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"अगर भारत को जानना है तो विवेकानंद पढ़िये... उनके विचारों में
केवल सकारात्मकता है, नकारात्मक कुछ भी नहीं...! गुरुदेव रवींद्रनाथ
ने कहा था स्वामी विवेकानंद के बारे में!" - अरुण करमरकर
1888 से 1892 तक संन्यासी विवेकानंद ने पूरे भारत की परिक्रमा की।
स्वाभिमान शून्य, लाचार, दरिद्र, गुलाम तथा रूढ़िग्रस्त थी भारत की
तत्कालीन स्थिति। कैसा समाज है यह? यही प्रश्न मन में उठना स्वाभाविक
था। किंतु विवेकानंद के मन में इस विचार ने एक अलग, अनोखा और
व्यापक रुप लिया। भारतीय समाज की तत्कालीन अवनत अवस्था ने उनके मन में
निंदा की जगह एक विशेष प्रेरणा जगायी। इस अवनति से भारत का पुनरुत्थान
करने की। क्या कारण था की स्वामीजी भारतीयता की भर्त्सना करने की बजाय
स्वाभिमान को अभिव्यक्त करने के लिये प्रवृत्त हुए? उनके 'भारत
दर्शन' अभियान की पृष्ठभूमि में था प्राचीन भारतीय संस्कृति का गहरा
अध्ययन और चिंतन तथा संन्यास जीवन का कर्मप्रवण दृष्टिकोण।
बाल्यावस्था से ही वे कठोर चिकित्सा, तर्कशुध्दता, संतुलित तथा स्पष्ट
नीति का आग्रह रखते थे। स्वयं गुरु रामकृष्ण परमहंस की श्रेष्ठता पर
भी उन्होंने अंधा विश्वास नहीं रखा। कठोर परिक्षा और गहरे चिंतन
के बाद ही वे रामकृष्ण के अनुयायी बने थे।
दूसरी ओर रामकृष्ण ने इस किशोर की श्रेष्ठता को अपनी दृष्टि से पहचाना
था। इसीलिये उन्होंने अपने निर्वाण के कुछ दिन पहले ही स्वामी
विवेकानंद को संन्यास दीक्षा के साथ ही दीन-दलितों की सेवा और सामाजिक
उत्थान के किये प्रयासों में जीवन लगाने का संदेश दिया था। इस संदेश
को शिरोधार्य करते हुए स्वामीजी भारत परिक्रमा करने के लिये निकल
पड़े। पूरा देश घुमने के बाद 1892 के 25 से 27 दिंसबर तीन दिनों में
उन्होंने कन्याकुमारी के शिलाखंड पर बैठकर अपने जीवन उद्देश्य के बारे
में चिंतन किया।
अगले ही साल जुलाई 1893 में वे शिकागो के लिये निकल पड़े। 11
सितंबर 1893 के दिन सर्वधर्म परिषद में उन्होंने अमर इतिहास रचा।
सनातन वैदिक धर्मतत्वज्ञान की विजय पताका को विश्व में फ़हराया। केवल
तीन मिनट के भाषण के माध्यम से पूरे विश्वभर से आए विद्वानों की सभा
को उन्होंने अचंभित कर दिया। उनके इस भाषण ने विद्वानों पर क्या और
कैसी छाप छोड़ी इसका वर्णन अगले कई दिनों तक पाश्च्यात्य प्रसार
माध्यम करते रहे। उन भावनाओं को प्रतिनिधिक रुप में जानना है तो केवल
एक उदाहरण पर्याप्त है:
शिकागो सर्वधर्म परिषद की विज्ञान विभाग के अध्यक्ष मर्विन मेरी स्नेल
ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा, “सर्वधर्म परिषद और सामान्य अमेरिकन
जनता के मन पर हिंदुत्व विचार का जितना गहरा और स्पष्ट प्रभाव उत्पन्न
हुआ, उतना अन्य कोई भी धर्मप्रसारक उत्पन्न नही कर पाये और हिंदु
तत्वज्ञान के प्रसारकों में सबसे अधिक प्रभावशाली और वैशिष्ट्यपूर्ण
थे स्वामी विवेकानंद। धर्म परिषद में वे ही सबसे लोकप्रिय और प्रभावी
व्याख्याता थे। परिषद के मंच पर तथा विज्ञान विभाग की सभा में उनके कई
व्याख्यान हुए। उन व्याख्यानों की अध्यक्षता करने का सौभाग्य मुझे
प्राप्त हुआ। ऐसे सभी प्रसंगों में किसी भी ईसाई या गैर-ईसाई
व्याख्याताओं से कई ज्यादा प्रशंसा स्वामी विवेकानंद की होती थी।
जहां-जहां वे जाते वहां वहां जिज्ञासु लोगों की भीड़ उन्हें घेर लेती।
उनका वक्तव्य लोग बड़ी उत्सुकता से सुनते थे।
धर्म परिषद के बाद भी अमेरिका के कई नगरों में उनकी बड़ी-बड़ी सभाएं
हुई। सर्वत्र वे ऊंचे सम्मान के धनी रहे। जिस तत्वज्ञान को 'अंग्रेजी
मानसिकता' से तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया था उस हिंदुत्व का
वास्तविक और विशुध्द स्वरुप अधिकारवाणी से कहनेवाले एक श्रेष्ठ पुरुष
को यहां भेजने के लिये अमेरिका भारत का सदैव ऋणी रहेगा और ऐसे ही
विचारक यहां भेजते रहने की प्रार्थना भारत से करता रहेगा..!”
आज उनके इस विश्वविजय को पूरे एक सौ उन्नीस साल हुए है। आज भी
स्वामीजी के मार्गदर्शन की तेजस्विता तरुणों को प्रेरणा देती है। आगे
भी अनंत काल तक देती रहेगी। सही भारत को जानो, प्रकाश में जागो यह
संदेश युवा-भारत को स्वामी विवेकानंद का स्मरण देता रहेगा। जागो
भारत... जानो भारत!!
न्यूजभारती
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