टीम अन्ना के एक प्रमुख सदस्य स्वामी अग्निवेश ने कुछ मतभेदों की वजह के बाद अपने आपको टीम की गतिविधियों से अपने आपको अलग कर ..
लेख का शीर्षक उन कट्टर हिन्दू राष्ट्रवादियों को नहीं भायेगा जो
दिन में एक बार अमेरिका को गाली दिए बिना रह नहीं पाते हैं। तो क्या
हुआ अगर अमेरिका अकेले जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध लड़ने में लगा हुआ हो
(उसके अपने स्वार्थ जो भी हो) जबकि जिहादी आतंकवाद से सबसे अधिक पीड़ित
होने वाला देश भारत आज भी कसब को पकवान खिलाने में लगा हुआ हो और
जिहादियों के पालक-पोषक देश को 'मोस्ट फेवर्ड नेशन' का दर्जा देकर
व्यापार कर रहा हो, और कभी वहाँ के प्रधान मंत्री को क्रिकेट देखने तो
कभी वहाँ के राष्ट्रपति को 'तीर्थयात्रा' पर बुलाता रहा हो। तो क्या
हुआ अगर '८४ दंगों में मारे गए सिखों के लिए
अमेरिका की अदालत न्याय दिलाने में लगी हो, जबकि भारत तो उन हत्यारों
को चुन के संसद में बैठाता हो। तो क्या हुआ अगर अमेरिका अपने
विश्वविद्यालयों में न केवल संस्कृत की पढ़ाई करवाता हो, अपितु
संस्कृत पर शोध भी करवाता हो और संस्कृत के दुर्लभ ग्रंथों को अपने
पुस्तकालयों में संजोने में लगा हो, जबकि भारत उसी संस्कृत को मिटाने
की ओर कदम-ताल करता हुआ बढ़ रहा हो। तो क्या हुआ अगर आज अमेरिका उस
विश्व-गुरु की भूमिका में खड़ा हो जहाँ युगों तक भारत रहा था। पढ़ाई के
लिए अपने छात्रों को अमेरिका भेजने वाले देशों में भारत चीन के बाद
दूसरे क्रमांक पर है। अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर पकड़ बनाकर अपने देश
के हितों को अमेरिका में उठाने का काम ये अप्रवासी भारतीय वर्ग अच्छे
से करता है। ऐसा देश जो भारत और चीन से अनेक विदेशियों को अपने यहाँ
आकर पढ़ने, नौकरी करने, बसने, शादी करने, मंदिर बनाने की अनुमति और
यहाँ तक की नागरिकता तक दे देता है और संस्कृत और संस्कृति का संरक्षक
बन कर भी खड़ा है। पर इस सबसे क्या -- चूंकि स्वदेशी के प्रचार के लिए
कोक, पेप्सी और डोमिनोज को गाली देना आवश्यक लगता है, इसलिए सीधे
अमेरिका को ही गाली दो - इकठ्ठा काम हो जाता है, जैसे कोक, पेप्सी और
डोमिनोज तो अमेरिका की सरकार ही चलाती हो सीधे व्हाईट हाउस से!
शीर्षक और कथ्य भी, कड़वा लगे या मीठा, बात सीधी है। भारत को अमेरिका
से सीखना होगा। ये तो सीखना ही चाहिए कि कैसे आतंकवाद और आतंकवादियों
से निपटा जाए जैसे अमेरिका में ९/११ के बाद कोई हमला नहीं हुआ। भले
वहाँ का एक राष्ट्रपति अपनी सहायिका के साथ रंगरेलियाँ मनाता पकड़ा गया
हो, पर वहाँ की राजनीति कभी इतनी नहीं गिरी कि आतंकवादियों के
मानव-अधिकारों की बात की जाए जिसकी आजकल भारत ने आदत डाली हुई
है। लेकिन यहाँ हम जो सीखने की बात कर रहे हैं वो एक अन्य
सन्दर्भ में है। अमेरिका विदेशियों को आने देने की अपनी उदारवादी नीति
के कारण आज एक विचित्र परिस्थिति में फँसा है। २०४० तक अमेरिका में
गोरे अमेरिकी अल्पसंख्यक हो जायेंगे, और एशियाई, हिस्पैनिक, लैटिन,
काले आदि बहुसंख्यक। ०-६ वर्ष के आयु-वर्ग में यह स्थिति पहले ही बन
चुकी है। इसके बाद भी अमेरिका डरा नहीं है। जरा सोचिये - भारतीय कट्टर
हिन्दू ८०% हिन्दू जनसँख्या के बाद भी १५% मुस्लिमों की आबादी के
बढ़ने और ईसाईकरण से कितना परेशान होते हैं ? ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि
अमेरिका के लिए यह समस्या है ही नहीं। और यही वो बात है जो अमेरिका से
हमें सीखनी है।
अमेरिका की शिक्षा पद्धति और समाज व्यवस्था ऐसी है कि बालक किसी भी
जाति (रेस) या मूल का हो - भारतीय, चीनी, कोरियाई,
मैक्सिकन, यूरोपीय - वो अमेरिका में स्कूली शिक्षा प्राप्त करता है तो
वो अमेरिकन बनता है। अर्थात, उसके लिए उसका देश बाकी सब से
पहले आता है। यानी अमेरिका आ कर बस गए लोगों की अगली पीढ़ी ही अमेरिकन
हो जाती है - फिर चाहे वे भारत से आये हिन्दू हो, या बंगलादेश से गए
मुस्लिम या चीन से गए बौद्ध। इसका अर्थ ये नहीं कि वे अपनी पहचान खो
देते हैं, परन्तु वे अपनी अमेरिकी नागरिक होने की पहचान को इतनी
मजबूती से धारण करते हैं कि उन्हें मूल अमेरिकियों से अलग किया ही
नहीं जा सकता। उनके सपने, उनकी आकांक्षायें मूल अमेरिकियों से भिन्न
नहीं रह जाती। फिर चाहे रमजान में ३० रोजे रखने वाला मुस्लिम ही क्यों
न हो - अमेरिकी झंडे के आगे वो भी उतनी ही श्रद्धा से सलामी देता है।
यहाँ हम जिहादियों से ब्रेनवाश होकर अमेरिकी जेलों में इस्लाम अपनाने
वाले मुट्ठी भर कैदी अमेरिकियों की बात नहीं कर रहे जो अपने ही देश के
दुश्मन बन रहे हैं। अनेक पीढ़ियों से इस्लाम को मानने वाले उन परिवारों
की बात कर रहे है जो अमेरिका में कुछ वर्ष पहले आ कर बसे, और जिनके
बच्चे इस्लाम को पूरा मानते हुए भी आज देशभक्त अमेरिकी हैं। अब यहाँ
भारत की तुलना करें। बीसों पीढ़ियों से - ५०० साल पहले अकबर के जमाने
से भारत में रह रहे मुस्लिमों में भी अधिकाँश ऐसे हैं जिन्हें भारत
माता की जय बोलने में गुरेज होगा, और वन्दे मातरम को जो हराम मानेंगे।
आखिर कौन लड़ रहा है राम मंदिर तोड़ कर बाबर के नाम पर मस्जिद दुबारा
बनवाने के लिए ?
एक ओर अमेरिका, जिसने दुनिया के किसी भी कोने से आये किसी भी रेस या
धर्म के परिवारों को एक पीढ़ी के अन्दर अपना बना लेने की विलक्षण
क्षमता दिखलाई है, और वही दूसरी ओर भारत, जो ५०० सालों से साथ रह रहे
मुस्लिमों को भी अपना नहीं बना पा रहा है (समझौता करना और दिल से
वन्दे मातरम गाने खड़ा होना, या राम को भारत का पूर्वज मानकर खड़ा होना,
दो अलग बातें हैं), और तो और, अपने ही सधर्मी दलितों को जिसने इतना
विमुख कर दिया कि आज वो सनातन धर्म छोड़ कर इसाई बन रहे हैं, गौ-मांस
उत्सव मन रहे हैं और कुछ को ऐसा 'सेकुलर' बनाया कि राम मंदिर के
विरुद्ध लड़ने और हिन्दू होकर भी हिन्दुओं को ही दुत्कारने को वो अपना
परम कर्त्तव्य मानते हैं। और ध्यान रहे, ये वही भारत है जिसने क्रूर
कुषाणों को अपना बना लिया, जिसने हुमायूं को राखी का बंधन मानने के
लिए विवश किया, अकबर को राम के नाम का सिक्का जारी करने के लिए विवश
किया। इस्लाम यहाँ आया तो सनातन दर्शन से प्रभावित होकर सूफी रुपी एक
शाखा में निकल गया। पर फिर क्या हुआ? भूल कहाँ हुई?
बंटवारे के बाद भी ६० साल हो गए हैं – जो काम
अमेरिका १५ साल में कर देता है - वो हम ६० साल में नहीं कर पाए? क्यों
नहीं हमारी शिक्षा पद्धति ऐसी हुई कि मुस्लिम बच्चें मदरसों में
काफिरों के जहन्नुम में जाने और मुस्लिमों के जन्नत में जाने, जिहाद
करने की बातें छोड़ के शेष सनातनी बच्चों के ही समान देश-भक्ति और भारत
की प्राचीन संस्कृति के लिए खड़े हो? क्यों नहीं हम ऐसा भारत
बना पा रहे जहाँ आपका मजहब कोई भी हो, मुस्लिम, इसाई, कोई भी, लेकिन
आपकी संस्कृति भारतीय हो, आपका दर्शन सनातनी हो और आपकी निष्ठा भारत
के प्रति हो और राम, गंगा और गीता के प्रति सम्मान रखने के लिए आपको
हिन्दू होना जरूरी न हो - क्योंकि ये भारत की धरोहर हैं। यदि ऐसा हम
कर पाते तो न अयोध्या विवाद ही रहता, न कृष्ण जन्मभूमि और शंकर की
काशी पर औरंगजेब की मस्जिदें, और न राम सेतु तोड़ने के लिए शपथपत्र दिए
जाते, न सूर्य नमस्कार और वन्दे मातरम के विरुद्ध फतवे निकलते, न
सरस्वती माँ की नंगी तस्वीर कोई हुसैन बनता, न गोधरा में कोई
कारसेवकों को जलाता, न कश्मीर में हिन्दू विस्थापित होते, न भारत माता
को सांप्रदायिक या डायन कहा जाता। कौन उत्तरदायी है इसके लिए? जवाब हम
सब जानते हैं -- फिर भी भूल न सुधारने की जैसे कसम खा के बैठे हैं। अब
भी समय है -- मैकाले की शिक्षा पद्धति बदलो। तुष्टिकरण की राजनीति
करने वाले राजनैतिक दलों का बहिष्कार करो। जात-पात के झगडे छोड़ कर
सनातन भारतीय बन के मतदान करो। एक बार राष्ट्रवाद को सत्ता सौंपो ताकि
भारत की आने वाली पीढ़ियाँ और भारत वैसा बन सकें जैसा उसे होना
चाहिए। ऐसा भारत जहाँ के मुस्लिम सपूत भी सनातनियों की ही तरह
वन्दे मातरम और जय श्री राम का उद्घोष मुक्त कंठ से और सच्चे ह्रदय से
कर सकें।
(लेखक अनाम रहने के इच्छुक हैं। ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं)
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