पतंजलि आयुर्वेद का समर्थन करते हुए पंजाब नेशनल बेंक के एक मुख्य अधिकारी ने आयोजित सभा में बाबा रामदेव एवं
पांडवों द्वारा कुरु भूमि पर धर्मरक्षा और न्याय के लिए महाभारत का
भीषण युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका सुदर्शन
चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण की थी। उन्होंने प्रत्येक विषम परिस्थिति से
पांडवों को सचेत करके उनका मार्ग प्रशस्त किया। वे जानते थे कि यह
इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध होगा। धरती अनेक महारथी योद्धाओं की मृत्यु
से रिक्त हो जाएगी। अत: उन्होंने सत्य पर अडिग पांडवों की रक्षा के
लिए हर संभव यत्न किया। यही कारण था कि उन्होंने युद्ध से पूर्व
पांडवों द्वारा भगवान स्थाणीश्वर की स्थापना करवा कर स्थाणु लिंग की
पूजा करवाई।
शिव के साथ ही शक्ति की अराधना भी महत्वपूर्ण मानी जाती है। यही कारण
है कि पांडवों ने माता दुर्गा, जो साक्षात् शक्ति स्वरूपा हैं, की
पूजा करने का निर्णय लिया। माता भगवती का बाला सुंदरी रूप पाडंवों की
कुल देवी के रूप में जाना जाता था। परन्तु उनका मंदिर हस्तिनापुर,जो
पांडवों के शत्रु भाइयों कौरवों की राजधानी थी,में था। युद्धभूमि से
दूर व शत्रु क्षेत्र में होने के कारण पांडवों का वहां जाकर आराधना
करना संभव नहीं था। इस कारण पांडु पुत्रों ने युद्धभूमि कुरुक्षेत्र
में ही माता शक्ति की पूजा करने का निर्णय लिया। उन्होंने कुरुक्षेत्र
में माता की पिंडी स्थापित करके उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। इस स्थान
का नाम उन्होंने हस्तिपुर रखा। तत्पश्चात् देवी बाला सुंदरी के प्रसाद
के रूप में पांडवों को विजय प्राप्त हुई। इस बात का उल्लेख महाभारत
में भी मिलता है।
समय बीतने के साथ ही वह स्थान जहां पांडवों ने माता की आराधना की थी,
इतिहास के पन्नों में खो गया। पांडवों द्वारा स्थापित माता की पिंडी
भी एक मिट्टी के टीले के नीचे दब गई। वर्ष 1640 की बात है- माता का एक
भक्त, जो महाराष्ट्र के पुणे नगर में रहता था, उसे माता ने स्वप्न में
आकर इस स्थान के दर्शन करवाए तथा इस स्थान को प्रकाश में लाने की
प्रेरणा दी। कहा जाता है कि वह भक्त उसी समय पुणे से कुरुक्षेत्र के
लिए चल पड़ा। उसने गांव हस्तिपुर, अब हथीरा नाम से जाना जाता है, आकर
उस टीले को खोज लिया जहां मां भवानी की पिंडी दबी हुई थी। गांव वालों
की सहायता से उस स्थान की खुदाई आरंभ हुई। अंतत: लोगों को सदियों
उपरांत मां की पावन पिंडी के दर्शन प्राप्त हुए। गांव के नंबरदार की
सहायता से उसी स्थान पर माता के मंदिर का निर्माण किया गया।
वर्तमान में यह हथीरा गांव कुरुक्षेत्र के प्रसिद्ध ब्रह्मसरोवर से
किरमिच जाने वाली सड़क पर किरमिच गांव से दो किलोमीटर आगे बसा हुआ है।
आज भी पांडवों द्वारा स्थापित माता की पिंडी यहां शोभायमान है। पुणे
के उसी भक्त परिवार के वंशज आज भी माता के मंदिर का प्रबंध देखते हैं।
आज यहां माता का भव्य मंदिर विराजमान है। माता को अब हथीरा देवी के
नाम से भी जाना जाता है। वर्ष में आने वाले दोनों नवरात्रों में यहां
श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। इस दौरान गांव में मेले का आयोजन
किया जाता है। मंदिर में भगवान गणेश, भैरोंनाथ सहित शिवालय में शिव
परिवार भी स्थापित किया गया है। यहां बने विशाल हवन-कुंड में समय-समय
पर यज्ञ का आयोजन किया जाता है। हालांकि यह मंदिर कुरुक्षेत्र विकास
बोर्ड के अधीन नहीं है परन्तु फिर भी गांव वालों ने इसका विकास
भली-भांति किया है। कुरुक्षेत्र तथा आसपास के क्षेत्र के कई परिवारों
में मां हथीरा को कुलदेवी के रूप में मान्यता प्राप्त है। इन परिवारों
में जब भी कोई शुभ कार्य होता है तो सर्वप्रथम माता के द्वार पर आकर
माथा टेका जाता है। जन सामान्य का विश्वास है कि जिस प्रकार माता बाला
सुन्दरी ने पांडवों की रक्षा करके उन्हें विजय दिलाई वे अपने सभी
भक्तों का कल्याण करती।
साभार : अभिनव, पाञ्चजन्य
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