राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किस प्रकार व्यक्ति निर्माण का कार्य कर मानवता को नए नए रत्न प्रदान करता है, इसके उदाहरणों की कमी..
इतिहास का सच और भविष्य की चुनौती है अखंड भारत भाग २ - के. एन. गोविन्दाचार्य
प्रश्न : आपने कहा कि अखंड भारत एक सांस्कृतिक सत्य है यानी यह भूभाग यदि अखंड था तो संस्कृति के कारण। आज वह संस्कृति जब वर्तमान भारत में ही कमजोर पड़ रही है तो जिन स्थानों से वह लुप्त हो गई है, वहां अपना प्रभाव कैसे फैला पाएगी?
उत्तर : यहां फिर गलती हो रही है। वास्तव में समाज का भूसांस्कृतिक पक्ष अंतरतम में रहता है और अपना असर करता रहता है। समाज का भूराजनैतिक पक्ष सतह पर रहता है। काल प्रवाह में भूसांस्कृतिक तथा भूमनोवैज्ञानिक और इसलिए भूसमाजविज्ञानी पक्ष प्रभावी होते जाएंगे। इसके लिए आवश्यक है कि उनको अपने बारे में 700-800 या हजार साल पहले के सभी तथ्य बताए जाएं। उन्हें बताया जाए कि वे पहले क्या थी, अब क्या है? पाणिनी से पाकिस्तान के सामान्य जन का क्या रिश्ता है, इस ओर जब वे सोचने लगेंगे तो उनके मनोविज्ञान में काफी बदलाव होगा।
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आज ‘ही’ संस्कृति के पक्षधर भूगोल के एक हिस्से पर हावी दिख रहे हैं। ‘ही’ संस्कृति अर्थात् उनका भगवान भगवान, बाकी सब शैतान। केवल वे ही सच्चे। लेकिन यही हमेशा का सार्वकालिक सत्य तो है नहीं। भारत की मूल संस्कृति भारत में ही कमजोर पड़ रही है, ऐसा आपको लगता है। मेरा दूसरा कहना है। भारत के भूमनोविज्ञान में संश्लेषण की अद्भुत क्षमता है, क्योंकि यहां की भूप्रकृति के कारण अनेकता में एकता और मेल बिठा लेने की एक विशेषता है।
इसके कारण ही सहिष्णुता, समरसता और समजसता का वैशिष्ट्य यहां की भूसंस्कृति में आ जाता है। हम जब इसको देखते हैं तो सतह पर अपकारी तत्व अर्थात् भूराजनीति के दर्षन हो हैं जबकि नीचे सरस्वती के समान प्रवाहित है भूसंस्कृति। थोड़ा बालू हटाने की जरूरत है और यह भूराजनीति का बालू है अर्थात् जो भी ‘ही’ संस्कृति के पक्षधर संप्रदाय हैं, उन्हें समाहित करने, बदलने की आवश्यकता है। भारत में सार्वभौम या पूरे भूभाग में फैले एक राज्य की आज से 2000 साल पहले तो जरूरत नहीं थी।
नाममात्र के लिए एक सार्वभौमत्व व्याप्त था जिसे चक्रवर्तित्व या ऐसा ही कुछ और कहा जाता था। पर उस समय राज्य समाज की संपूर्ण गतिविधियों का नियंता नहीं था, जैसा कि पश्चिम में रहा है। भूसंस्कृति ही यहां की जान रही है। राज्य केवल उसका एक उपकरण रहा है। इसलिए राज्य के बहुतेरे प्रकार अलग-अलग समय पर जरूरत के हिसाब से गढ़े गए और उपयोग में लाए गए।
राष्ट्र के लिए एक सार्वभौम राज्य की आवश्यकता तो आज से 2000 साल पहले ही हुई है जब हमें लुटेरे के रूप में आए सिकंदर का सामना करना पड़ा। तब तात्कालिक तौर पर सब सेनाओं को इकट्ठा कर लिया गया अन्यथा भारतीय समाज में स्थायी सेना रखने की भी आदत नहीं थी। यहां परंपरा थी कि सामान्यत: लोग अपने खेती या व्यवसाय में लगे रहते थे, सबके पास शस्त्र होते थे और वीर्य, शौर्य तथा बल संपदा का अधिकाधिक संपोषण किया जाता था।
जब जरूरत पड़ती थी तो सभी युध्द के लिए आ जाते थे। इसलिए समाज संचालन के पिछले 400 साल के पश्चिमी प्रयोगों को परंपरागत भारतीय समाज संचालन विधि के संदर्भ में अगर देखेंगे तो गलती हो जाएगी।
विगत एक हजार वर्षों में भारत को एक विशेष प्रकार की समस्या का सामना करना पड़ा। एक सहिष्णुता, समरसता और समजसता के गुण वाले समाज को असहिष्णु, एकाकी, सर्वंकश और सर्वग्रासी राजनैतिक पंथसत्ता से लड़ना पड़ा। वह पांथिक राजसत्ता नहीं, राजनैतिक पंथसत्ता थी। वास्तव में इस्लाम एक स्टेटक्राफ्ट है जिसका एक हिस्सा जीव और जगदीश के संबंधों के बारे में भी कुछ सोचता और बोलता है।
इसमें भौतिक और आधयात्मिक, दोनों का सम्मिश्रण है परंतु भौतिक की
ही प्रधानता है। ऐसे असहिष्णु संप्रदाय से जब से भारत का सामना हुआ है
तब से अब तक यहां का समाज विभ्रम में है। वह भारत के बाहर उपजे
संप्रदायों-मजहबों को भी भारत के अंदर उपजे संप्रदायों के समानधर्मा
और समानमनवाला मानने की भूल करता है। भारत के अंदर उपजे संप्रदायों
में जैसे परस्पर समादर का रिश्ता है, वैसा ही रिश्ता वह अपने
मनोविज्ञान में उनके बारे में अनुभव करने लगता है, जबकि वे ऐसे हैं ही
नहीं। इसलिए उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाए, यह समस्या है।
वे तो राज्य के साथ हैं और यहां के मानस में राज्य की वैसी कोई भूमिका
ही नहीं है। यह द्वन्द्व है। इस द्वन्द्व में से सीखता-समझता भारतीय
समाज गुजर रहा है। इसलिए इसे लगता है कि दुर्गा जैसी सक्षम राजसत्ता
और काली जैसी समाजसत्ता की आवश्यकता है। राजसत्ता दुर्गा का काम करे
और समाजसत्ता काली का काम करे, इन रक्तबीजों का रक्त अपनी जीभ पर फैला
ले, गिरने न दे।
भारतीय समाज अभी इस सीख के साथ थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ रहा है। इसमें उसको यह भी धयान रखना होगा कि रावण से युध्द करते हुए कहीं अपना स्वभाव भी रावणी न बन जाए। असहिष्णु संप्रदायों का सामना करने के क्रम में सहिष्णुता, समरसता और समाजसता के अपने भूसांस्कृतिक वैशिष्टय को बरकरार रखने की विशेष चुनौती है।
प्रश्न : यदि अखंड भारत को हम राजनीतिक इकाई नहीं मानते हैं तो सीमाओं की चर्चा करने की जरूरत क्यों पड़ती है? पाकिस्तान के अस्तित्व पर बहस क्यों होती है? पाकिस्तान के रहने और न रहने से अखंड भारत को क्या फर्क पड़ता है?
उत्तर : मैं पहले ही कह चुका हूं कि भारत से बाहर उपजे संप्रदायों का पुरोधा बनकर यदि कोई राजसत्ता उसका सशस्त्र साथ देती है, तब संपूर्ण विश्व में शांति व भाईचारा फैलाने के भारत के दैवी दायित्व में बाधा होती है। तब भारतीय समाज को सोचने की आवश्यकता पड़ जाती है कि राजसत्ता का आश्रय लेकर जो अभारतीय संप्रदाय सामने आ रहे हैं, उन्हें राजनैतिक प्रत्युत्तर दिए बिना हम कैसे बने रहेंगे।
प्रश्न : इस राजनीतिक प्रत्युत्तर में सैन्य शक्ति का कितना उपयोग हो सकता है?
उत्तर : हम इतना जानते हैं कि सैन्य शक्ति इतनी जरूर हो कि कोई हमें टेढ़ी आंखों से देख न सके। दूसरी बात, सैन्य शक्ति इतनी सक्रिय होनी चाहिए कि राष्ट्रीय संप्रभुता पर यदि हमला हो तो कानूनी दांवपेंच में उलझकर अपनी निष्क्रियता को सही सिध्द न करे। जैसे, कारगिल के युध्द में अपनी सीमाओं में रहने की बेबसी दिखाने की कोई जरूरत नहीं थी।
जब आतंकवाद के अड्डे सीमापार हैं तो उसे नष्ट करने के लिए सीमा पार करना नैतिक है, आवश्यक है और यदि कोई इसका विरोध करता है तो वह अनैतिक है। इसी प्रकार जब भारतीय संसद पर चोट की गई तो वह ऐसा दूसरा अवसर था जब भारतीय सेना को दो-दो हाथ करना ही चाहिए था। केवल सद्भाव, सदाशयता और सदुपदेश से राष्ट्र नहीं चलता। राष्ट्र का मनोबल इससे गिरता है। मैं मानता हूं कि राष्ट्रीय प्रगति का मार्ग केवल सुहावने बगीचे में टहलने जैसा नहीं है। राष्ट्रीय पुनर्निर्माण उतना होता है जितना समाज द्वारा खून, पसीने और आंसू का विनियोग किया जाता है।
प्रश्न : अखंड भारत के बारे में एक विचार यह भी प्रस्तुत किया जाता है कि यूरोपीय संघ की तर्ज पर दक्षिण एशियाई महासंघ बने। अखंड भारत आज के समय में सार्थक बात नहीं है लेकिन यह महासंघ इसका ही एक रूप होगा।
उत्तर : यूरोपीय संघ से दक्षिण एशियाई महासंघ की तुलना करना ठीक नहीं है। वहां जिन देशों का संघ बना है उनमें सभ्यता व सांस्कृतिक स्तर पर अत्यधिक समानताएं हैं। मजहब भी उनका एक है। इसकी तुलना में अभी दक्षिण एशिया की स्थिति काफी भिन्न है। इस पर भी यूरोपीय संघ में ही कई अंतर्विरोध भी हैं। तुर्की यदि यूरोपीय संघ में शामिल होना चाहता है तो वे चिंता में पड़ जाते हैं।
वास्तव में इस्लामिक आबादी के बढ़ाव से वे भी काफी परेशान हैं। स्पेन के लोगों में इस्लाम का विरोध और उसके प्रति कटुता भारत में 50 साल पहले विस्थापित हुए लोगों से भी कहीं अधिक भीषण और तीव्र है। फ्रांस अल्जीरिया से हो रहे घुसपैठ से परेशान है। वस्तुत: यूरोपीय संघ में मजहब और भूसांस्कृतिक स्तर पर एक समानधर्मिता है, इसलिए वे एक हद तक थोड़ा बहुत चल पाए। इस आधार पर सोचें तो भारत महासंघ की कल्पना तथ्यात्मक कैसे हो सकती है?
इसके लिए बहुत से सुधार होने की आवश्यकता है। 1707 से 1894 के बीच समाजसता का जो क्रम चल रहा था, जिसमें विदेशी ताकतों के यहां से मिल रहा प्रश्रय और उनके प्रति सद्भाव बिल्कुल नहीं था, वह फिर से चलना जरूरी है। एक ही परंपरा और आदर्श से ओत-प्रोत जनमानस बनना, ऐसे किसी भी महासंघ बनने की पूर्व शर्त है।
साभार गोविन्दाचार्य जी
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