मीडिया के कुछ वर्गों में पाक अधिकृत कश्मीर में प्रविष्ट हुए भारतीय सेना के चॉपर को शीघ्र वापस लौटा दिए जाने पर "दोस्ती के ..

जम्मू-कश्मीर, सरकारी वार्ताकारों द्वारा तुष्टीकरण के आधार पर
तैयार की गई रपट का अर्थ है 'एक और पाकिस्तान'
जम्मू-कश्मीर को भारतीय संविधान के दायरे से बाहर
करने (1952) तुष्टीकरण की प्रतीक और अलगाववाद की जनक अस्थाई धारा 370
को विशेष कहने, भारतीय सुरक्षा बलों की वफादारी पर प्रश्नचिन्ह लगाने,
पाकिस्तान को कश्मीर मुद्दे पर एक पक्ष बनाने, पाक अधिकृत कश्मीर को
पाक प्रशासित मानने और प्रदेश के 80 प्रतिशत देशभक्त नागरिकों की
अनदेखी करके मात्र 20 प्रतिशत पृथकतावादियों की ख्वाइशों/
जज्बातों की कदर करने जैसी सिफारिशें किसी देशद्रोह से कम नहीं
हैं।
लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त वार्ता कारों ने
कश्मीर समस्या के समाधान के लिए एक रपट तैयार की है। यदि मुस्लिम
तुष्टीकरण में डूबी सरकार ने उसे मान लिया तो देश के दूसरे विभाजन की
नींव तै यार हो जाएगी। यह रपट जम्मू-कश्मीर की अस्सी प्रतिशत जनसंख्या
की इच्छाओं, जरूरतों की अनदेखी करके मात्र बीस प्रतिशत संदिग्ध लोगों
की भारत विरोधी मांगों के आधार पर बनाई गई है। तथाकथित प्रगतिशील
वार्ताकारों द्वारा प्रस्तुत यह रपट स्वतंत्र कश्मीर राष्ट्र का रोड
मैप है।
रपट का आधार अलगाववाद: 1952-53 में जम्मू केन्द्रित
देशव्यापी प्रजा परिषद महाआंदोलन के झंडे तले डा. श्यामा प्रसाद
मुखर्जी ने जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाए रखने के लिए अपना
बलिदान देकर जो जमीन तैयार की थी उसी जमीन को बंजर बनाने के लिए
अलगाववादी मनोवृत्ति वाले वार्ताकारों ने यह रपट लिख दी है। इस रपट के
माध्यम से भारत के राष्ट्रपति, संसद, संविधान, राष्ट्र ध्वज, सेना के
अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिए गए हैं। देश के संवैधानिक संघीय
ढांचे अर्था त एक विधान, एक निशान और एक प्रधान की मूल भावना को चु
नौती दी गई है।
आईएसआई के एक एजेंट गुलाम नबी फाई के हमदर्द
दोस्त दिलीप पडगांवकर, वामपंथी चिंतक एम. एम. अंसारी और मैकाले परंपरा
की शिक्षाविद् राधा कुमार ने अपनी रपट में जो सिफारिशें की हैं वे सभी
कश्मीर केन्द्रित राजनीतिक दलों, अलगाववादी संगठनों, आतंकी गुटों और
कट्टरपंथी मजहबी जमातों द्वारा पिछले 64 वर्षों से उठाई जा रहीं भारत
विरोधी मांगें और सरकार, सेना विरोधी लगाए जा रहे नारे हैं।
स्वायत्तता, स्वशासन, आजादी, पाकिस्तान में विलय, भारतीय सेना की
वापसी, सुरक्षा बलों के विशेषाधिकारों की समाप्ति, जेलों में बंद
आतंकियों की रिहाई, पाकिस्तान गए कश्मीरी आतंकी युवकों की घर वापसी,
अनियंत्रित नियंत्रण रेखा और जम्मू-कश्मीर एक विवादित राज्य इत्यादि
सभी अलगाववादी जज्बातों, ख्वाइशों को इस रपट का आधार बनाया गया
है।
पाकिस्तान का समर्थन: रपट की यह भी एक सिफारिश है कि
कश्मीर से संबंधित किसी भी बातचीत में पाकिस्तान, आतंकी कमांडरों और
अलगाववादी नेताओं को भी शामिल किया जाए। रपट में पाक अधिकृत कश्मीर
(पीओके) को पाक प्रशासित जम्मू-कश्मीर (पीएजेके) कहा गया है। वार्ता
कारों के अनु सार कश्मीर विषय में पाकिस्तान भी एक पार्टी है और
पाकिस्तान ने दो तिहाई कश्मीर पर जबरन अधिकार नहीं किया, बल्कि
पाकिस्तान का वहां शासन है, जो वास्तविकता है।
ध्यान से देखें तो स्पष्ट होगा कि वार्ता कारों ने पूरे जम्मू-कश्मीर
को श्आजाद मुल्क की मान्यता दे दी है। इसी मान्यता के मद्देनजर रपट
में कहा गया है कि पीएजेके समेत पूरे जम्मू-कश्मीर को एक इकाई माना
जाए। इसी एक सिफारिश में सारे के सारे जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान के
हवाले करने के खतरनाक इरादे की गंध आती है। पाकिस्तान के जबरन कब्जे
वाले कश्मीर को पाक प्रशासित जम्मू-कश्मीर मानकर वार्ता कारों ने
भारतीय संसद के उस सर्व सम्मत प्रस्ताव को भी अमान्य कर दिया है
जिसमें कहा गया था कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न भाग है।
1994 में पारित इस प्रस्ताव में पाक अधिकृत कश्मीर को वापस लेने का
संकल्प भी दु हराया गया था।
राष्ट्रद्रोह की झलक: कश्मीर विषय पर पाकिस्तान को
भी एक पक्ष मानकर वार्ता कारों ने जहां जम्मू-कश्मीर में सक्रिय
देशद्रोही अलगाववादियों के आगे घुटने टेके हैं, वहीं उन्होंने
पाकिस्तान द्वारा कश्मीर को हड़पने के लिए 1947, 1965, 1972 और 1999
में भारत पर किए गए हमलों को भी भु लाकर पाकिस्तान के सब गुनाह माफ कर
दिए हैं। भारत विभाजन की वस्तु स्थिति से पूर्ण तया अनभिज्ञ इन तीनों
वार्ताकारों ने महाराजा हरिसिंह द्वारा 26 अक्तूबर, 1947 को सम्पूर्ण
जम्मू-कश्मीर का भारत में किया गया विलय, शेख अब्दुल्ला के देशद्रोह
को विफल करने वाला प्रजा परिषद् का आंदोलन, 1972 में हुआ भारत-पाक
शिमला समझौता, 1975 में हुआ इन्दिरा-शेख समझौता और 1994 में पारित
भारतीय संसद का प्रस्ताव इत्यादि सब कुछ ठुकराकर जो रपट पेश की है वह
राष्ट्रद्रोह का जीता-जागता दस्तावेज है।
केन्द्र सरकार के इशारे और सहायता से लिख दी गई 123 पृष्ठों की इस रपट
में केवल अलगाववादियों की मंशा, केन्द्र सरकार का एकतरफा दृष्टिकोण और
पाकिस्तान के जन्मजात इरादों की चिंता की गई है। जो लोग भारत के
राष्ट्र ध्वज को जलाते हैं, संविधान फाड़ते हैं और सु रक्षा बलों पर
हमला करते हैं, उनकी जी-हुजूरी की गई है। यह रपट उन लोगों का घोर
अपमान है, जो आज तक राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को थामकर भारत माता की जय
के उद् घोष करते हुए जम्मू-कश्मीर के लिए जूझते रहे, मरते रहे।
कांग्रेस और एनसी की मिलीभगत: वार्ताकारों ने
जम्मू-कश्मीर की आम जनता के अनेक प्रतिनिधिमंडलों से वार्ता करने का
नाटक तो जरूर किया है, परंतु महत्व उन्हीं लोगों को दिया है जो भारत
के संविधान की सौगंध खाकर सत्ता पर काबिज हैं (कांग्रेस के समर्थन से)
और भारत के संविधान और संसद को ही धता बताकर स्वायत्तता की पुरजोर
मांग कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर
अब्दुल्ला ने अनेक बार अपने दल नेशनल कांफ्रेंस (एन.सी.) के राजनीतिक
एजेंडे पूर्ण स्वायत्तता की मांग की है। स्वायत्तता अर्थात् 1953 के
पूर्व की राजनीतिक एवं संवैधानिक व्यवस्था। इस रपट से पता चलता है कि
इसे केन्द्र की कांग्रेसी सरकार, नेशनल कांफ्रेंस, आईएसआई के एजेंटों
और तीनों वार्ता कारों की मिलीभगत से घढ़ा गया है।
अगर यह मिलीभगत न होती तो जम्मू-कश्मीर की 80 प्रतिशत भारत-भक्त जनता
की जरूरतों और अधिकारों को नजरअंदाज न किया जाता। देश विभाजन के समय
पाकिस्तान, पीओके से आए लाखों लोगों की नागरिकता का लटकता मुद्दा,
तीन-चार युद्धों में शरणार्थी बने सीमांत क्षेत्रों के देशभक्त
नागरिकों का पुनर्वास, जम्मू और लद्दाख के लोगों के साथ हो रहा घोर
पक्षपात, उनके राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक अधिकारों का हनन, पूरे
प्रदेश में व्याप्त आतंकवाद, कश्मीर घाटी से उजाड़ दिए गए चार लाख
कश्मीरी हिन्दुओं की सम्मानजनक एवं सुरक्षित घरवापसी और प्रांत के
लोगों की अनेकविध जातिगत कठिनाइयां इत्यादि किसी भी समस्या का समाधान
नहीं बताया इन सरकारी वार्ताकारों ने।
फसाद की जड़ धारा 370: इसे देश और जनता का दु र्भा
ग्य ही कहा जाएगा कि पिछले छह दशकों के अनुभवों के बावजूद भी अधिकांश
राजनीतिक दलों को अभी तक यही समझ में नहीं आया कि एक विशेष मजहबी समूह
के बहुमत के आगे झुककर जम्मू-कश्मीर को धारा 370 के तहत दिया गया
विशेष दर्जा और अपना अलग प्रांतीय संविधान ही वास्तव में कश्मीर की
वर्त मान समस्या की जड़ है। संविधान की इसी अस्थाई धारा 370 को वार्ता
कारों ने अब विशेष धारा बनाकर जम्मू-कश्मीर को पूर्ण स्वायत्तता देने
की सिफारिश की है। क्या यह भारत द्वारा मान्य चार सिद्धांतों,
राजनीतिक व्यवस्थाओं-पंथ निरपेक्षता, एक राष्ट्रीयता, संघीय ढांचा और
लोकतंत्र का उल्लंघन एवं अपमान नहीं है ?
यह एक सच्चाई है कि भारतीय संविधान की धारा 370 के अंतर्गत
जम्मू-कश्मीर के अलग संविधान ने कश्मीर घाटी के अधिकांश मुस्लिम
युवकों को भारत की मुख्य राष्ट्रीय धारा से जुड़ने नहीं दिया।
प्रादेशिक संविधान की आड़ लेकर जम्मू-कश्मीर के सभी कट्टरपंथी दल और
कश्मीर केन्द्रित सरकारें भारत सरकार द्वारा संचालित राष्ट्रीय महत्व
के प्रकल्पों और योजनाओं को स्वीकार नहीं करते। भारत की संसद में
पारित पूजा स्थल विधेयक, दल बदल कानून और सरकारी जन्म नियंत्रण कानून
को जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं किया जा सकता।
देशघातक और अव्यवहारिक सिफारिश: सरकारी वार्ता कारों
ने आतंकग्रस्त प्रदेश से सेना की वापसी और अर्धसैनिक सुरक्षा बलों के
उन विशेषाधिकारों को समाप्त करने की सिफारिश की है जिनके बिना आधुनिक
हथियारों से सुसज्जित प्रशिक्षित आतंकियों का न तो सफाया किया जा सकता
है और न ही सामना। आतंकी अड्डों पर छापा मारने, गोली चलाने एवं
आतंकियों को गिरफ्तार करने के लिए सामूहिक कार्रवाई के अधिकारों के
बिना सु रक्षा बल स्थानीय पुलिस के अधीन हो जाएंगे जिसमें पाक समर्थक
तत्वों की भरमार है। वैसे भी जम्मू-कश्मीर पुलिस इतनी सक्षम और
प्रशिक्षित नहीं है जो पाकिस्तानी घुसपैठियों से निपट सके।
अलगाववादी, आतंकी संगठन तो चाहते हैं कि भारतीय
सुरक्षा बलों को कानून के तहत इतना निर्बल बना दिया जाए कि वे
मुजाहिद्दीनों (स्वतंत्रता सेनानियों) के आगे एक तरह से समर्पण कर
दें। विशेषाधिकारों की समाप्ति पर आतंकियों के साथ लड़ते हुए शहीद
होने वाले सुरक्षा जवान के परिवार को उस आर्थिक मदद से भी वंचित होना
पड़ेगा जो सीमा पर युद्ध के समय शहीद होने वाले सैनिक को मिलती
है।
क्या आजाद मुल्क बनेगा कश्मीर? : 1953 से पूर्व की
राज्य व्यवस्था की सिफारिश करना तो सीधे तौर पर देशद्रोह की श्रेणी
में आता है। इस तरह की मांग, सिफारिश का अर्थ है कश्मीर में भारतीय
प्रभुसत्ता को चुनौती देना, देश के किसी प्रदेश को भारतीय संघ से
तोड़ने का प्रयास करना और भारत के राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान,
संविधान एवं संसद का विरोध करना। सर्व विदित है कि 1953 से लेकर आज तक
भारत सरकार ने अनेक संवै धानिक संशोधनों द्वारा जम्मू-कश्मीर को भारत
के साथ जोड़कर ढेरों राजनीतिक एवं आर्थिक सुविधाएं दी हैं।
जम्मू-कश्मीर के लोगों द्वारा चुनी गई संविधान सभा ने 14 फरवरी, 1954
को प्रदेश के भारत में विलय पर अपनी स्वीकृति दे दी थी। 1956 में भारत
की केन्द्रीय सत्ता ने संविधान में सातवां संशोधन करके जम्मू-कश्मीर
को देश का अभिन्न हिस्सा बना लिया।
इसी तरह 1960 में जम्मू-कश्मीर के उच्च न्यायालय को भारत के सर्वोच्च
न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में लाया गया। 1964 में प्रदेश में लागू
भारतीय संविधान की धाराओं 356-357 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन की
संवैधानिक व्यवस्था की गई। 1952 की संवैधानिक व्यवस्था में पहुंचकर
जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान के जबड़े में फंस जाएगा। पाक प्रेरित
अलगाववादी संगठन यही तो चाहते हैं। तब यदि राष्ट्रपति शासन, भारतीय
सुरक्षा बल और सर्वोच्च न्यायालय की जरूरत पड़ी तो क्या होगा? क्या
जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान के हवाले कर देंगे?
भारत की अखण्डता से खिलवाड़ : पाकिस्तान का अघोषित
युद्ध जारी है। वह कभी भी घोषित युद्ध में बदल सकता है। जम्मू-कश्मीर
सरकार अनियंत्रित होगी। हमारी फौ ज किसके सहारे लड़ेगी। जब वहां की
स्वायत्त सरकार, सारी राज्य व्यवस्था, न्यायालय सब कुछ भारत सरकार के
नियंत्रण से बाहर होंगे तो उन्हें भारत के विरोध में खड़ा होने से कौन
रोकेगा? अच्छा यही होगा कि भारत की सरकार इन तथाकथित प्रगतिशील
वार्ताकारों के भ्रमजाल में फंसकर जम्मू-कश्मीर सहित सारे देश की
सुरक्षा एवं अखंडता के साथ खिलवाड़ न करे।
नरेन्द्र सहगल, स्थाई स्तम्भकार पांचजन्य, मोबाइल : 9811802320
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यह लेखक की व्यक्तिगत राय है, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
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