उच्चतम न्यायालय ने राजधानी के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में योग गुरू बाबा रामदेव के समर्थकों पर हुए पुलिस लाठीचार्ज में गंभीर..

कंधमाल (ओडिशा) 2008, जन्माष्टमी के दिन स्वामी लक्ष्मणानंद
सरस्वती की अमानुषिक रूप से हत्या की गई थी। उस घटना को चार साल होने
को आए, लेकिन असली अपराधियों को सजा दिए जाने के बजाय करीब 20 हजार से
ज्यादा हिन्दुओं पर मुकदमे ठोंक दिए गए हैं। चर्च समर्थित माओवादी
षड्यंत्र की साफ झलक के बावजूद हिन्दुओं को ही सताया जा रहा है। इससे
कंधमाल में आज भी दहशत का माहौल है। स्वामी जी और उनके कई भक्तों की
बर्बर हत्या के निशान अब भी मौजूद हैं। जलेसपेटा आश्रम में शंकराचार्य
संस्कृत विद्यालय का काम देख रहीं सस्मिता दीवारों पर गोलियों के
निशान दिखाते हुए मानो रो रही थीं। कमरे में स्वामी जी की चारपाई और
उनके प्रयोग में आने वाला सारा सामान उसी प्रकार रखा था। टूटा हुआ
दरवाजा भी वैसे का वैसा था। कमरे के बाहर झोपड़ीनुमा स्थान की ओर
संकेत करते हुए जब मैंने पूछा कि, यह किसका स्थान है, तो सस्मिता ने
बताया कि यह स्वामी जी की समाधी है।' मुझे हैरानी हुई। स्वामी जी का
संस्कार तो उनके दूसरे, चकापाद आश्रम में हुआ था जो जलेसपेटा से लगभग
100 कि.मी. दूर है। दरअसल, कंध लोग स्वामी जी की देह को जलेसपेटा से
चकापाद ले गए थे और वहीं उनको भू समाधी दी गई थी। सस्मिता का कहना था
कि जलेसपेटा के लोग उसी समाधी की कुछ मिट्टी यहां ले आए थे और उसी को
यहां रखकर समाधी बनाई गई है। कंध समाज को विश्वास नहीं होता कि स्वामी
लक्ष्मणानंद सरस्वती अब उनके बीच नहीं हैं।
लगभग 40 वर्ष पूर्व जब लक्ष्मणानंद सरस्वती चकापाद पहुंचे थे, तब
स्थानीय बिरुपाक्ष महादेव मन्दिर ने उन्हें स्थाई रूप से यहीं का बना
दिया था। जिस वक्त स्वामी जी कंधों के उस इलाके में पहुंचे उस वक्त
चकापाद का बिरुपाक्ष शिव मन्दिर एक झोपड़ी तक ही सीमित था। कहते हैं
रावण जब शिवजी को लेकर जा रहा था तो इस स्थान पर उसने महादेव को जमीन
पर रख दिया था, तब से बिरुपाक्ष महादेव चकापाद में ही रहे हैं। स्वामी
जी कंधों के इस आराध्य देव को समर्पित हो गए। आज चकापाद के तीनों
महादेवों-बिरुपाक्ष, आनन्देश्वर और देवेश्वर- के भव्य सुन्दर मन्दिर
बने हुए हैं। लेकिन ये बहुत बाद की कहानी है। 1970 में जब स्वामी जी
ने इस चकापाद में गुरुकुल स्थापित किया था तब यहां घना जंगल था। उस
समय के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक श्री रघुनाथ सेठी भी
फिरंगिया में बस से उतर कर कंधमाल के जंगलों में गुम हो गए थे और
स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती को खोजते-खोजते चकापाद पहुंचे थे। पूरे
कंधमाल में कंधों के पास सुनाने के लिए स्वामी जी से जुड़ी अनेक
कथायें हैं।
खेती की प्रेरणा: अध्यात्म की बात तो वे उनसे
कभी-कभार ही करते थे। वे तो उनको बताते थे कि सबसे उत्तम काम है खेती
करना इसलिए खेती करो। कंधों के लिए यह अनोखी बात थी। खेती का
थोड़ा-बहुत काम तो वे जानते ही थे, पर जंगल में आग लगाकर साफ की भूमि
पर कुछ बीज डालकर निश्चिन्त हो जाते थे। स्वामी जी ने उनको हल चलाना
सिखाया, वृक्ष लगाने के लिए प्रेरित किया और जंगल को जलाने से रोका।
कंधों का ज्यादातर समय या तो जंगल से कंद-मूल उखाड़ते बीतता था या
शिकार करते या फिर मद्यपान में बीतता था। स्वामी जी उन्हें मद्यपान के
नुकसान समझाते थे और उससे रोकते थे। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती ने
लड़कियों को शिक्षित करने की प्रेरणा देने के साथ-साथ कंध परिवार की
लड़कियों में जंगल और खेती के लिए आवश्यक गुण भी विकसित किए। जलेसपेटा
आश्रम में सस्मिता दसवीं कक्षा की कुछ लड़कियों को लेकर आईं हैं जो
यहां के छात्रावास में ही रहती हैं। उन बच्चियों ने गीता के श्लोकों
का समवेत् स्वर में गान किया। सस्मिता बताती हैं कि इन
लड़कियां को गीता के अठारह अध्याय कंठस्थ हैं।
स्वामी जी आश्रम में खुद खेती करते थे, हल चलाते थे। कंध लोग जब उनसे
मिलने आते थे तो वे स्वयं उन्हें भोजन कराते थे। कंध परिवारों में
सब्जी बनाने की परम्परा शायद स्वामी जी की प्रेरणा से शुरू हुई।
स्वामी जी ने जलेसपेटा में जलेश्वर महादेव का मन्दिर बनवाया और उसमें
कंध लोगों को ही पुरोहित बनवाया। बरसात के दिनों में झरनों को संचित
किया और अनेक स्थानों पर चैक डैम
बनवाये।
स्वामी जी का मानना था कि कंधमाल के लोगों को
सबसे पहले आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना पड़ेगा तभी अध्यात्म की बात
की जा सकती है। कंधमाल में रहने वाले कंधों और पाणों को वे अलग नहीं
मानते थे। उनकी दृष्टि में ये दोनों ही वनवासी थे। स्वामी जी कहा करते
थे, दुनिया में सिर्फ दो ही जातियां हैं, एक पुरुष जाति और दूसरी
स्त्री जाति।
चर्च का गोरखधंधा: स्वामी जी के कंधमाल आने से कंध
और पाण समाज का भविष्य तो बदलने लगा, लेकिन इससे चर्च की रणनीति
गड़बड़ाने लगी। चर्च के निशाने पर कंधमाल 1850 के आस-पास ही आ गया था।
भारत के अन्य प्रान्तों में शायद कंध और कंधमाल की इतनी चर्चा नहीं
होती, लेकिन ओडिशा में कंधमाल और कंधों की चर्चा कोई नई बात नहीं है।
भारतवर्ष में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ी गई आजादी की पहली लड़ाई से भी
लगभग दो दशक पहले कंधों के सेनापति दोरा विशोई ने अंग्रेजी शासन के
खिलाफ युद्ध का बिगुल फूंका था। अंग्रेजों के खिलाफ कंधों की यह लड़ाई
दोरा के पौत्र चक्रा विशोई तक जारी रही। इस युद्ध में न जाने कितने
कंध वीरों नें शहादत प्राप्त की। यहां तक कि लंदन
में भी कंधों की चर्चा होने लगी थी। कंधों द्वारा अंग्रेजी
शासन के खिलाफ छेड़ा गया वह संघर्ष चक्रा विशोई के बाद भी चलता रहा।
यह अलग बात है कि उसका रूप बदल गया। इसी काल में अंग्रेजी शासन का
हरावल दस्ता बन कर आईं ईसाई मिशनरियों ने कंधमाल में मोर्चा संभाला।
वे कंधों को लालच से अंग्रेजी शासन के पक्ष में करने का प्रयास करने
लगे। यहीं से कंधमाल में मतान्तरण का गोरखधंधा चालू हुआ। राईकिया के
पास मंडासुर गांव में 1938 में पहला चर्च स्थापित हुआ।
कंध ईसाई मिशनरियों के लालच में नहीं फंसे तो चर्च ने घूमुसर रियासत
के भंजनगर से निष्कासित पाणों को अपना निशाना बना लिया। पाण चर्च की
साजिश का तेजी से शिकार होने लगे। इसी काल में स्वामी लक्ष्मणानंद
सरस्वती कंधमाल आए थे। कंधों को अब एक नया आदर्श प्राप्त हो गया था और
चर्च के जाल में फंसते पाण वापस आने लगे थे। स्वामी जी की आर्थिक
योजनाओं से कंधों में एक नया आत्मविश्वास भी पैदा हो गया था। उपेन्द्र
प्रधान मेरे साथ कंधमाल में अनेक स्थानों पर गए। स्वामी जी का स्मरण
करते हुए वह कहते हैं- लक्ष्मणानंद सरस्वती जी साधारण भगवा कपड़े
पहनने वाले साधुओं की तरह नहीं थे, वे तो यहां के लोगों के हर सुख-दुख
के साथी थे। उनका दर्जा ग्राम देवता का हो गया था। गांव की समस्याएं
सुलझवाने के लिए वे जिलाधीश के दफ्तर के बाहर धरने पर बैठ जाते थे।
चर्च सरकारी मिशनरी के साथ मिलकर जनजाति के नकली प्रमाण पत्र बना लेता
था और उनके माध्यम से कंधों की जमीन पर कब्जा कर लेता था। स्वामी जी
ऐसे मौके पर राजस्व अधिकारियों के कार्यालयों के बाहर जन प्रदर्शन की
अगुआई करते थे। स्वामी जी के रहते कंधों को लगता था कि उनका भी कोई
सुनने वाला है। लेकिन उनके विदा हो जाने के बाद कंधमाल के लोग अपने
आपको अनाथ मान रहे हैं।
सुधार की नई राह: कतिंगिया के रहने वाले मानगोविन्द
प्रधान यह तो मानते हैं कि स्वामी जी के जाने के बाद कंधमाल के लोग
अनाथ महसूस करते हैं, लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं कि स्वामी जी अपने
जीतेजी ही कंधमाल के लोगों में इतनी ऊर्जा का संचार कर गए हैं कि अब
कोई यहां के लोगों के साथ अन्याय नहीं कर सकता। कतिंगिया में सहकारी
समिति के सचिव शिवराम दिगाल बताते हैं कि समिति का गठन स्वामी जी की
प्रेरणा से ही हुआ। स्वामी जी का कहना था कि किसान अपनी उपज अपनी ही
सहकारी समिति के माध्यम से बेचेगा तो उसका सारा लाभ उसे मिलेगा, बीच
के दलाल गायब हो जाएंगे। कतिंगिया में ही अमृत परिवार के आभा जी सभी
सम्प्रदायों के अनुयायियों, जैसे रामानंदी, शाक्त, वैष्णव इत्यादि को
एकत्रित करके उन्हें दीक्षा देते हैं। जाहिर है, दीक्षा के बाद सभी
शाकाहारी बन जाते हैं। अमृत परिवार ने स्थानीय बोली में गीता का
अनुवाद भी किया है और यह सारी प्रेरणा उन्हें स्वामी लक्ष्मणानंद
सरस्वती से ही मिली। 1969 में स्वामी जी ने चकापाद में शिवरात्री
महोत्सव का वार्षिक आयोजन शुरू किया था और अमृत परिवार के आभा जी अब
भी शिवरात्रि पर चकापाद ही जाते हैं।
चर्च यहां के ही लोगों को मतान्तरण के बाद धरणीपेनु के खिलाफ बोलने के
लिए कहता है। धरणीपेनु यानी धरती माता। धरणीपेनु को तो कंध और पाण
दोनों ही पूजते हैं। दोनों एक साथ रहते हैं जो कभी-कभार आपस में लड़ते
भी हैं, लेकिन फिर मिल जाते हैं। लाईनपाड़ा में 1994 में शिव मन्दिर
के स्थान को लेकर झगड़ा हुआ, लेकिन फिर समाप्त भी हो गया। लाईनपाड़ा
में तो आज तक कंध और पाण का फिर झगड़ा नहीं हुआ, लेकिन बाहर से आए
ईसाई मिशनरियों के लोग इन दोनों में झगड़ा करवाने की कोशिश करते रहते
हैं। स्वामी जी ने चर्च के इन षड्यन्त्रों को बेनकाब कर दिया था।
मानगोविन्द गुस्से में कहते हैं कि सरकार चर्च
वालों से क्यों नहीं पूछती कि केरल से जो नन और पादरी बनकर आ रहे हैं
उनको पैसा कौन दे रहा है? नुआ गांव में दिव्य ज्योति पादरी प्रशिक्षण
केन्द्र और जन विकास समिति के करोड़ों रुपये के भवन कैसे बन गए? जिस
गांव की आबादी 1000 है, उसमें महल जैसा पादरी प्रशिक्षण केन्द्र क्या
कर रहा है?
सत्संग की प्रथा: तेंतुलीगुडा में सत्संग हो रहा था।
सत्संगों की यह प्रथा कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती ने ही
डाली थी। स्वामी जी की हत्या के बाद भुवनेश्वर के कोई आर्चबिशप राफेल
सर्वोच्च न्यायालय चले गए थे, उनका कहना था कि कंधमाल में बहुत से
चर्च लोगों ने जला दिए हैं और ईसाइयों के घर भी जलाए गए हैं। आर्चबिशप
का कहना था कि यह सब कुछ स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जी की हत्या के
बाद कंधमाल के लोगों द्वारा किया गया है। न्यायाधीश ने पूछा कि सरकार
क्या कर रही है? उसके बाद कंधमाल में पुलिस द्वारा एफ.आई.आर. दर्ज
करने का महा अभियान शुरू हुआ। कुछ लोगों का तो कहना है कि मतदाता
सूचियां उठा कर उनके नामों के आधार पर एफ.आई.आर. दर्ज कर ली गईं।
'फास्ट ट्रैक कोर्ट' के बाहर एक कंध गुस्से में कहता है, 'सब ड्रामा
है'। अपने आपको ऑल इण्डिया क्रिश्चियन काउंसिल का महासचिव कहने वाले
जान दयाल से सरकार पूछताछ करे तो कंधमाल में सब कुछ शांत हो जाए। इन
मुकदमों में लगभग 20 हजार लोग फंसे हुए हैं। फौजदारी
मामले हैं इसलिए किसी न किसी तारीख पर कचहरी में आना ही पड़ता है। एक
आंकड़े के अनुसार, 782 मामले दर्ज हुए हैं, उनमें से 320 समाप्त हो
चुके हैं। सैकड़ों लोगों को सजा हो चुकी है। वातावरण ऐसा भी बना हुआ
है कि यदि सजा न दी गई तो शायद सांप्रदायिकता फैलाने का ठप्पा न लग
जाए। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती पर 8 बार जानलेवा हमले किए गये, वे
चाहते तो 'संतुलन' का रास्ता सीख सकते थे, लेकिन उन्हें तो धर्म के
रास्ते पर चलना था। धर्म का रास्ता 'संतुलन' का रास्ता नहीं होता,
सत्य का रास्ता होता है।
अब कंधमाल के लोगों को अपनी शक्ति से आतंकित करने के लिए ही शायद चर्च
इस चर्चा को देश से बाहर भी ले गया है। उसी की योजना से एक यूरोपीय
प्रतिनिधिमंडल इस जिले में चक्कर काट गया है। ओडिशा सरकार ने तो उसके
आगे अपने सारे नौकरशाह हाजिर कर दिए। परन्तु जब ये लोग फूलबनी में
मुकदमों की सुनवाई कर रहे जजों से मिलने की भी जिद करने लगे तो कचहरी
के वकीलों ने उसका कड़ा विरोध किया और उनको जजों से नहीं मिलने दिया
गया।
रेवेंशा विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान पढ़ाने वाले गौरीशंकर साहू
का कहना है, जो कंध अंग्रेजों के छक्के छुड़ाते रहे, वे चर्च की
यूरोपियन यूनियन से क्या डरेंगे। लेकिन असली खतरा तो अपने राधाकांत
नायकों से है, अपने जान दयालों से है। उधर फूलबनी में चर्चा है कि
चक्रा विशोई की मूर्ति के साथ स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की मूर्ति
भी लगाई जाएगी। स्वामी जी ने कंधमाल को एक नई पहचान दी है, सत्संग
दिया और नया संस्कार दिया है। इसमें संदेह नहीं कि तेंतुलीगुडा में
हजारों की संख्या में सत्संग में आने वाले कंध और पाण स्वामी जी की
स्मृति और उनके दिखाए मार्ग को संजोए रखेंगे।
पाञ्चजन्य
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