हाल ही में बंगाल में हुई सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ित हिंदू परिवारों और इस हिंसा में वामपंथी और तृणमूल कांग्रेस की भूमिका..
मोदी का विरोध कर रहे एनजीओ के फंडिंग स्रोत क्या है? - गुजरात का अनसुना सच
पावागढ़, लूणावाला, संतरामपुर, जामूगोड़ा, देवगढ़ बारी ये नाम कभी
पहले सुने हैं आपने? इन्हीं पांच महलों को मिलाकर गुजरात के एक जिले
को नाम दिया गया है पंचमहाल। यह बता पाना भी मुश्किल है कि गुजरात के
इस जिले का नाम कितने लोगों ने सुना होगा? लेकिन इस जिले के जिला
मुख्यालय का नाम आते ही सुनने वाले के चेहरे पर कई रंग आते जाते हैं।
मैं गोधरा की बात कर रहा हूं।
जिले के सलाट, मदारी, बंजारा, काकसिया, बागड़ी, लोहाड़िया समाज के
लोगों के बीच, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को समझने की कोशिश में
पंचमहाल के लूणावाला जाना हुआ था। इन सभी समाज के लोग गुजरात जैसे
विकास का माडल बने राज्य में भी बदहाली में जीने के लिए अभिशप्त हैं।
बहरहाल, यहां बात गोधरा की करते हैं। जिसे पिछले नौ सालों में देश ही
नहीं, दुनिया भर में नरसंहार के तौर पर इतनी पहचान मिली कि उसकी सारी
पहचान मिट गई है। ‘गुजरात के बाहर लोगों को जैसे पता चलता कि हम गोधरा
से हैं, सामने वाले की शक्ल इतनी दयनीय हो जाती है, जैसे उसके घर से
ही किसी की मय्यत उठनी हो! अच्छा नहीं लगता, जब लोग हमें दया पात्र
समझते हैं। हमें किसी से दया की भीख नहीं चाहिए।’
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‘2002 में बहुत कुछ खोया हमने। धीरे-धीरे जख्म भरते हैं और मीडिया और
एनजीओ वाले आकर फिर से मिर्च डालकर हमें तड़पता छोड़कर चले जाते हैं।
बहुत इंटरव्यू हुए, क्या मिला हमें! अब कोई बात नहीं करनी हमें किसी
से। हमारे नाम पर गुजरात की कई एनजीओ की खाल मोटी हो गई है। मोटा पैसा
कमाया उन्होंने, हम मुसलमानों के नाम पर।
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यह एक इक्कीस वर्षीय युवक नवाब अली का बयान था। वैसे गोधरा की उस
चाय की दुकान पर एक अंजान आदमी से कोई बात करने को तैयार नहीं था। न
जाने कौन है? कहां से आया है और क्या चाहता है? उन लोगों को आगंतुक पर
विश्वास करते हुए थोड़ा वक्त लगा। एक व्यक्ति ने पूछ ही लिया आखिर,
‘आप पत्रकार हैं या एनजीओ वाले या हमारे सरकारी आदमी हैं?’ इस सवाल के
मायने स्पष्ट थे। उनके बीच यही तीन तरह के लोग पिछले नौ सालों से
लगातार आ-जा रहे थे।
उन लोगों की एक पत्रकार से बात करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे
तैयार हुए, दिल्ली से आए एक शोधार्थी से बात करने के लिए, जो लूणावाला
के एक कालेज के प्राचार्य कांजी भाई पटेल से मिलने के लिए गोधरा आया
है। गोधरा से उसे फिर लूणावाला जाना था। जब वे लोग इस शोधार्थी की
बातों से पूरी तरह आश्वस्त हुए, उसके बाद वे धीरे-धीरे अनौपचारिक होने
लगे, लेकिन उनसे अचानक मिले इस अपनेपन से मेरी जिम्मेवारी थोड़ी बढ़
गई थी। चूंकि शोधार्थी वाले परिचय के बाद जो भी बातें उन्होंने की,
कायदे से वह सारी बातें ‘आफ दि रिकार्ड’ हैं। लेकिन वह गोधरा के दूसरे
पहलू को सामने लाती हैं, इसलिए यह कहानी आप लोगों तक पहुंचनी जरूरी
है। इसलिए बिना किसी का नाम इस्तेमाल किए, उन लोगों ने जो भी कहा, उसे
यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। नवाब का नाम इसलिए यहां बताने में कोई हर्ज
नजर नहीं आता, क्योंकि उनसे पहले मेरी बात हो रही थी, उनसे बातचीत के
दौरान ही एक-एक करके दूसरे लोग हमारी बातचीत में शामिल हुए। यदि किसी
को मेरी बात में कोई कमी नजर आती है, तो संभव हो तो उसे एक बार गोधरा
जाना चाहिए। विश्वास है कि उसके अनुभव मुझसे भिन्न नहीं होंगे।
चाय की दुकान पर हुई बातचीत से ही पता चला कि दंगों के दौरान गोधरा से
बीस किलोमीटर दूर सेहरा नाम का एक कस्बा है, जहां मुस्लिम और सिन्धी
आबादी रहती है। जब पूरा गुजरात दंगों की आग में झुलस रहा था, उस दौरान
इस कस्बे में एक पत्ता तक नहीं खड़का। वास्तव में इस हिन्दू-मुस्लिम
आबादी वाले कस्बे ने एक मिसाल कायम की।
यह बात गोधरा के किसी मुस्लिम व्यक्ति के मुंह से सुनकर किसी भी
दिल्ली, मुंबई वाले को परेशानी हो सकती है। लेकिन जब वे बुजुर्ग
व्यक्ति बोल रहे थे, उनके साथ के किसी व्यक्ति की आंखें चैड़ी नहीं
हुई। ‘भाई साहब, मोदीजी से हमें कोई शिकायत नहीं है। वे सियासी आदमी
हैं और जो लोग मोदी के खिलाफ नारे लगा रहे हैं, उनके खिलाफ काम कर रहे
हैं, वे भी हम मुसलमानों के नाम पर सिर्फ अपना भला कर रहे हैं। वे भी
राजनीति कर रहे हैं। उनसे भी हमें कोई उम्मीद नहीं है।’
उन बुजुर्ग व्यक्ति की बात खत्म होने के साथ-साथ एक-एक करके कई लोग इस
बातचीत में शमिल हो गए। कुछ लोग अब भी मुझे संदेह भरी नजरों से देख
रहे थे। न जाने कौन है?
‘2002 में बहुत कुछ खोया हमने। धीरे-धीरे जख्म भरते हैं और
मीडिया और एनजीओ वाले आकर फिर से मिर्च डालकर हमें तड़पता छोड़कर चले
जाते हैं। बहुत इंटरव्यू हुए, क्या मिला हमें! अब कोई बात नहीं करनी
हमें किसी से। हमारे नाम पर गुजरात की कई एनजीओ की खाल मोटी
हो गई है। मोटा पैसा कमाया उन्होंने, हम मुसलमानों के नाम पर। हमें
क्या मिला, पूछिए उन मोटी खाल वालों से। हम कल भी सड़क पर थे और आज भी
सड़क पर ही हैं। हमारे जख्म मत कुरेदिए आप…!’
‘गुजरात में कितने मुसलमान मोदी के खिलाफ आवाज उठाने वाले हैं। आप देख
लीजिए, जो भी बोलने वाले लोग हैं, सबके अपने पोलिटिकल और
इकोनामिकल हित जुड़े हैं, मोदी के खिलाफ बोलने में। गुजरात
के मुलसमानों से किसी को मोहब्बत है, इसलिए हमारे पक्ष में कोई बोल
रहा है, मैं तो इस गलतफहमी में नहीं जी रहा।’
‘मोदी गुजरात में किसके लिए परेशानी हैं, एनजीओ चलाने वालों के लिए और
राजनीति करने वालों के लिए। जो पीड़ित हैं, उन्हें फ्रेम से बाहर कर
दिया गया, सभी लुटने वालों के साथ हमदर्दी दिखाकर नाम और दाम दोनों
लूट रहे हैं।’
गोधरा और उसके आस-पास के लोगों से बात करके जाना कि साबरमती जेल में
बड़ी संख्या में निर्दोष भी दंगों के आरोपी बनाए गए। ‘जिसने कभी ऊंची
आवाज में बात तक नहीं की, वह क्या गला काटेगा? कालेज जाने वाले बच्चों
को उठाकर पुलिस ले गई। वैसे मेरी इस बात पर आंख बंद करके आपको विश्वास
करने की जरूरत नहीं है, आप अपने स्तर पर पता कीजिए। यह जानकारी हासिल
करने में अधिक मुश्किल नहीं आएगी।’
चाय की दुकान पर बातचीत जारी थी। हमारी बातचीत में शामिल हुए नए
मेहमान यानी चाय की दुकान पर आए नए व्यक्ति का बयान था- ‘जो लोग
गुजरात के खिलाफ लिख रहे हैं, बयानबाजी कर रहे हैं और खुद को हमारा
साथी बताकर प्रचार पा रहे हैं, उन लोगों से हम दरख्वास्त करते हैं कि
हमें हमारे हाल पर छोड़ दें तो मेहरबानी होगी। हम इसी मिट्टी के हैं,
बाहर से नहीं आए हैं। उन बयानबाजियों की वजह से हमारा भाईचारा खत्म हो
रहा है यहां। जो हमारे चाहने वाले बनकर बयानबाजी कर रहे हैं, उन्हें
समझना चाहिए कि वे इस तरह हम मुसलमानों को पूरे गुजरात में बदनाम ही
कर रहे हैं।
‘गुजरात के बाहर या अंदर हमारे लोगों को गोधरा सुनकर काम नहीं
मिलता। बाहर वाला हर आदमी यही जानना चाहता है कि उस दिन स्टेशन पर
क्या हुआ? हमें क्या पता क्या हुआ?’
‘अगर पता होता कि कुछ होने वाला है तो क्या हम होने देते?’
मीडिया जो कहानी पिछले नौ सालों से सुना रही है, यह सब लिखने का अर्थ
बिलकुल यह नहीं है कि वह सारा झूठ था और यही सच है। लेकिन जो आप
गुजरात को नरसंहार की धरती शृंखला में देख रहे थे, वह सच्चाई का एक
पहलू था, पूरा सच नहीं था। यह बात गुजरात में मोदी खेमे के विरोधी भी
मानते हैं, अल्पसंख्यकों से सच्ची मोहब्बत रखने वाले गुजरात समाज के
लोगों को मीडिया तलाशने में असफल रही है। वे लोग मीडिया में नहीं
दिखे। जो सामने आए, उनमें अधिकांश दर्द को कैश करने वाले थे। अब उन
चेहरों में दर्जनों ऐसे हैं जो अहमदाबाद और दिल्ली में मलाई काट रहे
हैं। कोई संस्था का प्रमुख बना और कोई अकादमी संभाल रहा है और कोई तो
सीधा राष्ट्रीय सलाकार परिषद की सदस्यता तक पहुंच गया। क्यों एनएसी की
सदस्यता का अर्थ कांग्रेसी होने से नहीं लगाना चाहिए? एक सामाजिक
कार्यकर्ता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि ‘एक सूचि बना लीजिए
नरेन्द्र भाई का विरोध करने वाले एक दर्जन लोगों की।’ अब इनके विरोध
की भाषा सुनिए- ‘यह 2002 के अलावा क्या आरोप लगाते हैं? इन आरोप लगाने
वालों में इतना सब्र भी नहीं है कि न्यायालय का आदेश आने का इंतजार कर
सकें। इस बात को थोड़ा और स्पष्ट करना हो तो देखिए कि इनमें कितने
एनजीओ वाले हैं और कितने गैर एनजीओ वाले। दूसरी और अहम बात, विरोध
करने वालों में गुजराती कितने और उनमें भी मुस्लिम समाज से कितने आते
हैं? अंत में दो बातें और जोड़िए, जो लोग विरोध कर रहे हैं, उन पर
चढ़ी चर्बी में सरकारी पैसों की मदद कितनी है? दूसरी बात, जो एनजीओ
नरेन्द्र भाई का विरोध कर रहे हैं, उनकी फंडिंग का स्रोत क्या है? आप
सिर्फ इतने सवालों के जवाब जुटा लें, गुजरात को बदनाम करने वाले
बेपर्दा हो जाएंगे।’
मोदी के वकील बन कर बात कर रहे वे भाई साहब जाते-जाते बताना नहीं भूले
कि वे मोदी के समर्थक नहीं हैं, लेकिन उन लोगों के विरोधी हैं जो
गुजरात को बदनाम कर रहे हैं- ‘गुजरात को बदनाम किया ही, सबसे अधिक
बदनाम हो गया हमारा गोधरा। हमारे लोगों को बाहर जाकर झूठ बोलना पड़ता
है। क्या गोधरा हत्यारों का शहर है?’
बाबू भाई चाय की दुकान पर मिले थे, उनकी मदद से इन सामाजिक कार्यकर्ता
तक पहुंचा था। बाबू भाई ने भी बीच में एक बार उनकी बात में टांग
फंसाने की कोशिश की थी। उन्होंने पहले कई बार अलग-अलग मंचों पर उठ
चुके सवाल को दोहराया- ‘रामजेठमलानी ने नरेन्द्र भाई के लिए कोर्ट में
बात रखी, जब वही जेठमलानी विनायक सेन के लिए कोर्ट में गये तो किसी ने
एक शब्द नहीं कहा। फिर अमिताभ के खिलाफ सब एक कैसे हो गए? जबकि अमिताभ
मोदी के लिए नहीं, गुजरात के लिए अहमदाबाद आए थे।’ (अहमदाबाद से उनका
अर्थ अमिताभ के गुजरात के लिए विज्ञापन करने से था।)
बाबू भाई ने बातचीत खत्म होने पर धन्यवाद ज्ञापन के अंदाज में कहा-
‘मोदी को गाली देने वाले सभी गीद्धों की सूचि बना लीजिए।
देखिएगा, यही नाचने, गाने और चिल्लाने वाले अपना मेहनताना लेने नई
सरकार के सामने कतार में सबसे आगे होंगे।’
इस बात पर एक बार फिर से हम सब लोगों को ठंडे दिमाग से विचार करने की
जरूरत है कि क्या मुख्य धारा की मीडिया में जो कहा जा रहा है, वही
पूरा सच है। या मुख्य धारा की मीडिया कुछ बातों को सही-सही अपने
दर्शकों तक रखने में असक्षम साबित हो रही है।
ईमेलः [email protected] | स्त्रोत : भारतीय पक्ष
पत्रिका
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