अपने पूर्व निर्धारित एवं घोषित कार्यक्रम के अनुसार विश्व हिन्दू परिषद् ज्येष्ठ पूर्णिमा अर्थात आज ३ जून से अमरनाथ ..

"उस दरिद्र ने बुलाया है मुझे!" कहने के साथ ही वह खिलखिलाकर हंस पड़ा! पास खड़े तीनों सैनिक उसे आँखें फाड़े देखे जा रहे थे, पता नहीं क्या था ऐसा उसमे! झेलम के रमणीक तट पर अपनी मस्ती में लेटा हुआ था वह! दाहिने हाथ को तकिये की तरह लगाए लेटा हुआ था! बायाँ पैर दायें पर रखा था! रेत पर रखे उसके दाहिने पाँव को झेलम की जल-लहरियां उर्मियाँ बड़े आग्रह के साथ धो रही थी! अपूर्व आनंद की आभा छाई थी उसके चेहरे पर! चेहरा ही क्यों, ताम्र गौर रंग का उसका संपूर्ण शरीर यही आभा विकीर्णित कर रहा था! ना जाने किस स्वर्गीय राज्य का मालिक है यह लंगोटी धारी बुढा, जो विश्व विजय का अभियान छेड़ने वाले सिकंदर को दरिद्र कहता है, जबकि वह अपने नाम के आगे महान लगाना पसंद करता है!
सैनिक सोच नहीं पा रहे थे क्या करें वे? तीनो कभी एक दुसरे की ओर देख लेते, कभी नदी की असीम जलराशी की ओर, और उसके किनारे खड़े बृक्ष बनस्पत्तियों की ओर! अजीब विवशता थी, जिसने उन्हें देखकर "आइये" नहीं कहा! यह भी नहीं पूछा "कहाँ से पधारे" ..... पूछना-ताछना तो तो दूर, सीधा हो के बैठा तक नहीं ... अजी, उसने तो आँख उठाकर देखने तक का कष्ट नहीं उठाया! अपनी मस्ती में पड़ा रहा – जैसे सैनिक वर्दी में तीन मनुष्य नहीं तीन तितलियाँ या वृक्षों की टहनियां आ गयी हों! तीन कुत्ते के पिल्लै भी आते तो भी वो उन्हें शायद विश्व विजेता सिकंदर के सैनिको से अधिक महत्व देता!
पोथियाँ तो जैसे तैसे मिल गयी पर साधू वह भी ऐसा वैसा वेशधारी नहीं जैसा उसके गुरु ने माँगा था! इस समय उसे लौट जाने की जल्दी थी! लम्बी चोटीधारी घुटनों तक धोती लपेटने वाले ब्राह्मण चाणक्य की कुटनीतिक करामातें उसे यहाँ दो पल भी टिकने नहीं दे रही थी! दो पल टिकने का मतलब? नहीं, टिक ही नहीं सकता था वह! मतलब तो तब निकले जब पांव जमने की राइ रत्ती भर भी गुंजाइश हो! मकदूनियाँ से लेकर यहाँ तक विद्रोह ही विद्रोह! सेनानायक से लेकर सिपाही तक सबके सब विद्रोही- जिन पर उसे गर्व था सबके सब वही? अब……!
हम्म्म्म, सैनिकों को खली हाथ वापस आये लौटे देखकर फुफकारा! विशाल तम्बू के बीचोबीच राजसिंहासन था! जिसके दायीं ओर विशिष्ट सामंत थे, बायीं ओर प्रधान सेनानायक और वरिष्ठ सैनिक अधिकारी! आवश्यक वार्तालाप चल रहा था! विचार मंत्रणा जैसा ही गंभीर था वातावरण! बातचीत का क्रम बीच में रोककर इन वापस आये सैनिकों की बातें ध्यानपूर्वक सुनता रहा, जो अपनी आपबीती बता रहे थे! कथन को सुनकर भृकुटियों में आकुंचन गहराया! माथे पर बन मिट रही लकीरों की संख्या बढ़ी! "सिंहासन की दायीं बाजु पर मुक्का मारते हुए गुर्राया!" एक वह शैतान का दादा जो अपने को ब्राह्मण कहता है, क्या नाम है उसका? "चाणक्य" सेनानायक रेमन धीरे से बोला!
"चाणक्य!" साढ़े तीन अक्षरों का यह नाम लेते हुए उसका पूरा मुख कडवाहट से भर गया! शायद अत्यधिक नाराजगी थी उस पर और एक यह अपने को शहंशाह समझने वाला फकीर! क्या नाम है इसका? "दंडायण"! भारत के गौरव को कलंकित करने वाले आम्भी बोल पड़े! "ये ब्राह्मण और साधू …!" कुछ सोचते हुए उसने एक सेनानायक से धीरे से कुछ कहा! शब्द स्पष्ट नहीं हो सके! शायद कहीं सन्देश भेजना था! अपना लोहे का भरी टोप सँभालते हुए वह उठ खड़ा हुआ! समुदाय व्यक्ति में विलीन होने लगा!
एक शाम को झेलम का तट खचा-खच भर गया! व्यक्ति समुदाय में बदल गए! पूरे लाव – लश्कर के साथ आया था यूनान का सरताज अपने गुरु की भेंट बटोरने! साधू की मस्ती पूर्ववत थी! उस सुबह और इस शाम में अंतर इतना भर था कि इस समय वह नदी के रेत की जगह पेड़ के नीचे लेटा हुआ था! पत्तों से झर रही सूरज की किरणें उसके सुनहले शरीर को और स्वर्णिम बना रही थीं!
"जानता है ना चलने का परिणाम तुझे नष्ट होना पड़ेगा मूर्ख!" लगभग चिल्लाते हुए उसने ये शब्द कहे! खीझ की कालिमा उसके चेहरे पर पुती हुई थी! शब्दों के खोखलेपन को वह खुद जानता था! उसे मालूम था की इसे मार भी दिया तो पता नहीं दूसरा मिलेगा भी या नहीं! बड़ी मुश्किल यही मिला, अब चलने के समय…! एक उन्मुक्त हंसी ने उसके सोच के हजार टुकड़े कर डाले! हँसता हुआ साधू कह रहा था "मूर्ख कौन है यह अपने से पूछ! और सुन! नष्ट दरिद्र होता है शहंशाह नहीं! नष्ट वह होता है, जो कामनाओं-महत्वाकांक्षाओं की चीथड़े लपेटे दर-बदर ठोकरें खाता है! जिसको इन चिथड़ों से क्रोध की दुर्गन्ध आती है, वही वासनाओं की रग कट जाने पर विक्षिप्त है! विक्षिप्त मायने बेअक्ल – जिसकी अक्ल मारी गई हो, समझो वह नष्ट हुआ! सोच! किसे नष्ट होना है? "साधू की निर्भीक वाणी उसे अपनी ही किन्ही गहराइयों में कँपाने लगी! वह सिहर उठा!
इधर साधू कहे जा रहा था ..... शहंशाह वह जिसने अपनी जीवन सम्पदा को पहचाना, जिसने जीवन की तिलस्मी तिजोरी में रखे प्रेम- संवेदना, त्याग, जैसे असंख्य रत्न बटोरे! वह जो आतंरिक वैभव की दृष्टि से अनेकानेक विभूतियों से सजा उसके समक्ष मस्ती से लेटा हुआ था!
निर्वाक खड़ा सिकंदर सुन रहा था! सामंजस्य बिठा रहा था इस वाणी में और उस वाणी में जो उसने अपने गुरु से सुनी थी! जब बचपन में उसका शिक्षक गुरु भारत के किस्से सुनाता! इस देश का गौरव बखानता! तब वह कहा करता था "जरा बड़ा होने दो लूट लाऊंगा भारत का वैभव – गौरव, सब कुछ वहां का जो बेशकीमती है!" अरस्तू हँस पड़ता यह सब सुनकर "तुम नहीं लूट सकते सिकंदर! उसे पाया जाता है, लूटा नहीं जा सकता!" सैनिक मन, बात की गहराई नहीं पकड़ सका! चलते-चलते उस तत्ववेत्ता ने फिर से एक बार कहा था "भारत का गौरव वहां के प्रशासन, पदाधिकारियों में नहीं बसता! वह धनिकों, सेठों की तिजोरियों में भी कैद नहीं है! वहां के गौरव है ब्राह्मण और साधू! विचार निर्माता – व्यक्ति निर्माता! आस्थाओं को बनाने वाले, समाज को गढ़ने वाले! इनके रहते भारत का गौरव अक्षुण्ण है! इनके जीवित रहते उस पुण्यभूमि का गौरव का सूर्य अस्त नहीं हो सकता! समय के तूफानो में वह थोड़े समय के लिए छिप भले ही जाये, पर फिर से प्रकाशित हो उठेगा!"
अरस्तू के लम्बे कथन को सुन-सुन कर वह ऊबने लगा था! उसके चुप हो जाने पर वह मुस्करा कर चल दिया! यहाँ आने पर ब्राह्मण चाणक्य एवं साधू दंडायण को देखने पर पता चला अरस्तू की बातों का मर्म! क्या करे? यह सोच रहा था! सैनिक अधिकारी आदेश की प्रतीक्षा में टकटकी बांधे उसकी और निहार रहे थे!
तभी भीड़ को चीरते हुए एक दूत आया! उसके हाथ में एक पत्र था! सिकंदर ने खोला, पढने लगा – सारी बातों की विवेचना करते हुए उस दार्शनिक अरस्तू ने लिखा था – "उस महान साधू को तत्व जिज्ञासु अरस्तु का प्रणाम निवेदन करना! कहना उनसे, कि एक विनीत विद्यार्थी ने एक शिक्षक को पुकारा है! यद्यपि उनके चरणों में मुझे स्वयं नतमस्तक होना चाहिए! किन्तु उनके वहाँ आने से अकेले उसका नहीं अनेकानेक यूनानवासियों का कल्याण होगा! वे अपनी दरिद्रता मिटा सकेंगे!"
पत्र के शब्दों को सुनकर साधू बरबस मुस्कराया! "तू जा" वह कह रहा था अपने गुरु से कहना कि दंडायण आएगा! प्रव्रज्या की उस महान परंपरा का पालन करेगा, जिसके अनुसार जिज्ञासु के पास पँहुचना शिक्षक का धर्म है! किन्तु "साधू ने आकाश की ओर दृष्टि उठाई, ढलते हुए सूरज की और देखा और कहा "तेरा जीवन सूर्य ढल रहा है सिकंदर, तू नहीं पँहुच सकेगा पर मै जाऊंगा – अवश्य जाऊंगा! यह उतना ही सच है जितना कल का सूर्योदय! अब जा! कहकर उन्होंने उसकी ओर से मुँह फेर लिया!
सिकंदर वापस लौट पड़ा! इतिहास साक्षी है इस बात का कि वह यूनान नहीं पँहुच सका! रास्ते के रेगिस्तान में प्यास से विकल, मृत्यु की ओर उन्मुख सिकंदर अपने प्रधान सेनापति से कह रहा था "मरने पर मेरे हाथ ताबूत से बाहर निकल देना ताकि सारा विश्व जान सके कि अपने को महान कहने वाला सिकंदर दरिद्र था, और दरिद्र ही गया! जीवन सम्पदा का एक रत्न भी वह कमा ना सका! दंडायण सत्य था और सत्य है!"
अपने वायदे के मुताबिक परिव्राजक दंडायण यूनान पंहुचे! यूनानवासियों ने उनके नाम का अपनी भाषा में रूपांतरण किया "डायोजिनिस (Diogenes)"! इस परिव्राजक की उपस्थिति ने यूनानी तत्वचिंतन को नए आयाम दिए! जीवन की यथार्थ अनुभूति के साथ यह भी पता चल सका – दरिद्रता की परिभाषा क्या है? असली वैभव क्या है? जानबूझकर ओढ़ी हुई गर्रीबी में भी आदर्शों का पुजारी कैसे रह सकता है? विश्व भर में सांस्कृतिक चेतना की वह पूँजी जो भरत की अमूल्य थाती रही है, वह दंडायण जैसों दार्शनिक-संतों ने ही पंहुचाई! आज भी वह परंपरा पुनः जाग्रत होने को व्याकुल है! समय निकट आ रहा है, जब सम्पन्नता की सही परिभाषा लोग समझेंगे व ब्राह्मणत्व की गरिमा जानेंगे और अपनाने को आगे बढ़ेंगे!
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