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नींव के संस्कार पर इमारतें खड़ी होती हैं, मकान के संस्कार पर घर

पिताजी ने दिल्ली में जमीन खरीदी थी। उस पर मकान बनाना था। दादी ने
पूछा- "नींव की पूजा कैसे होगी?" पिताजी बोले-"हवन करवा देंगे। और
क्या?" "नहीं रे! मकान की नींव डालने की विशेष पूजा होती है। तभी तो
मकान का संस्कार बनता है। संस्कार में भेद के कारण ही एक मकान हंसता
तो दूसरा रोता दिखता है।" पिताजी को भी हंसी आ गई। बोले-"मां अब आप
मकान का भी हंसना-विसूरना देखने-सुनने लगीं।"
दादी ने पिताजी को नींव की पूजा के बारे में विस्तार से बताने की
कोशिश की। उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि वे पिताजी को नींव का मर्म नहीं
समझा पाई। वे गांव चली गईं। पंडित लालदेव मिश्र को साथ ले आईं। पंडित
जी ने पिताजी को समझाना प्रारंभ कर दिया। वे बोले- "घर, घर है। वह
झोपड़ी में हो या फ्लैट में। आलीशान हवेली में हो या बहुमंजिली इमारतों
में। कहा और समझा जाता है कि ईंट-कंक्रीट और लोहे की सरिया से बनी
दीवारों और छत से घर नहीं बनता। घर तो बनता है घर में रहने वालों के
संस्कारों से। "गृहिणी गृहम् उच्यते" भी कहा जाता है। चूंकि हर घर में
एक गृहिणी भी होती है, उसके अपने संस्कारों से घर में शांति या कलह
विद्यमान होता है। यह ठीक भी है। पर हमारी संस्कृति में मकान का भी
संस्कार होता है।" पिताजी के साथ हम सब भी सुनने की स्थिति में आ
गए।
"मकान छोटा हो या बड़ा, उसके निर्माण के पूर्व उस स्थान पर नींव डालने
की परम्परा है। पूजा पाठ करके नींव डाली जाती है। कहते हैं कि मकान की
मजबूती और उसकी आयु उसकी नींव पर निर्भर करती है। कितना और कैसा
सीमेंट, बालू और सरिया का इस्तेमाल हुआ है। कितना पानी से तर किया गया
है। कितनी धूप लगी है। पर इससे पूर्व नींव में डाली गई सामग्रियों का
भी महत्त्व है। वे प्रतीक होती हैं राष्ट्रीय संस्कार की, राष्ट्रीय
एकता की। घर को सुखी और संपन्न बनाने के सूत्रों और प्रतीकों के साथ
घर की नींव रखी जाती है। घर, मात्र तीन या तीस कमरे का मकान नहीं
होता। उसे तो संसार भी कहा जाता है। मकान बनाने के पूर्व जमीन का
संस्कार देखा जाता है। उसके संस्कार के निर्णय के बाद ही उस स्थान पर
मकान बनाने की राय बनती है। मकान पूर्ण पुरुष होता है। इसलिए जिस
प्रकार शिशु के जन्म लेने के पूर्व ही उसके अंदर विभिन्न गुणों के
बीजारोपण करने के लिए गर्भ संस्कार किया जाता रहा है, मकान की नींव
डालने के समय उसके जन्मकाल में डाले गए संस्कार से ही पूर्ण विकसित
पुरुष की कामना की जाती है।" पंडित जी ने समझाया। पिताजी ध्यान से सुन
रहे थे। दादी मुस्कुरा रही थीं। उन्हें सुखद लग रहा था कि पण्डित जी
की बातें पिताजी के अंतर्मन तक पहुंच रही थीं।
पंडित जी बोले- "हमारे छोटे-छोटे जीवन व्यवहार और संकल्प में जीवन को
सुखी बनाने का उपक्रम होता है। मकान निर्माण तो बहुत बड़ा संकल्प है।
दीर्घ जीवन का संकल्प। मकान की नींव में कलश, कौड़ी, कछुआ-कछवी, बेमाप
का कंकड़, नदी में तैरने वाले सेमाल की टहनी, मेड़ पर उगने वाले कतरे की
जड़, सात स्थानों-हथिसार, घोड़सार, गोशाला, गंगा, वेश्या के दरवाजे,
चौराहा, देवस्थान की मिट्टी डालने का विधान है। इसमें एक वास्तु पुरुष
बनाकर डाला जाता है। सोने-चांदी का नाग। यह वास्तुदोष नाशक यंत्र होता
है। हरी मूंग और गुड़ भी डालते हैं।
उपरोक्त सभी वस्तुएं जोड़कर नींव में डाली जाती हैं, उनका प्रतीकात्मक
अर्थ है। उस मकान में रहने वालों को सुखी, संपन्न, रोगमुक्त, दीर्घायु
और यशस्वी बनाने के प्रतीक हैं। भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सोच
भी उसमें समाई होती है।
कौड़ी, पानी के अंदर रहती है। असंख्य थपेड़ों को खाकर भी घिसती नहीं। इस
वस्तु को नींव के अंदर रखने का अभिप्राय है कि उस मकान को किसी की नजर
न लगे। कछुआ और कछवी की आकृतियां इसलिए कि कछुआ भगवान विष्णु का एक
अवतार है। उस मकान को भी कछुआ-कछवी धारण किए रहें। सुपारी और सोना भी
विष्णु का ही प्रतीक है। नाग-नागिन की आकृति डालने का अभिप्राय है कि
धरती के भीतर विराजमान नाग चक्र उस मकान को संभाले रखे। कंकड़ किसी के
उपयोग में न आई मिट्टी का प्रतीक है। नदी के जल पर उगा सेवाल किनारे
को पकड़े रहता है। कितना भी झंझावात आए वह बहता नहीं। मकान को
झंझावातों से बचाने के लिए सेवाल की डांट रखी जाती है।
मेड़ों पर उगी दूब का वंश कभी समाप्त नहीं होता। इसलिए दूब की जड़ नींव
में रखी जाती है। मूंग और कच्चा दूध डाला जाता है। मूंग में औषधीय गुण
हैं। प्रतिदिन एक मुट्ठी मूंग खाने से शरीर स्वस्थ्य रहता है। गुड़ तो
मीठेपन का प्रतीक है ही। दुग्ध डालने का अभिप्राय यह कि घर में कभी
गोरस की कमी न हो। उपरोक्त सारे प्रतीक जीवन को सुखमय और संस्कारी
बनाने वाले हैं। इसलिए तो मकान की नींव को ही संस्कारी बनाया जाता
है।
पंडित जी ने नींव में डाली जाने वाली सामग्रियों का प्रतीकात्मक अर्थ
समझाकर पिताजी अपनी मां की ओर देखा। बोले-"ठीक है, आप इन सारी चीजों
को इकट्ठा करवाएं। हम विधि विधान से ही नींव डलवाएंगे। आखिर हम ऐसा ही
मकान बनवाना चाहते हैं जिसमें रहने वाले दीर्घायु और सुखी-संपन्न
हों।"
दादी बहुत प्रसन्न हो गईं। उनमें से बहुत सी सामग्री पंडित जी ही लाने
वाले थे। दादी ने नाग-नागिन और कछुआ-कछवी (धातु के बने) अपने गांव के
सुनार से ही बनवाए।
पंडित जी ने बहुत सोच-समझकर तिथि और मुहूर्त निश्चित कर दिया था। वे
एक दिन पूर्व ही शहर आ गए। तभी जमीन की साफ-सफाई करवा दी गई थी। गोबर
से लिपवाना था। गोबर ढूंढ़ना भी कठिन कार्य था। पर दादी की आज्ञा थी।
पिताजी को माननी पड़ी। सुबह से दादी सभी सामान को धो रहीं थीं। पिताजी
के लिए एक पीली धोती गांव से ही लाई थीं। पिताजी ने पहन ली। हम लोग
जमीन पर पहुंचे। पंडित लालदेव मिश्र समझ गए थे कि पिताजी विस्तार से
रस्म की जानकारी चाहते हैं। इसलिए वे नींव डालने की तैयारी करते-करते
पिताजी को पूजा की विधि और मर्म समझाते रहे।
पंडित जी पांचों ईंटों में कलेवा लपेट कर रख रहे थे। बोले-"अब हम पूजा
प्रारंभ करेंगे।" उन्होंने कलश, कौड़ी, कछुआ-कछवी, बेमाप का कंकड़,
सेवाल, दूब की जड़, सात जगहों की मिट्टी और गंगा की दोमट मिट्टी को
अंदर गड्ढे में रखा। ईशान कोण से ईशान कोण तक कच्चा दूध गिराया। वैसे
ही खैर की लकड़ी की खूंटी रखी। पश्चिम दिशा में कौड़ी और कछुआ-कछवी को
कौड़ी के आसपास रखा। कलेवा लपेटी हुई पहली ईंट पूरब दिशा में रखी।
बोले-"ओम नन्दा इव नम:"।
सफेद तिल डाला। उत्तर दिशा में दूसरी ईंट - ओम भद्रा इव नम:। तीसरी
दक्षिण दिशा में - ओम जया इव नम:। चौथी पश्चिम दिशा में - ओम रिक्ता
इव नम:। और पांचवीं बीच में - पूर्णइव नम: उच्चारण के साथ।
उन्होंने शांतिपाठ किया। मिट्टी से नींव को ढंक दिया गया। दादी बहुत
प्रसन्न थीं। प्रसन्न तो हम भी थे। पिताजी मुस्कुरा रहे थे। मानो कह
रहे हों - "हमारे बीच मां का रहना कितना आवश्यक है। हम तो अब भी बहुत
बातों से अनभिज्ञ हैं।"
बात पुरानी हो गई। दादी और पिताजी भी नहीं रहे। उस घर में आज भी
सुख-शांति और समृद्धि है। दोनों भाइयों के बीच मेल-मिलाप भी। जब कभी
मायके जाती हूं, सुखद लगता है। पंडित जी की बातें स्मरण हो आती
है-"नींव के संस्कार पर इमारतें खड़ी होती हैं। मकान के संस्कार पर
निर्भर करता है घर का संस्कार।" कितनी गहरी सोच। तभी तो हमारी
संस्कृति भी गहरी धंसी है हमारी मिट्टी में।
मृदुला सिन्हा, नींव का संस्कार
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