भोजन की बात करें तो हम इतने भाग्यशाली है कोई दूसरा देश उसकी कल्पना नहीं कर सकता

दोपहर की शादी में थ्री पीस सूट पहनना स्वीकार, भले ही चर्म
रोग क्योँ न हो से आगे पढ़ें : भोजन के स्तर पर भी हमने बहुत अधिक
अंधानुकरण किया है। भारत का भोजन भी, हमारी जलवायु एवं आवश्यक्ता के
अनुरूप विकसित हुआ है। भारत में लाखो सहस्त्र वर्षों में जो विकास हुआ
है उसमें सबसे अधिक विकास इसी में हुआ है। पुरे विश्व में लगभग सभी
विद्वान इस पर एक मत है की भोजन पर हमने जो विविधता दी है पिछले
हजारो, लाखो वर्षों में यह भारत की एक सबसे बड़ी देन है पुरे विश्व को,
अनाज का एक प्रकार गेहूं, गेहूं यूँ तो ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका एवं
यूरोप के भी कुछ देशों में होता है किंतु भारत में गेहूं का आटा बनाया
जाता है उसके उपरांत उससे बीसियों प्रकार की कचौड़ी, बीसियों प्रकार की
पूड़ी, बीसियों प्रकार के पराठे, बीसियों प्रकार की रोटियाँ आदि बनाई
जाती है।
उसी गेहूं के आटे से यूरोप वाले दो ही भोज्य बना पाते है पाव रोटी,
डबल रोटी तीसरी रोटी बना ही नहीं सकते। उन दोनों को भी बनाने की विधि
में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं होता। सैकड़ों प्रकार के गेहूं से सैकड़ों
प्रकार के व्यंजन बनाने वाली भारतीय संस्कृति का यह दुर्भाग्य नहीं तो
और क्या है की कुछ लोग दिन की शुरुआत डबल रोटी, पाव रोटी से करते है।
विक्रय हेतु अलग अलग नामों से पावरोटी, डबलरोटी प्रस्तुत है। अब उसको
बीच में से काट कर सलाद भरलो अथवा सलाद के बीच में उसे रख उसे खा लो
बात तो एक ही है। यह डबल रोटी जो हम खाते है नयी (ताज़ी) नहीं होती है।
अगर यह नयी (ताज़ी) होती तो बनती ही नहीं वो तो बासी ही होती है। वह एक
दिन की, दो दिन की, दस दिन की बांसी हो सकती है। यूरोप, अमेरिका में
तो दो-दो तीन-तीन महीने पुरानी पावरोटी, डबलरोटी मिलती है एवं लोग
उन्ही को खाके अपना जीवन का यापन करते है।
गेहूं के आटे के बारे में विज्ञान यह कहता है की इस आटे के गीले होने
के ३८ मिनिट बाद इसकी रोटी बन जानी चाहिए एवं रोटी बनने के ३८ मिनिट
के अंदर इसे खा लिया जाना चाहिए। इस संदर्भ में डबलरोटी,
पावरोटी के बारे में क्या लिखे ? आप स्वयं ज्ञान रखते है।
हम इतने भाग्यशाली है की ऐसे देश में रहते है की कोई दूसरा देश उसकी
कल्पना नहीं कर सकता हम सुबह शाम ताज़ी सब्जियां खा सकते है एवं आपके
घर तक दरवाजे तक आ कर कोई आपको यह दे जाता है| यह स्वप्न कोई अमेरिका,
यूरोप आदि में रहने वाला देख नहीं सकता, सोच नहीं सकता कल्पना नहीं कर
सकता की प्रतिदिन सुबह-शाम कोई व्यक्ति घर तक आ कर उन्हें ताज़ी सब्जी
दे जाए, ना केवल दे जाए बल्कि हाल चाल भी पूछे "माँ जी कैसे हो आपकी
बिटिया कैसी है ?" भले ही आप सब्जी ले अथवा ना लें। ऐसा आत्मीय रिश्ता
कोई वैभागिक गोदाम (डिपार्टमेंटल स्टोर) वाला नहीं जोड़ सकता।
अब दुःख तो इस बात का है की जिस देश में हमे रोज सुबह शाम ताज़े टमाटर
मिलते है जिनकी हम सुलभता से चटनी बना सकते है। वहाँ हम महीनों पुराना
सॉस खाते है और कोई पूछे तो कहते है "इट्स डिफरेंट" ताज़े टमाटर हम ले
तो ०८ से १० रू किलो एवं तीन-तीन महीने पुराना विदेशी सॉस ले १५० से
२०० रु किलो जिसमें प्रिज़र्वेटीव मिले हो जो हानिकारक होते है, तो यह
है डिफरेंस अर्थात मूर्खता की पराकाष्ठा जो है वह हमने लाँघ ली
है।
देश के घरों में चक्की से सुबह ताज़ा आटा, शाम को ताज़ा आटा बनाया जाता
रहा है। सुबह के आटे का संध्या में उपयोग नहीं एवं संध्या के आटे का
दूसरे दिन उपयोग नही, एक यह भी कारण रहा है की भारत में कभी इतनी अधिक
दवाइयों की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। क्यूंकि जब भोजन ही इतना स्वच्छ एवं
ताज़ा लिया जाता हो तो शरीर स्वस्थ रहता है।
हमारे घरों में माताएं बहने इतनी कुशल होती है ज्ञानी होती है की जो
वस्तु शीघ्रता से खराब होने वाली होती है उसे वह सुरक्षित कर देती है,
उनको दीर्घायु दे देती है इसका एक उदाहरण है आचार डालने की परंपरा
आपने स्वयं कई कई वर्षों पुराने आचार खाए होंगे। अब अंधानुकरण के चलते
घरों में आचार डालना ही बंद हो गए बाज़ार से आचार उठा लाते है जो ६-८
महीने में खराब हो जाता है। हमें लाज आनी चाहिए की सहस्त्रों वर्षों
से जिस देश में सैकड़ों प्रकार की सामग्री के साथ सैकड़ों प्रकार के
अचार बनाये जाते रहे हो उस देश में कुछ घरों में विदेशी बाज़ार का
बनाया हुआ अचार परोसा जा रह है माताओं बहनों को अचार बानाने की विधि
तक नहीं आती कौन सी वस्तु किस अनुपात में होना चाहिए उन्हें ज्ञात
नहीं इसलिए केमिकल डाले हुए डब्बा बंद अचार उठा लाते है।
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