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क्या प्रत्येक मुस्लिम लड़की 18 की बजाय 15 वर्ष की आयु मे बालिग मान ली जाए?

एक बार फिर हमारी तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्ष’ न्याय व शासन प्रणाली की
कड़वी सच्चाई सामने आई है जो धर्मनिरपेक्षता की बजाय अल्पसंख्यक
तुष्टीकरण पर आधारित है। भारत मे मुस्लिम लड़कियों को 15 वर्ष की आयु
मे विवाह करने का अधिकार मिल गया है।
दिल्ली के उच्च न्यायालय ने एक आश्चर्यजनक फैसले के माध्यम से यह
व्यवस्था दी है कि कोई भी मुस्लिम लड़की राजस्वला होने पर 15 वर्ष की
आयु में अपनी मर्जी से विवाह कर सकती है।
माननीय न्यायालय ने यह फैसला एक नाबालिग मुस्लिम लड़की द्वारा दिल्ली
हाईकोर्ट में दायर याचिका पर दिया है जिसमे उक्त लड़की ने मांग की थी
कि उसे उसके पति के साथ रहने की अनुमति प्रदान की जाए। ज्ञात हो कि
लड़की की उम्र 15 वर्ष 10 माह है तथा वह गर्भवती है।
न्यायमूर्ति एस रविन्द्र भट्ट और न्यायमूर्ति एस पी गर्ग की पीठ ने
उक्त अवयस्क मुस्लिम लड़की के विवाह को वैध ठहराते हुए उसे अपने
ससुराल में रहने की अनुमति प्रदान की है। साथ ही लड़की की माँ द्वारा
लड़की के पति पर अपहरण का आरोप खारिज कर दिया है।
यह फैसला उस देश अर्थात भारत मे आया है जहाँ विशेष विवाह अधिनियम 1954
के तहत 18 वर्ष से कम आयु की लड़की तथा 21 वर्ष से कम आयु के लड़के का
विवाह गैर-कानूनी है।
आश्चर्य है कि जहाँ एक ओर देश का सम्पूर्ण सरकारी व सामाजिक तंत्र
बालविवाह के दानव को समूल नष्ट करने हेतु परिश्रम कर रहे हैं वहीं
उक्त मामले मे मुस्लिम पर्सनल लॉं के सहारे 15 वर्षीय बच्ची को वयस्क
के रूप मे परिभाषित किया गया है। ऐसे मे इस फैसले से कई ज्वलंत प्रश्न
उठ खड़े हुए हैं जैसे -
1. क्या प्रत्येक मुस्लिम लड़की 18 की बजाय 15 वर्ष की आयु मे बालिग
मान ली जाए? यदि ऐसा है तो उक्त मामले मे लड़की की देखभाल की
ज़िम्मेदारी बाल कल्याण विभाग को क्यों सौंपी गयी है?
2. क्या माननीय न्यायालय यह मानता है कि 15 वर्ष की बच्ची अपने जीवन
का फैसला लेने मे सक्षम है?
3. यदि 15 वर्ष की मुस्लिम लड़की बालिग है तो क्या उसके साथ होने वाले
यौन दुर्व्यवहार को बाल यौन दुर्व्यवहार की श्रेणी मे रखा जाएगा? यदि
हाँ तो एक ही व्यक्ति को 2 अलग-अलग परिस्थितियों मे बालिग व नाबालिग
कैसे माना जा सकता है?
4. क्या मुस्लिम होने मात्र से किसी लड़की की शारीरिक संरचना अपनी
समवयस्कों की तुलना मे अधिक परिपक्व हो जाती है? यदि नहीं तो क्या कम
उम्र मे वैवाहिक संबंध तथा मातृत्व उसके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य
को प्रभावित नहीं करेंगे?
5. यदि कम उम्र मे निकाह की वजह से उक्त धर्म विशेष की महिलाओं का
स्वास्थ्य स्तर अन्य धर्म की महिलाओं की तुलना मे खराब होता है तो
क्या इसे भी ‘बहुसंख्यकों द्वारा धर्म विशेष पर सामाजिक अत्याचार’ के
तौर पर ही देखा जाएगा?
(यह प्रश्न इसलिए क्योंकि भारतीय मुस्लिम समाज सदैव अपनी पिछड़ी स्थिति
के लिए बहुसंख्यकों को दोष देने लगता है जबकि सच्चाई यह है कि वह अपनी
मदरसा प्रणाली आधारित रूढ़ियों तथा पुरातन अंधविश्वासों की वजह से
पिछड़ा हुआ है।)
6.सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यदि मुस्लिम लड़कियों को अन्य
धर्मावलम्बी समवयस्क लड़कियों की तुलना मे 3 वर्ष पूर्व ही विवाह की
अनुमति मिले तो इसका सीधा अर्थ है उक्त धर्म विशेष की प्रजनन दर मे
अन्य धर्मावलंबियो की अपेक्षा अधिक वृद्धि। इस प्रकार कानून अनजाने मे
ही उक्त धर्मविशेष को वंशवृद्धि के अधिक अवसर अर्थात 3 अतिरिक्त वर्ष
दे रहा है। हम अनुमान लगा सकते हैं कि आगामी 15 वर्षों मे इस विशेष
कृपा का सामाजिक प्रभाव क्या होगा !
अत्यधिक दुखद तथ्य यह है कि मुस्लिम पर्सनल लॉं बोर्ड तथा अन्य
मुस्लिम संगठनों ने इस फैसले का स्वागत किया है मानो 15 वर्ष की बच्ची
निकाह कर गर्भवती हो जाना अत्यंत गौरवपूर्ण तथा आधुनिक प्रगतिगामी
घटना हो। क्या ये लोग अपनी बच्चियों की शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक
प्रगति नहीं चाहते? क्या इन्हे उस लड़की के माँ बाप के आँसू नहीं दिखाई
दिये जो अपनी नाबालिग बच्ची की चिंता मे घुले जा रहे हैं?
हमारे तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्ष’ देश में शरिया कानून के नाम पर नागरिक
समानता तथा धर्मनिरपेक्षता सिद्धांत की धज्जियां किस प्रकार उड़ाई जाती
हैं तथा भारतीय न्याय प्रणाली मुस्लिम पर्सनल लॉं के आगे कितनी बेबस
है यह कड़वा तथ्य दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा नाबालिग मुस्लिम निकाह
के संदर्भ मे दिये गए उक्त फैसले से स्पष्ट हो गया है।
सभी नागरिकों की समानता का दावा करने वाला विश्व का सबसे बड़ा
लोकतन्त्र भारत अब तक समान नागरिक कानून के इंतज़ार मे है। देखना यह है
कि आखिर कब भारत मे अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की बजाय सच्चे लोक कल्याण को
महत्व दिया जाएगा?
तनया गडकरी | लेखक से फेसबुक पर जुडें
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यह लेखक की व्यक्तिगत राय है, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
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