लूटपाट मचाई है उसे छुटकारा पाकर हम अपने मन, समाज और देश का नव निर्माण कर सकें।

साभार : विदेशी कंपनियों कि जंजीरों में जकडा दैनिक जीवन, संपादक (स्वराज प्रकाशन समूह (राजीव दीक्षित))

Comments (Leave a Reply)

DigitalOcean Referral Badge