छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता : तुम रहम नहीं खाते बस्तियां जलाने में!

Published: Wednesday, Dec 14,2011, 00:11 IST
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छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता, Pankaj Jha, Chhattisgarh, Chhattisgarh reporters, IBTL

हाल के वर्षों में, खास कर भूमंडलीकरण के बाद भारत में जिस पेशे को सबसे ज्यादा गिरावट के लिए याद किया जाएगा वह है पत्रकारिता. कभी पवित्र गाय की तरह माना जाने वाले इस पेशा ने कितनी ज़ल्दी तरह-तरह के जानवरों में बदलते-बदलते भेड़िया तक का रूप धारण कर लिया, सोच कर शर्मसार हो जाना पड़ता है.

अपने पत्रकार साथी की हत्‍या का षड्यंत्र रचने में गिरफ्तार मुंबई की क्राइम रिपोर्टर जिगना वोरा प्रकरण के बाद तो ऐसा लगता है कि अब दौड़ केवल ‘उ ला ला उ ला ला’ पत्रकारिता का ही रह गया है, जहां अधिकतर पत्रकार सिल्क स्मिता हैं तो उसका मालिक सूर्यकांत. जहां पत्रकार थोड़ा ऊंचा उड़ने के लिए हर तरह की गिरावट क़ुबूल करने को तैयार हैं वहीं उसका मालिक चंद कागज़ के टुकड़े और एक बाय-लाइन का लोभ दिखा कर उससे कुछ भी वसूलने-कहलाने-उगलवाने को तैयार व्यवसायी.

हाल में जस्टिस मार्कंडेय काटजू के मीडिया संबंधी बयान ने भले ही मीडिया की आज़ादी पर खतरा करार दे दिया गया हो लेकिन कोई भी निष्पक्ष विश्लेषक यह कहना चाहेगा कि कुछ भी तो गलत नहीं कहा था काटजू ने. बकौल काटजू ‘भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जनता के हितों को पूरा नहीं करता. वास्तव में, इनमें से कुछ निश्चित ही जन-विरोधी हैं.’ काटजू से भी आगे जा कर कहना तो ये उचित होगा कि आज का मीडिया न केवल केवल जनविरोधी बल्कि बाज़ारू हो जाने की हद तक बिका हुआ भी है. बहरहाल.

संस्कृति और सहिष्णुता के प्रदेश छत्तीसगढ़, यूं तो हमेशा से न केवल नायाब पत्रकारिता का उदाहरण पेश करता रहा है बल्कि कई बार तो इस मामले में इसने देश को दिशा दिखाने का भी काम किया है. जब गुलाम भारत के अधिकांश राजे-रजवाड़े पत्र-पत्रिकाओं का नाम भी नहीं सुन पाए रहे होंगे उस समय प्रदेश के एक छोटे से कसबे से ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन कर स्व. माधवराव सप्रे ने वास्तव में आज विशाल वटवृक्ष बन चुके इस समाचार जगत का बीजारोपण किया था. ये वो समय था जब सच्चे अर्थों में अखबार, तो़प के मुकाबिल ही हुआ करती थी. जब किसी संपादक का वेतन उसे छह महीने या साल भर जेल की सज़ा के रूप में मिल सकता है, ऐसा विज्ञापित होने पर भी उस कांटों का ताज पहनने को अपनी अच्छी कमाई-धमाई का काम छोड़कर विद्वतजन पिल पड़ते थे.

तो प्रदेश ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ से लेकर ‘छत्तीसगढ़’ तक पत्रकारिता के विभिन्न आयामों को छुआ है, समेटा है, नया मानदंड तय किया है. लेकिन कई बार यहां की संस्कृति से सरोकार या कम से कम, स्नेह भी नहीं रखने वाले कुछ पत्रकारों ने प्रदेश को लांछित करने का भी काम किया है. प्रदेश बन जाने के बाद यहां ऐसे तीन ऐसी मुख्य वाकये का जिक्र किया जा सकता है जब सम्प्रेषकों ने शोषक की भूमिका अख्तियार कर मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ दी थी. पहले एक साहित्यिक कहे जाने वाले पत्रिका द्वारा प्रदेश के सबसे ख़ूबसूरत अंचल बस्तर को हबशियों का स्वर्ग बता कर खुद के विश्वासघात को महिमामंडित करना. दूसरा एक राष्ट्रीय कहे जाने वाले चैनल द्वारा एक नकली एमएमएस दिखा कर उसे एक उभरती नेत्री से जोड़ कर बताते हुए नाहक चरित्र हनन का प्रयास करना और तीसरा उदाहरण हाल के एक समाचार पत्र के गिरोह का सामने आ रहा है, जब पत्रकार और उसके मालिकों ने खुद को ही वादी, वकील, जज, जांच एजेंसी, विपक्ष आदि घोषित कर दिया है. उक्त अखबार रोज न केवल सनसनी बेचने का कार्य कर रहा है अपितु एक चुनी हुई लोकप्रिय सरकार को अस्थिर करने के षड्यंत्र में भी प्राण-पण से जुटा हुआ है.

मामला पड़ोसी राज्य के खनिज मामलों से जुड़ा है. किसी को भी जान कर हैरत हो सकता है कि शायद यह पहला ऐसा अनूठा मामला हो जहां दूसरे राज्य में प्रायोजित हुए मामले पर उस राज्य के शासन पर सवाल खड़ा करने के बदले पड़ोसी छत्तीसगढ़ की सरकार को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है. अगर कोई कथित घोटाला हुआ होगा तो ज़ाहिर है वहां के संबंधित मंत्री या मुख्यमंत्री पर सवाल उठाये जाने चाहिए थे, लेकिन अपना निहित स्वार्थ पूरा न होने के कारण, सरकार को ब्लैकमेल न कर पाने पर कोई अखबार इस तरह भी अपनी खीज निकाल सकता है, सोच कर किसी को अपने पत्रकार होने पर शर्मिन्दा ही होना पड़ सकता है. आज उस बदतमीज अखबार द्वारा बेल्लारी से भी बड़ा खनन घोटाला करार दिए जा रहे इस पूरे वाकये को आप अखबार के किसी कोने में एक कॉलम की खबर के रूप में ही पढ़ना चाहते. आलोच्य अखबार और एक दो टके के चैनल को छोड़ दोनों प्रदेश के सभी समाचार माध्यमों ने तो इस कथित बड़े भंडाफोड़ को एक कॉलम की औकात लायक भी नहीं समझा है. तो क्या ये माना जाय कि सारे अखबार बिके हुए हैं और केवल इसी एक अखबार ने पत्रकारिता की लाज बचा कर रहा हुआ है? इस चुटकुले पर हंसने की बजाय खीझिये, गुस्सा कीजिये और ये भी जानते हुए चलिए कि केवल और केवल अपना स्वार्थ पूरा नहीं होने के कारण इस अखबार ने सरकार की सुपारी ली है. क्या और किस तरह वह समय आने पर सबूतों के साथ बताना समीचीन होगा.

पहले पूरे घटनाक्रम पर गौर करें. मध्यप्रदेश विधान सभा के एक सदस्य ने सदन में नियमित मामले की तरह एक विषय उठाया कि प्रदेश के एक जिले में खनिज आबंटन में भ्रष्टाचार किया गया है. साथ ही उसने ये भी जोड़ दिया कि पड़ोस के एक राज्य के प्रभावशाली नेता ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर अपने रिश्तेदार को यह ठेका दिलाया है. अब पत्रकारिता की सामान्य समझ रखने वाले लोग भी समझ सकते हैं कि इस खबर की अहमियत कितनी है. सामान्य समझ रखने वाले ही क्या, सभी अखबारों ने इस रिपोर्ट के साथ ऐसा ही डील किया जैसे किया जाना चाहिए. लेकिन पहले से ही खार खाए, मौके की तलाश में बैठे उस अखबार को तो मानो मुंह मांगी मुराद मिल गयी. उस ‘प्रभावशाली नेता’ को दो टुक प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में इंगित करते हुए पहले दिन बैनर और फिर लगातार फोलो-अप छाप-छाप कर, विपक्षी दलों द्वारा भी जैसा कार्टून छापने से परहेज़ किया जा सकता है वैसे-वैसे कार्टून छाप-छाप कर आसमान सर पर उठा लिया गया. फिर विरोध होना भी लाजिमी था. भाजपा के कार्यकर्ताओं ने अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए अखबार की प्रतियां जलाना शुरू कर दिया. नेतृत्व द्वारा अपने युवा कार्यकर्ताओं को कुशलता से सम्हाल लिया गया नहीं तो कुछ अप्रिय वारदातों से भी इनकार नहीं किया जा सकता था. खुद मुख्यमंत्री ने आहत होकर अखबार के विरुद्ध कानूनी कारवाई करने, देख लेने की बात कही.

तो आखिर ऐसी प्रतिक्रया क्यूं कर न हो? प्रेस अगर, आम आदमी को संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आज़ादी का बेजा इस्तेमाल अपने स्वार्थों के लिए कर सकता है तो राजनीतिक दलों को अपने विरोध प्रदर्शनों का संवैधानिक-कानूनी हक इस्तेमाल करने में क्या बुराई है? अगर कोई अखबार अभिव्यक्ति पर लगे संवैधानिक प्रतिबंधों का दुरुपयोग करता पाया जाता है तो उसे निश्चित ही हर संभव लेकिन सही तरीके से सबक सिखाने की ज़रूरत है ही. राजनीति की काल कोठरी में बड़ी मुश्किल से खुद को सफ़ेद रख पाए नेता के इस तरह चरित्र हनन पर बसीर बद्र का शेर याद आता है ‘लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, तुम रहम नहीं खाते बस्तियां जलाने में.’ खैर.

निश्चय ही लोकतंत्र में विरोध दर्ज करने की आज़ादी सबको है. मीडिया का भी यह अधिकार और कर्तव्य दोनों बनता है कि वह अपने नीर-क्षीर विवेक के अनुसार सरकार के किसी गलत कदम की आलोचना ( लेकिन सही कदम की तारीफ भी) करे. मोटे तौर पर द्वि-दलीय व्यवस्था वाले प्रदेशों में सत्ता या मुख्य विपक्षी पार्टी दोनों में से एक रहने का विकल्प हमेशा है. इसीलिए नेताओं को जितनी यहां सत्ता की चिंता नहीं उससे ज्यादा मीडिया को अपनी विश्वसनीयता की चिंता करना ज़रूरी है. उसे यह याद रखना होगा कि सत्ता चाहे किसी की रहे उसे तो विज्ञापन के रूप में सत्ता की जूठन पर ही पलना है. तो अपने अखबार को अखबार ही रहने देना श्रेयष्कर है. उसे ‘डर्टी पिक्चर’ बना कर बेचने का परिणाम तो सिल्क स्मिता की तरह ही होना है कि जब आत्महत्या भी करना पड़े तब भी दर्शकों के पास बजाने को ताली ही होगा न कि संवेदना-सहानुभूति के दो शब्द. आलोच्य मीडिया के लिए यह सबक सीखना किसी ‘एजेंडा सेटिंग थ्योरी’ को सीख लेने से भी ज्यादा ज़रूरी होगा.

लेखक पंकज झा भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हुए हैं. इन दिनों रायपुर से प्रकाशित छत्तीसगढ़ भाजपा की पत्रिका दीप कमल के संपादक के रूप में कार्यरत हैं.

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