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रक्त-रंजित इस्लामिक क्रांति का इतिहास एवं पुनर्जागरण...

ईरान और अफगानिस्तान के इस्लामिक राज्य बनने के पहले की तस्वीरें विचलित कर देती हैं। एक अच्छी और फलफूल रही सभ्यता का अचानक से बर्बर आक्रमणकारियों के हत्थे चढ़ पूरी तरह खत्म हो जाना किसी भी सभ्य समाज के नागरिक को सकते में डाल सकता है। साथ ही इस बात की जरुरत को बताता है की इस तरह के चीजों के दोहराव से बचने के लिए इस बात पर सतत निगाह रखी जाये की विश्व में फिर ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित न हो पाए और यदि कही हो रही हैं तो मनुष्य-सभ्यता अपने सम्मिलित विवेक से इतिहास के इस तरह के दुहराव को रोक सके।
तालिबानी शासन के पहले अफगानी औरतें ब्यूटी-पार्लर चलाती हुँई / इरान में कार्निवाल का एक दृश्य_इस्लामिक क्रांति से पहले
दुनिया के कई हिस्सों में मानव सभ्यता ने वर्षो के विकास और अनुभव से जो कुछ भी हासिल किया था, जो सफ़र तय किया था, इस्लाम के मतान्ध अनुयायियों ने उसे "सिफर" करते हुए वापस पाषाण-युग में धकेल दिया। अफगानिस्तान और ईरान इसके कुछ नमूने है। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है की अरब के घने अन्धकार को जो एक थोड़ी मद्धिम रोशनी मोहम्मद ने इस्लाम के जरिये दी- उस मद्धिम रोशनी को ही परम-प्राप्य मान कर इस्लाम के अंध-मतावलंबियों ने बलपूर्वक कई विकसित और परिपक्व सभ्यताओं के जगमगाते प्रकाश को रौंद डाला और वहाँ उसी तरह के टिमटिमाते रोशनी के साम्राज्य की नींव डाली- इसे ही आज का द ग्रेट इस्लामिक एम्परर या अल-तकिया कहा जाता है।
इस्लामिक कट्टरता ने अफगानिस्तान और इरान के उदार सभ्यता को तहस-नहस कर दिया_तब और अब
इरान के विश्वविद्यालय में छात्रायें_इस्लामिक क्रांति से पहले
7वी शताब्दी से लेकर करीबन 15वीं शताब्दी तक इस्लाम का साम्राज्य-विस्तार ऐसे ही नजरिये से संचालित रहा जिस पर रोक तब लगी जब अरब से तलवार के बल पर संचालित इस अन्याय-पूर्ण साम्राज्य-विस्तार के खिलाफ पूरा यूरोप अपने उस तकनीकी क्षमता के साथ खड़ा हो गया जो उसने पुनर्जागरण से हासिल की। अगले चार सौ साल तक ये अरबिक साम्राज्य-विस्तार रुका सा रहा। यूरोप के आधुनिक तकनीकों और उसके बल पर खड़े किये गये विशाल साम्राज्य ने विश्व-परिदृश्य पर उसके एकक्षत्र प्रभुत्व की स्थापना कर दी- और इन एकध्रुवीय सत्ता-समीकरणों ने अरब से नियंत्रित उस इस्लामिक तलवार को चिर-निंद्रा में सुला दिया जो एक अल्लाह की सत्ता कायम करने अरब से निकली थी।
लेकिन 4 सौ सालों के दौरान यूरोप ने जो कुछ भी पाया था उसका एक बड़ा हिस्सा उसने विश्व-युद्धों में गँवा दिया। इसी के साथ विश्व-सत्ता-समीकरणों ने भी करवट लेनी शुरू की। यूरोप शासित एक-ध्रुवीय विश्व की जगह दो ध्रुवीय सत्ता-समीकरणों ने ले ली जिसके एक तरफ अमेरिका था और एक तरफ रूस। इस दो ध्रुवीय सत्ता व्यवस्था ने उनके बीच के उस द्वन्द को जन्म दिया जिसे दुनिया शीत-युद्ध के नाम से जानती है, और जिसकी परिणिति अंततः तालिबान के जरिये उस इस्लामिक तलवार के "संस्कितिक" रूप से पुनर्जीवित होने में हुई जो लगभग 400 वर्षो के पाताल-वास में था।
अफगानिस्तान की लडकियां- जीवविज्ञान की प्रयोगशाला में
इसी बीच मनुष्य सभ्यता अपने विकास के उस चरण में पहुँच गयी जहां सबकुछ तेल आधारित था। और तेल के स्रोतों की अरब में खोज ने व्यावाहारिक तौर पर विश्व के आर्थिक केंद्र को वापस अरब पहुंचा दिया। विश्व-अर्थव्यवस्था और मानव सभ्यता के परिचालन में तेल की मूल भूमिका ने अरब को विश्व-आवश्यकताओं का केंद्र बना दिया। तालिबान के रूप में सांस्कृतिक पुनर्जीवन पाकर 440 वर्षों से सोये इस्लामिक-"क्रांति" के लिए विश्व-इतिहास में ये अब तक की सबसे स्वर्णिम परिस्थितियाँ थी। कुल मिलाकर चार शताब्दियों पहले तक अरब से नियंत्रित उस इस्लामिक तलवार का फिर से अपने सबसे ताकतवर स्वरुप में अरब से ही संचालन शुरू हो गया। यानि 400 वर्षों बाद फिर से पूरी दुनिया-सारी दुनिया में एक अल्ला की सत्ता को स्थापित करने, अरब के वित्तपोषण से नियंत्रित उसी इस्लामिक तलवार के खतरे से रूबरू है जो अभी इतिहास के अपने सबसे स्वर्णिम परिस्थितियों से गुजर रही है। आतंकवाद से कराहते विश्व के 165 देश इन "स्वर्णिम-परिस्थितियों" के सबसे प्रखर गवाह हैं।
इन सब के बीच भारत की भूमिका, उस पर प्रभाव और भारत को क्या करना चाहिए-
इसकी चर्चा करेंगे इस लेख की अगली कड़ी में...
अभिनव शंकर । ट्विटर पर जुडें twitter.com/abhinavshankar1 | लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं एवं यह उनकी व्यक्तिगत राय है ... कृपया इसे आई.बी.टी.एल से जोड़कर न देखा जाए। चित्र : इन्टरनेट
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