जन लोकपाल बिल और अन्ना हजारे के समर्थन में आज तीसरे दिन भी कानपुर में आंदोलन के लिये लोग सड़को पर उतरे और शाम को शहर के कर..
राष्ट्रीय राजनीति के लिए सबसे महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव
उत्तरप्रदेश का ही होता है, इसमे संभवतः किसी को कोई संदेह नहीं होगा.
और यह चुनाव भाजपा के लिए किसी झटके से कम नहीं रहे. यहाँ यह समझना
आवश्यक है कि भाजपा जब देश में कही नहीं थी तब भी उत्तरप्रदेश में थी.
आज जबकि भाजपा 8 राज्यों में सीधा शासन कर रही और 2 राज्यों में सत्ता
में हिस्सेदार है तो उत्तरप्रदेश में मुकाबले तक में नहीं है. आखिर
ऐसा क्या हुआ कि 1990-2000 के दौर में यूपी के राजनीति के केंद्र में
रही पार्टी आज मुख्य मुकाबले से ही बाहर है? राजस्थान से पंडित
दीनदयाल उपाध्याय, महाराष्ट्र से नानाजी देशमुख और मध्यप्रदेश से आकर
अटलबिहारी वाजपेयी ने उत्तरप्रदेश में जनसंघ को खड़ा किया. स्वयं देवरस
जी ने भी उत्तरप्रदेश में संगठन बनाने का काम किया था. साथ में संघ के
सैकड़ों सक्षम कार्यकर्ताओं की सेना भी थी. लेकिन एक-पर-एक आत्मघाती
कदम उठाकर भाजपा नेतृत्व ने अपनी ही कमर तोड़ दी. इस दौर में
उत्तरप्रदेश की नब्ज को समझने वाला ऐसा कोई रहा भी नहीं जैसे देवरस
जी, रज्जू भैया समझते थे. गोविंदाचार्य हैं लेकिन उन्हें रहने नहीं
दिया गया है. उत्तरप्रदेश में एक चुनाव में हार के कारणों की विवेचना
से अधिक महत्वपूर्ण है कि भाजपा अपने उत्तरोत्तर पतन के कारणों को
ढूंढे. यहाँ कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण कारणों की विवेचना की गई है.
1. जातीय गोलबंदी में दरार: उत्तरप्रदेश के विधानसभा
चुनाव में भाजपा के दुर्गति के दीर्घकालिक कारणों को समझने के लिए
हमें 22 साल पीछे वर्ष 1989 में जाना पड़ेगा. वर्ष 1989 में भाजपा ने
उत्तरप्रदेश में 50 सीटें जीती थी. लेकिन राम मंदिर आंदोलन के लहर पर
चढकर यही पार्टी मात्र दो साल बाद 1991 में 215 सीटें जीत गई थी. इस
जीत का सबसे बड़ा कारण राम मंदिर आंदोलन तो था ही लेकिन यह समझना होगा
कि उस समय ब्राह्मण, वैश्य, दलित और गैर यादव ओबीसी का अद्वितीय गठजोड़
भी था. साथ अन्य जातियों की भी हिस्सेदारी थी. लेकिन अयोध्या के
विवादित ढांचे के विध्वंश के ठीक बाद हुए चुनाव में जब भाजपा 175
सीटों के आसपास निपट गई तभी साफ़ हो गया था सोशल इंजीनियरिंग दरकने लगा
है. 1999 का लोकसभा चुनाव जिसमे भाजपा मात्र 28 सीटों पर निपट गई थी,
इस बात का प्रमाण थी की पार्टी को गहन सर्जरी की आवश्यकता है. सर्जरी
हुआ भी, कल्याण सिंह को मुख्यमत्री पद से हटा दिया गया और नेतृत्व
वाया रामप्रकाश गुप्ता, ‘ठाकुर’ राजनाथ सिंह के पास पहुँच गई. राजनीति
के मजे हुए खिलाडियों को भला यह क्यों समझ नहीं आया कि कल्याण सिंह
ओबीसी वोटों के लिए चुम्बक का काम करते थे. ब्राह्मण वोट तो तब पार्टी
के राष्ट्रीय चेहरे वाजपेयी जी को देख कर मिलते ही थे. लेकिन उसी दौर
में उत्तरप्रदेश के सोशल इंजीनियरिंग के मुख्य इंजीनियर के. एन.
गोविंदाचार्य पार्टी में किनारे कर दिए गए और फिर उन्होंने राजनीति ही
छोड़ दी. स्पष्ट है कि पार्टी में किसी को भी यूपी जैसा गढ़ बचा कर रखना
जरूरी नहीं लगा और राज्य इकाई को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया. ऐसे में
जातीय गोलबंदी को तो दरकना ही था.
2. राम मंदिर मुद्दे का समाधान नहीं करना: एक दूसरा
और अत्यंत महत्वपूर्ण कारण है भाजपा का राम मंदिर के मुद्दे का समाधान
नहीं करना. केंद्र में राजग सरकार के गठन के बाद ही पुरे देश में राम
मंदिर आंदोलन से जुड़े लोगों की उम्मीदें बढ़ गई थी. ऐसा लगता था कि
भाजपा शीघ्र ही राम मंदिर के निर्माण के लिए क़ानून बनाएगी या एक तरह
का राजनीतिक समाधान ही निकालेगी. लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के नतृत्व
वाली सरकार इस मुद्दे पर गंभीर नहीं दिख रही थी. यह ठीक है कि
तत्कालीन राजग गठजोड़ में शामिल कुछ महत्वपूर्ण दल इस मुद्दे पर भाजपा
के स्टैंड से सहमत नहीं थे और इस दिशा में कोई कदम सरकार के पतन का
कारण बनती. लेकिन यह तर्क उन लोगों के गले कैसे उतरता जिन्होंने इस
आंदोलन में अपने जान कि बाजी भी लगा थी. स्पष्ट है कि इससे पुरे देश
और विशेष रूप से उत्तरप्रदेश में यही सन्देश गया कि भाजपा ने मंदिर
मुद्दे को राजनीति के लिए उपयोग में लाया और ‘राम’ के नाम पर
जुटे वोटर वापस जातियों के खांचे में लौट गए. राम मंदिर मुद्दे का
सबसे बड़ा लाभ भाजपा को उत्तरप्रदेश में मिला था तो सबसे बड़ी हानि भी
वहीँ हुई.
3. क्षेत्रीय दलों से मित्रता: भाजपा की दुर्गति का
एक महत्वपूर्ण कारण उत्तरप्रदेश के क्षेत्रीय दलों से हाथ मिलाना भी
था. 2002 के विधानसभा चुनावों में पराजय के बाद भाजपा ने बसपा को
सरकार बनाने में सहयोग देकर भाजपा ने निर्णायक बूल की. नीति यह थी कि
मायावती से इसके बदले में लोकसभा चुनावों में 50-55 सीट लेकर पार्टी
को फिर से खड़ा किया जाये लेकिन मायावती हाथ नहीं आई और मुख्यमंत्री पद
से त्यागपत्र दे दिया. अब सरकार बनाने की बारी ‘मौलाना’ मुलायम की थी.
बहुमत के लिए आंकड़े कम हो रहे थे तो अमर सिंह की प्रतिभा का उपयोग
करते हुए बसपा के एक तिहाई विधायकों को तोड़ लिया गया. लेकिन तबतक
‘प्रभावी’ हो चुकी नये दल-बदल कानून के तहत यह टूट अवैधानिक थी और
बसपा छोड़ने वाले विधायकों को सदन से निलंबित कर देना चाहिए था. तब
विधानसभा अध्यक्ष भाजपा के हीं वरिष्ठ नेता श्री केसरीनाथ त्रिपाठी थे
जिन्होंने यह अत्यंत आवश्यक वैधानिक कदम नहीं उठाया. सपा के सरकार में
भी वे विधानसभा के अध्यक्ष बने रहे और सपा ने उन्हें बनाये रखा भी.
इससे उत्तरप्रदेश की जनता में यह सन्देश गया कि भाजपा का मौन समर्थन
‘मौलाना’ मुलायम को प्राप्त है. वास्तव में 2003 आते-आते पार्टी के
राष्ट्रीय नेतृत्व को यह समझ आने लगा था कि भाजपा उत्तर प्रदेश में अब
सबसे बड़ी शक्ति नहीं रही. वातानुकूलित कार्यालयों में बैठकर राजनीति
करने की ऐसी लत लग चुकी थी कि सड़क पर संघर्ष कर जनता में साख बनाने से
अच्छा समाधान उन्हें यही प्रतीत हुआ कि बसपा या सपा से गठजोड ही क्यों
न कर लिया जाए. ऐसे में पार्टी पहले बसपा और फिर सपा के लिए ‘सॉफ्ट’
होती गई. यह सोच ही उत्तरप्रदेश में भाजप के लिए “आखिरी कील’ प्रमाणित
हुई. 2004 के लोकसभा चुनावों के ठीक पहले भाजपा नेतृत्व के दिए गए
व्यक्तव्यों को याद करिये. वाजपेयी जी ने मुलायम सिंह को राजग में
शामिल होने का न्योता दिया. तत्कालीन राजग संयोजक जार्ज फर्नांडीस को
इस काम में लगाया भी गया लेकिन बात नहीं बनी. उत्तरप्रदेश में चुनाव
प्रचार के दौरान स्वयं प्रधानमंत्री ने कहा कि ‘भाजपा को वोट दीजिए,
नहीं दे सकते तो सपा को दीजिए’. आडवाणी ‘भारत उदय’ रथ यात्रा के दौरान
लोगों को बता रहे थे कि लोहिया और पंडित दीनदयाल जी में अच्छी जमती थी
और दोनों के विचारों में साम्यता थी, बात ठीक भी है. लेकिन इस समयकाल
में लोहिया के उत्तराधिकारी मुलायम थे और पंडित दीनदयालजी के
वाजपेयी-आडवाणी. ऐसे में जो सन्देश जाना था वह चला गया. संघ परिवार के
अंदर भी यह सवाल उठा कि जब भाजपा और सपा की विचारधारा एक ही है तो फिर
इसमे संघ परिवार की भूमिका क्या हो. कार्यकर्ताओं को जमीनी स्तर पर इस
प्रश्न का उत्तर नहीं सूझ रहा था कि जब भाजपा और सपा, दोनों की
विचारधारा एक ही है तो उन रामभक्तों का क्या जो मुलायम सरकार की
गोलियों के शिकार हुए. परिणाम हुआ कि संघ के कार्यकर्ता घर बैठ गए और
एक मजबूत और विश्वसनीय संगठन का सहयोग क्रमशः घटने लगा. संघ परिवार से
इतर भाजपा का उत्तरप्रदेश में न तब संगठन था न अब है.
4. जनसंघर्ष से दूरी: भाजपा उत्तर प्रदेश में वर्ष
2002 से सत्ता से बाहर है लेकिन याद नहीं आता कि पार्टी ने जनहित के
मुद्दों पर जनता के बीच जाकर सड़क पर कोई राज्यव्यापी संघर्ष किया हो.
मात्र औपचारिकता के लिए जिला मुख्यालयों पर प्रदर्शन अलग बात है.
लेकिन सत्ता से विछुब्ध लोगों की सहानुभूति को अर्जित करने का तरीका
जनसंघर्ष ही होता है. सपा के शासनकाल में यह ‘जनसंघर्ष’ बसपा ने किया
और बसपा के शासनकाल में सपा ने किया. ऐसे में उत्तरप्रदेश की राजनीति
इन दो दलों के मध्य ही सिमट जाना था और ऐसा ही हुआ भी.
5. नये नेतृत्व का अभाव: यद्यपि भाजपा में सामूहिक
नेतृत्व की परंपरा है लेकिन जनता के बीच एक सर्वमान्य चेहरे की
आवश्यकता तो होती ही है. उत्तरप्रदेश में भाजपा के जीतने महत्वपूर्ण
चेहरे हैं सभी राम मंदिर आंदोलन की ही उपज हैं. अयोध्या से इतर इनकी
अपनी कोई साख है नहीं और जब अयोध्या का मुद्दा आज भी अधर में है तो इस
साख पर इन्हें वोट अब मिलते नहीं. ऐसे में विकास, सुशासन और क़ानून
व्यवस्था के मामले में अच्छा रिकार्ड होनेके बाद भी उन मुद्दों पर
इनको वोट मिलते नहीं. ऐसे में राज्य स्तर पर नया नेतृत्व न उभर पाना
भी एक बड़ा संकट है.
# सावरकर, स्वामी और मोदी का भारत - हमको क्यों
नहीं स्वीकार ?
# तेल-आधारित अर्थव्यवस्था का विकल्प सोचना ही
होगा
# जयप्रकाश नारायण के साथ मेरे अनुभव : डा.
स्वामी
इलाज के लिया बिमारी को जान लेना आवश्यक है. उत्तरप्रदेश में भाजपा का
पुनरुत्थान असंभव नहीं है. सौभाग्य से संघ परिवार का संगठन आज भी
मजबूत है. उमा भारती के रूप में नया नेतृत्व पार्टी को मिला है जिनकी
छवि ‘फुस्स बम’ की नहीं है. उमा कि एक बड़ी विशेषता यह है कि वे पिछड़े
वोटबैंक को तो जोड़ हीं सकती हैं साथ ही सवर्णों में भी वे लोकप्रिय
हैं. 15 प्रतिशत वोट भाजपा को इस विधानसभा चुनाव में मिले हैं, मतलब
पार्टी खत्म नहीं हुई है. शहरी क्षेत्रों में भाजपा को ठीक-ठाक वोट
मिले हैं यानी जनसंघ के दौर का वोटर अब भी साथ है.
चुनाव जीतने के साथ ही सपा की गुंडई उत्तरप्रदेश में दिखने लगी है.
अखिलेश यादव चाहे जीतना दावा करें, सपाई गुंडई तो करेंगे ही. यदि
अखिलेश अपने वादों को पूरा न कर सके तो उनकी हालत भी लोकसभा चुनाव
आते-आते राहुल गाँधी जैसी ही हो जायेगी. वैसे भी इतने बड़े प्रदेश में
किसी के लिए भी लोकप्रियता के ग्राफ को बनाये रखना बहुत बड़ी चुनौती
है. बसपा के लिए यहाँ से आगे की राह बड़ी मुश्किल है. मुलायम के पास तो
अखिलेश थे छवि बदलने के लिए, माया के पास कौन है? हो भी तो भला माया
उसे मौका देंगी? कत्तई नहीं. लोकतंत्र में विपक्ष के लिए जगह हमेशा ही
खाली होती है, विशेषकर उत्तरप्रदेश जैसे विविधतापूर्ण राज्य में.
राहुल गांधी की साख खत्म हो चुकी है और माया की छवि महारानी की हो गई
है. आसन्न लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस मुस्लिम वोट को पाने के लिए
दांव बढ़ा सकती है. और इस वोट को बचाने के लिए मुलायम भी दांव बढ़ाने को
मजबूर होंगे. मुलायम की समस्या यह है कि ओबीसी और मुस्लिम वोट बैंक
आमने-सामने खड़े होने की दिशा में बढ़ रहे हैं. दोनों को एक साथ साध
पाना आसान नहीं होगा. ऐसे में भाजपा के पास हिंदुत्व को नई धार देना
संभव होगा. वैसे भी सपा का शासनकाल भाजपा के लिए हिंदुत्ववादी
शक्तियों को एक करने का मौका है. उम्मीद की किरण है, मौका है, संघर्ष
की इच्छाशक्ति हो तो बात बन सकती है.
साभार मुकुल मिश्रा | लेखक से ट्विट्टर पर जुडें twitter.com/MukulKMishra
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं एवं यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं
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