बीबीसी के पूर्व प्रमुख मार्क टूली ने यूपीए अध्यक्षा सोनिया गाँधी की वंशवाद की राजनीती की आलोचना की है | उन्होंने अपनी पुस्..
'अंग्रेजो भारत छोड़ो' आह्वान की 07वीं वर्षगांठ पर 'कांग्रेस हटाओ-देश बचाओ' की जनक्रांति का श्रीगणेश

09 अगस्त की तारीख भारतीय और अन्तरराष्ट्रीय इतिहास में बहुत महत्व
रखती है। 1942 में इसी तारीख को महात्मा गांधी ने मुम्बई के आजाद
मैदान से 'अंग्रेजो भारत छोड़ो' के आंदोलन की शुरूआत की थी तो 1945
में अमरीका ने जापान के हिरोशिमा-नागासाकी पर परमाणु बम गिराए थे। इस
बार भी 09 अगस्त की तारीख भारतीय राजनीति के लिए महत्वपूर्ण बन गई
प्रतीत होती है, क्योंकि 'अंग्रेजो भारत छोड़ो' आह्वान की 07वीं
वर्षगांठ पर 'कांग्रेस हटाओ-देश बचाओ' की जनक्रांति का श्रीगणेश हो
चुका है। तब मुम्बई के आजाद मैदान पर एक श्वेत वेशधारी सामाजिक संत ने
उस आंदोलन की शुरूआत की थी तो इस बार एक भगवा वेशधारी योग गुरु के
नेतृत्व में दिल्ली के रामलीला मैदान पर हजारों भारतवासियों ने यह
संकल्प गुंजाया। 'कांग्रेस हटाओ-देश बचाओ' का यह संकल्प भ्रष्टाचार और
काले धन की उस पृष्ठभूमि से उभरा है जिसका कि प्रतीक बन गई है 'सोनिया
पार्टी', जिसे लोग कांग्रेस के नाम से अभी भी पुकारते हैं।
पिछले अनेक वर्षों से विदेशों में जमा कुछ भारतीयों के काले धन को
भारत वापस लाने के लिए आंदोलनरत योग गुरु बाबा रामदेव पिछले वर्ष 04
जून की रात्रि में इसी रामलीला मैदान में निरंकुश सत्ता द्वारा
अपमानित किए जाने के बाद एक बार फिर 09 अगस्त को उसी मैदान पर उसी
संकल्प के साथ, और पहले से कहीं अधिक प्रबल समर्थन के बल पर तीन दिन
के सांकेतिक अनशन पर बैठे। उनके साथ न केवल दिल्ली बल्कि निकटवर्ती
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा के साथ ही दूर-दराज के तमिलनाडु
आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और प.बंगाल के हजारों समर्थक 'भारत माता की जय'
और 'वंदेमातरम्' गुंजाते जुट गए। 35-40 हजार से भी अधिक इन
आंदोलनकारियों में युवा और महिलाएं तो बड़ी संख्या में थे ही, 60 पार
कर चुके वरिष्ठ नागरिक भी अपनी भावी पीढ़ी के लिए 'भ्रष्टाचार मुक्त
भारत' देने का संकल्प लेते दिखे। बाबा रामदेव के साथ ही सैकड़ों
समर्थक स्वेच्छा से अनशन पर थे। भूखे-प्यासे रहकर अपनी आत्मशुद्धि के
द्वारा वे राजनीतिक शुद्धि के यज्ञ में आहुति दे रहे थे। विशाल पांडाल
में भारत माता और उसकी रक्षा के लिए बलिदान देने वाले देशभक्तों के
चित्रों, देशभक्ति के गीतों के साथ भारत के सम्मान और स्वाभिमान को
समृद्ध करने वाले इन हजारों देशभक्तों की बुलंद आवाज भी केन्द्र में
सत्तारूढ़ और सत्ता मद में चूर कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार को
दिखाई-सुनाई नहीं दी। मानो आंखों पर भ्रष्टाचार और काले धन की पट्टी
बांधे सोनिया पार्टी ने 'भारत माता की जय' और 'वंदेमातरम्' की गूंज
कानों तक न पहुंचने देने के लिए उनमें संवेदनहीनता की रूई ठूंस ली
थी।
एक समय में अपने 4-4 वरिष्ठ मंत्रियों को विमान तल तक भेजने वाली
केन्द्र सरकार बाबा के प्रलोभन में न फंसने से इतनी बौखला गई थी उसके
मंत्री पूछ रहे थे कि 'कौन है ये?' पर इस कौन का जवाब शीघ्र ही मिल
गया जब तीन दिन की समय सीमा बीत जाने के बाद रामलीला मैदान से
भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनक्रांति के शंखनाद को समर्थन देने राष्ट्रीय
जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के अध्यक्ष शरद यादव, भाजपा अध्यक्ष नितिन
गडकरी सहित अकाली दल व अन्य सहयोगी दलों के प्रतिनिधि पहुंचे तो उधर
बीजू जनता दल, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने भी काले धन के
मुद्दे पर अपना समर्थन जता दिया। हालांकि बाबा रामदेव ने भी कहा कि
उनका कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं है और भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने भी
साफ किया कि वे इस आंदोलन को समर्थन देने के बदले आंदोलनकारियों का
राजनीतिक समर्थन लेने की आशा से नहीं आए हैं, बल्कि काले धन के
विरुद्ध भाजपा प्रारंभ से मुखर रही है और संसद से लेकर सड़क तक उसके
विरुद्ध होने वाले प्रत्येक आंदोलन का समर्थन करती रहेगी।
सदन के भीतर और बाहर हंगामा होने के बावजूद जब सोनिया पार्टी की सरकार
ने लोकपाल, भ्रष्टाचार और काले धन के मुद्दे पर चुप्पी साध ली, बड़बोल
मंत्री भी पत्रकारों से कन्नी काटते नजर आए, तो साफ हो गया कि सरकार
की मंशा इस आंदोलन को भी 'टीम अण्णा' द्वारा जंतर-मंतर पर किए गए
आंदोलन के समान ही अनदेखी कर 'प्रभावहीन' कर देने की है। लेकिन
भ्रष्टाचार के विरुद्ध रणभेरी बजा चुके जवानों, बच्चों, बूढ़ों, महिलाओं, किसानों, मजदूरों,
वेतनभोगियों, ग्रामीणों, शहरियों और समाज के लगभग प्रत्येक वर्ग के
प्रतिनिधि को यह नागवार गुजरा कि उनके ही द्वारा चुने गए प्रतिनिधि
दिल्ली पहुंचकर उनकी इतनी अनदेखी करें, इतने असंवेदनशील हो जाएं कि
देश के हित में किए जा रहे एक शांतिपूर्ण आंदोलन की उपेक्षा करें।
इसीलिए 13 अगस्त की दोपहर जब बाबा रामदेव के नेतृत्व में लगभग
50 हजार आंदोलनकारियों ने रामलीला मैदान से संसद की ओर कूच किया तो उन्हें
रोकने के लिए सरकार के निर्देश पर दिल्ली पुलिस द्वारा की गई सारी
तैयारियां धरी की धरी रह गईं।
04 जून, 211 की रात के अंधेरे में डंडे फटकार कर दहाड़ती नजर आई
दिल्ली पुलिस इस प्रचंड प्रदर्शन के सामने हतप्रभ नजर आई।
आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर बवाना में बनाई गई अस्थायी जेल तक ले
जाने के लिए लाई गई मात्र 5 बसें कम पड़ गईं। पुलिस की योजना थी कि
बाबा रामदेव सहित प्रमुख आंदोलनकारियों को बवाना ले जाया जाए और बाकी
आंदोलनकारियों की महाराजा रणजीत सिंह फ्लाई ओवर पर प्रतीकात्मक
गिरफ्तारी दिखाकर उन्हें यहीं से रिहा कर दिया जाए। पर यह रणनीति सफल
नहीं रही, क्योंकि बाबा रामदेव को हिरासत में लेकर बस में बैठाते ही
भारी बारिश के बीच आंदोलनकारी सड़क पर लेट गए और मांग करने लगे कि
सबको एक साथ गिरफ्तार कर ले जाया जाए।
पुलिस-प्रशासन निहत्थे आंदोलनकारियों के सामने असहाय था, क्योंकि जन
समर्थन इतना व्यापक था कि उसकी एक भी चूक भारी पड़ सकती थी। 3 घंटे
में मात्र 1 किलोमीटर तक आगे ले जाने के बाद आखिरकार दिल्ली पुलिस ने
बाबा को अम्बेडकर स्टेडियम के भीतर ले जाकर छोड़ दिया, साथ ही उनकी
रिहाई की घोषणा भी कर दी, क्योंकि वह इतनी बड़ी संख्या में
आंदोलनकारियों के लिए रोटी-पानी की व्यवस्था नहीं कर सकती थी। पर बाबा
और उनके समर्थकों का अनशन और आंदोलन तो जारी था। वे आए अपनी मर्जी से
थे तो जाएंगे भी अपनी मर्जी से, इस घोषणा के साथ अम्बेडकर स्टेडियम
में ही डट गए वे, खुद ही खाने की व्यवस्था की और खुले में सो गए।
योजना तो 15 अगस्त को लालकिले के समान यहां झंडा फहराने की भी थी, पर
मिन्नत करते पुलिस-प्रशासन और स्वतंत्रता दिवस पर देश की सुरक्षा का
संज्ञान लेकर बाबा रामदेव ने 14 अगस्त की दोपहर वंचित वर्ग की दो
बालिकाओं के हाथ से जूस पीकर अपना अनशन खोला, अन्य अनशनकर्त्ताओं का
अनशन भी तुड़वाया और आंदोलनकारियों को यह संकल्प दिलाकर गंगा स्नान के
लिए हरिद्वार चल दिए कि 'भ्रष्टाचार के विरुद्ध महाक्रांति का यह
अभियान चलता रहेगा। काले धन को पोषित करने वाली 'कांग्रेस को हटाना
है, देश को बचाना है।' इसलिए यहां से अपने घर-गांव जाकर लगातार संपर्क
करें, जन जागरण करें और समय आने पर अपने वोट की ताकत से बता दें कि अब
इस देश पर भ्रष्ट और बेईमान लोग शासन नहीं कर सकते।'
राष्ट्रहित में हो रहे जनांदोलनों की सत्ता द्वारा की जा रही अनदेखी
के प्रश्न पर प्रतिक्रिया देते हुए वरिष्ठ चिंतक के. एन.
गोविन्दाचार्य का कहना है कि सत्ता का जनता से संवाद कम हो जाना, इस
बात का भी संकेत है कि वह सत्ता अधिक दिनों तक टिक नहीं सकेगी। अनेक
देशों में ऐसी व्यवस्था है कि अमुक संख्या द्वारा हस्ताक्षरित कोई
ज्ञापन यदि सरकार के पास पहुंचता है तो उस पर सदन में चर्चा अनिवार्य
रूप से होती है। ऐसी ही व्यवस्था भारत में भी की जानी आवश्यक है। यदि
जनता की अनदेखी कर सत्ता पक्ष और विपक्ष कुछ मुद्दों पर एकजुट हो जाएं
तो वह व्यवस्था संसदीय तानाशाही की ओर प्रवृत हो जाती है। राष्ट्रहित
से जुड़े प्रश्नों पर यदि जनता को सड़क पर उतरकर आंदोलन करना पड़े और
सत्तापक्ष उन जनांदोलनों की अनदेखी करे, यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत
नहीं है।
आंदोलनकारियों ने जता दिया कि आंदोलन की सफलता/असफलता सरकार नहीं,
जनता तय करती है। शांतिपूर्ण जनांदोलनों से ही परिवर्तन किया जा सकता
है। निरंकुश सत्ता भी प्रबल जनसमर्थन के सामने नतमस्तक होती हे।
सीबीआई का दुरुपयोग कर राजनीतिक दलों का समर्थन जुटाकर ही सोनिया
पार्टी की सरकार चल रही है। प्रधानमंत्री अपनी प्रासंगिकता खो चुके
हैं, 'रिमोट कंट्रोल' से संचालित होने वाले प्रधानमंत्री के कारण देश
की साख को बट्टा लगा। सत्तारूढ़ राजनेताओं के भ्रष्टाचार के विरुद्ध
जनता में आक्रोश निरंतर बढ़ता जा रहा है। कालेधन पर सरकार की चुप्पी
का अर्थ है कि उसका शीर्ष नेतृत्व ही इसमें लिप्त है।
जितेन्द्र तिवारी, पाञ्चजन्य
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