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आज 27 फरवरी है, आज ही के दिन (27 फरवरी 1931) चंद्र शेखर आजाद ने
वह निर्णय लिया जिसने उन्हें अमर कर दिया| आज के दिन भांति
भांति के विचार आपके भी मन में आ रहें होंगे – कहीं समाचारपत्रों या
टीवी चैनलों पर इनका कोई ज़िक्र न होने का क्रोध होगा तो कहीं युवा
पीढ़ी की हमारे शहीदों के प्रति उदासीनता मानस को बींध रही होगी| इसी
क्रम में मेरे मन भी कुछ विचार आये जिन्हें मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा
हूँ | यह विचार ना किसी गूढ़ मनन का परिणाम हैं और ना ही किसी शोध का|
ये एक सामान्य नागरिक के उदगार हैं जिनमें यदि एक ओर व्यथा है तो
दूसरी ओर युवाओं से अंतहीन आशा भी|
आज की परिस्थितियों में जब हमारा “समाज” वास्तव में योग्य नेतृत्व
तलाश रहा है वहाँ आज़ाद आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने वह पहले थे|
इस कथन पर यदि हम विचार करें तो पातें हैं की आज़ाद उन सभी गुणों का
संग्रह थे जिन्हें हम नेतृत्व में खोजते हैं | युवा , संवेदनशील ,
निडर , निस्वार्थ , दूरदर्शिता व् अदम्य साहस जैसे गुण तो आज़ाद
में थे ही ,सभी को साथ बाँध कर रखने का माद्दा भी उनमें था | वे सरल
तो थे पर भेदियों को पहचानने की क्षमता भी उनमें थी , यही कारण था कि
लाख प्रयत्नों के बावजूद भी वे हुकूमत के हाथ नहीं आये| उनके उत्कृष्ट
नेतृत्व का उदाहरण इस तथ्य में मिलता है कि जब पुलिस ने उन्हें चारों
ओर से घेर लिया तो सबसे पहले उन्होंने इस बात को सुनिश्चित किया कि
कोई उनके साथ न रहे| और सभी के चले जाने के बाद ही उन्होंने गोली
चलाई| अपनी कसम का पालन करते हुए उन्होंने आखिरी गोली से अपने ही
प्राण ले लिए ताकि अँगरेज़ उन्हें जीवित ना छूने पाएँ | इस प्रकार की
मूल्यों को अपने जीवन में आत्मसात करने वालों के साथ क्या हम न्याय कर
रहें है, जब हम देखते हैं की हम उनके प्रति बहुधा उदासीन ही हैं|
सर्वप्रथम यह सोचने की आवश्यकता है की इन शहीदों के लिए इतनी “व्यापक”
उदासीनता क्यों? क्या कारण है की उनका स्मरण करने के लिए भी हम सोच
विचार करते हैं? क्यों किसी का साहस हो आता है की इन शहीदों को,
जिन्होंने अपने प्राण देश के लिए न्यौछावर कर दिया, “आतंकवादी” कह कर
बुलाया जाए और एक बड़ा शिक्षित समाज उसे अपनी मूक सहमति प्रदान करे?
यह कौन सी व्यवस्था है जहाँ देशप्रेम और देशद्रोह में भेद नहीं किया
जाता? जहाँ शहीदों को पार्टी,जाति , धर्म और विचारधारा के मानदंडों पर
बांटा जाता है? जहाँ सिर्फ सदरी,कुरता, पायजामा व् टोपी पहने हुए लोग
देशभक्त, राष्ट्रप्रेमी जैसे संबोधनों से नवाज़े जातें हैं?
कारण है हमारी वर्तमान व्यवस्था का, चाहे वह शिक्षा हो या प्रशासन,
ब्रितानी व्यवस्था का हुबहू प्रतिबिम्ब होना| अँगरेज़ चले गए तो क्या
हुआ, व्यवस्था तो वही है! अपनी कुर्सियों में वह हमें बिठा कर चले गए,
जो “उन्हीं के” नियमों , “उन्हीं की” सोच का अक्षरशः पालन करते हैं|
ऐसी स्थिति में आज यदि हम “खुलकर” अपने शहीदों को नमन नहीं करते या
उनका सम्मान व् स्मरण करने से कतरातें हैं तो उसका दोष किसे दें? यह
ब्रितानवी व्यवस्था कभी नहीं चाहेगी की हमारे आराध्य ऐसे वीर हों
जिन्होंने भारत माँ को आतताइयों से मुक्त करने हेतु शस्त्र उठाये थे|
ये कभी नहीं चाहेगी की बन्दूक व् बम के इतर हम इन शहीदों के बारे में
कुछ जान पाएँ| इस व्यवस्था का पूरा ध्यान इस ओर केंद्रित रहेगा की
स्वतंत्रता संघर्ष की अवधारणा को ही बदल दिया जाए और आने वाली नस्लें
केवल यही जानें और मानें की स्वतंत्रता केवल “अनशन” व् “आग्रह” द्वारा
प्राप्त हुई, और इस पूरे संघर्ष के दौरान अंग्रेजी हुकूमत का भारतीयों
के प्रति व्यवहार अत्यंत ही स्नेहपूर्ण रहा| इस कथन का प्रमाण मिलता
है हमें अपनी पुस्तकों में जहाँ उनके अमानवीय आचरण व् रक्तपात को या
तो हटा दिया है या इतना संक्षिप्त कर दिया है जा रहा है कि उनकी
पाशविकता के ओर कहीं भी ध्यान नहीं जाता| और हमारा भविष्य यानि हमारे
युवा व् बालक तो इन्हीं पुस्तकों से “ज्ञान” प्राप्त कर रहें हैं ,
धारणाएँ बना रहें है तो यह निश्चित है की उनके मानस में भी इन शहीदों
के लिए आदर भाव नहीं रहेगा| और गर्व होगा अपनी ब्रितानी विरासत का,
गर्व होगा “महारानी” का , गर्व होगा कॉमनवेल्थ का हिस्सा होने पर!
उपरोक्त सारी बातें एक गूढ़ योजना का परिचायक हैं जिसके अंतर्गत आज
बाहरी ताकतें यहाँ न रह कर भी हमें कठपुतलियों की तरह नियंत्रित कर
रहीं हैं | और ऐसा करने के लिए आवश्यकता है वैचारिक रूप से खोखले ,
मूक व् बधिर समाज की जो हर परिभाषा को किताबों में ही ढूँढता हो| अपना
यह उद्देश्य बहुत हद तक उन्होंने आज प्राप्त भी कर लिया है| आज शहीदों
का स्मरण हमें तभी आता है जब या तो उस दिन अवकाश हो और या अख़बारों
में, दूरदर्शन पर सिर्फ उन्हीं की चर्चा हो रही हो और यहाँ यह कहना
सही होगा कि आज़ाद, भगत सिंह, अशफाक, बिस्मिल इत्यादि तो प्रतिबंधित
विषय हो गए हैं इन माध्यमों के लिए|
पर यदि चारों ओर उदासीनता है तो क्या हमें भी उदासीन और लाचार हो जाना
चाहिए ? इन शहीदों का जीवन व् उनके मूल्य हमें व्यक्ति की सोच के
सर्वोपरि होने का भान कराता हैं| राष्ट्र के लिए हमारा गर्व व
उसपर मर मिटने की भावना हमारी सोच में ही होती है और हम अपने राष्ट्र
पर गर्व कैसे कर सकते हैं जब हम अपने देश व् उसके शहीदों के बारे में
कुछ न जानते हों ? यही नहीं हमारी लाचारी व् निराशा हमारी सोच में ही
होते हैं अतः आइये ,आज के इस दिवस हम यह प्रण करें कि अपने जीवन में
राष्ट्रप्रेम को सर्वोपरि रखते हुए हम न ही कभी लाचार होंगे ना ही
उदासीन और सदा राष्ट्र हेतु अपना सर्वस्व न्यौछावर करने हेतु प्रस्तुत
रहेंगे | यही इन शहीदों के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी|
वन्देमातरम
शैलेश पाण्डेय | लेखक से ट्विट्टर पर जुडें twitter.com/shaileshkpandey
चित्र : शहीदी स्थल, इलाहाबाद
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