हम करें राष्ट्र अभिवादन, हम करें राष्ट्र आराधन !!

Published: Saturday, Aug 25,2012, 19:38 IST
By:
0
Share
hum kare rashtra abhivadan, hum kare rashtra aaradhan, panini, raskhan dadu, kabir, shankracharya, rich indian culture, ganga, bhagirath,

अपना राष्ट्र एक भूमि का टुकड़ा मात्र नहीं है, ना वाणी का एक अलंकार है और न मस्तिष्क की कल्पना की एक उड़ान मात्र है। वह एक महानतम जीवंत शक्ति है, जिसका निर्माण उन करोड़ों-अरबों जनों की शक्तियों को मिलाकर हुआ है, जो राष्ट्र का निर्माण करते हैं। यह निर्माण ठीक उसी प्रकार हुआ है, जैसे समस्त देशवासियों को एकत्र कर बलराशी संचित की गई, जिसमें से भवानी-महिष मर्दिनी प्रकट हुईं। वह शक्ति जिसे हम भारत, भवानी-माता कहकर पुकारते हैं, अरबों लोगों की शक्ति का जीवंत एवं जाग्रत स्वरुप है, परन्तु आज वह अपनी ही संतानों के बिच तमस, अज्ञान, स्वार्थलोलुपता के वशीभूत होकर कराह रही है। आज अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है।

इस राष्ट्र ने अपनी आँखों से से क्या कुछ नहीं देखा है। कभी इसने अपने ही आँगन पर ऋषियों को तपस्या करते देखा, इसी ने ऋषियों को पोषण दिया और ऋषियों ने राष्ट्र को विकसित करने के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर कर दिया। बलिदानियों की लम्बी एवं पुण्य परंपरा रही है, इसे विकसित करने में। ऋषियों ने राष्ट्र निर्माण हेतु ताप किये और अपनी देह, मन एवं प्राण- अपना सर्वस्व राष्ट्रदेव की आराधना में लगा दिया। इसके पुण्य प्रभाव से राष्ट्र समृद्धशाली और शक्तिशाली कहलाने योग्य बना। समस्त विश्व में इसकी पुण्य-पताका आसमानों की बुलंदियों को चूमती रही।


अपने राष्ट्र की नींव में बलिदानी प्रथा-परंपरा रही है। भागीरथ ने गंगा अवतरण कर अपने पूर्वजों का उद्धार करने एवं इस राष्ट्र को एक नवीन वरदान देने के लिए अपनी पीढियां होम कर दीं। एक या दो नहीं, कई पीढियां इसमें खप गईं, तब कहीं जाकर इस राष्ट्र को गंगा के रूप में अमूल्य एवं दैवीय उपहार उपलब्ध हो सका। इस राष्ट्र की रगरग में ज्ञान की धारा प्रवाहित करने हेतु शंकर से शंकराचार्य तक ने मंथन किया। पाणिनि ने व्याकरण रचा, पतंजलि ने योगदर्शन दिया, वाल्मीकि ने रामायण की रचना की, व्यास ने महाभारत रचा, कृष्ण ने गीता गई। स्वामी विवेकानंद एवं श्री अरविन्द ने इस धारा को वर्तमान युग तक प्रवाहित किया।

राष्ट्र में संवेदना एवं भक्ति का सजल प्रवाह प्रवाहित करने के लिए मीरा, रसखान, दादू, रज्ज्व ने अबोल स्वरों को स्वर दिया और भक्ति की नै तान छेड़ दी, वर्तमान भक्ति साहित्य में यह देखा जा सकता है। वैदिक नारी गार्गी, अपाला, घोषा से लेकर रानी लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, पद्मावती तक ने विद्वता एवं शौर्य, सहस एवं पराक्रम की नूतन गाथा लिख दी। राष्ट्र का प्रत्येक क्षेत्र जो उन्नत एवं विकसित हो सका, उसके पीछे अनेक शूरवीरों एवं पराक्रमियों की कुर्बानियां सन्निहित हैं। इसके लिए अपनी पीढियां झोंक दी गईं और राष्ट्र के विभिन्न आयामों का विकास संभव हो सका।

स्वाधीनता के पूर्व तक पराधीन राष्ट्र को स्वतंत्र करने के लिए चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, और क्रांतिकारियों की पूरी पीढ़ी समाप्त हो गई और इन्ही के बलिदानों के कारण राष्ट्र का दुर्भाग्य कटा-मिटा, जिसके कारण सैकड़ों वर्षों तक अपना राष्ट्र पराधीनता के घोर दुर्दिन झेलता रहा। जिस प्रकार व्यक्ति का कर्म ही पाप और पुण्य बनकर उसे सुख-दुःख प्रदान करता है, ठीक उसी प्रकार राष्ट्र के जनों के सत्कर्म और दुष्कर्म राष्ट्र के भाग्य एवं दुर्भाग्य, योग एवं दुर्योग बनकर प्रकट होते हैं। स्वाधीनता के पूर्व इस राष्ट्र के दुर्योग एवं दुर्भाग्य काटने के लिए समस्त योगी, तपस्वी तप में निरत रहते थे और भौतिक रूप से राष्ट्र की बलिबेदी बंद वैरागी से लेकर राजगुरु, बिस्मिल, सुभाष बोस, भगत सिंह आदि अपने प्राणों को निछावर कर देते थे। इन्हीं के पुण्य-प्रभाव से राष्ट्र का दुर्योग छंटता था। राष्ट्र के पराधीनतारूपी दुर्योग को काटने के लिए महर्षि रमण, श्री अरविन्द, स्वामी विवेकानंद आदि ने ताप करके सूक्ष्म जगत में हलचल मचा दी thi। स्वामी विवेकानंद ने स्थूल और सूक्ष्म, दोनों रूपों में राष्ट्र निर्माण की पटकथा लिख दी। तब जाकर इस राष्ट्र को अभूतपूर्व स्वतंत्रता मिल सकी।

राष्ट्र की स्वाधीनता के साथ ही बलिदानी प्रथा समाप्त हो गई। स्वाधीन राष्ट्र की सत्ता को भोगने के लिए वह सब कुछ किया जा रहा है, जिसे दृग देखना नहीं पसंद करते, कर्ण श्रवण नहीं कर सकते और बुद्धि हारकर पस्त हो जाती है। सत्ता का सुख भोगने के लिए तो घुड़दौड़ मची ही है, परन्तु इस राष्ट्र में भ्रष्टाचार, पापाचार, हिंसा,हत्या, बलात्कार, आदि से जो भोग चढ़ रहा है, उसे काटने के लिए कौन भला सोच रहा है; कौन इस सन्दर्भ में विचार कर रहा है, किसे इसकी चिंता है ? स्वाधीनता के साथ हमने अपने बाह्य शत्रुओं को तो भगा दिया परन्तु उन आतंरिक शत्रुओं को क्या किया जाये जो हमारे अन्दर घर कर गए है और ये हैं हमारी मुख्यतः कमजोरियां, कायरता, धर्म-निरपेक्षता के नाम पर धर्म-भीरुता, स्वार्थ-लोलुपता, हमारा मिथ्याचार और हमारी अंधी भावुकता।  

आज हमारा उद्देश्य राष्ट्र के उत्थान एवं विकास से सम्बंधित नहीं है। केबल अपना एवं अपने क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति के लिए भीषणतम  पापाचार एवं भ्रष्टाचार को भी अनदेखा कर देना हमारा स्वाभाव बन गया है। भ्रष्टाचार हमारी मानसिकता में घर कर गया है। हमारा उद्देश्य भ्रांतिपूर्ण है। हमने जिस भावना को लेकर आगे बढ़ने का संकल्प उठाया है, वह सच्चाई और एकनिष्ठता से कोसों दूर है, हमने जिन तरीकों को चुना है, वे सही नहीं हैं। हमने अपने राष्ट्र को जिन नेताओं के कन्धों पर रखा है, वे कंधे ही जर्जर एवं रोगग्रसित हैं। हम ऐसे लोगों पर ही आज निर्भर हैं। ये हमारा एवं हमारे  राष्ट्र का भविष्य क्या सुधारेंगे।

परन्तु इस सबके बावजूद ऐसी कौन सी शक्ति है, जो हमारे राष्ट्र को अक्षुण एवं जीवंत बनाए रखे हुए है। यह सृजनशक्ति हमें, हमारे युवाओं की पूरी पीढ़ी को फिर से बलिदान करने के लिए ललकार रही है। वह चाहती है कि हमारे अन्दर आक्रामक गुण, उड़ान भरती आशीर्वाद की भावना, उद्धत सृजन, निर्मल प्रतिरोध तथा प्रखर विवेक एवं सजल संवेदना एक साथ संवेदित हो। एक अध्यात्मिक जीवन जो कहने में नहीं, करने में अटल विश्वास रखता हो, की आवश्यकता है। भारत का आध्यात्मिक जीवन विश्व के भविष्य की प्रथम आवश्यकता है। हम केवल अपनी राजनितिक एयर आध्यात्मिक स्वतंत्रता के ही नहीं लड़ते है, बल्कि मानव जाती के आध्यात्मिक उद्धार के लिए भी संघर्ष करते हैं। हमें स्वयं को बदलना होगा, जीवन को नूतन एवं आध्यात्मिक ढंग से परिभाषित करना होगा ; क्योंकि अधःपतन और विनाशोन्मुख लोगों के बीच रिशिगन और महँ आत्माएं अधिक समय तक जन्म लेती नहीं रह सकतीं।

हम करें राष्ट्र अभिवादन, हम करें राष्ट्र आराधन !!

Comments (Leave a Reply)

DigitalOcean Referral Badge