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इंटरनेट का नाम बदनाम न करो : इन्टरनेट उपभोक्ता केवल कांग्रेस विरोधी क्यूँ हैं ?
इंटरनेट का नाम बदनाम न करो यही कोई आठ-दस साल पहले जब बड़े पैमाने
पर सरकार ने डिजिटल तकनीक के उपयोग के लिए अरबों की खरीदारी शुरू की
थी तो हर बाबू को एक डेस्कटॉप कंप्यूटर दिया गया था, जो इंटरनेट से
कनेक्टेड होता था। उन बाबुओं ने अश्लील सामग्री की सर्च के अलावा शायद
ही उस सिस्टम का कोई उपयोग किया हो, लेकिन एक दशक भी न बीता होगा कि
वही इंटरनेट सरकार के लिए सिरदर्द साबित हो रहा है। कारण? अब इंटरनेट
द्वारा पैदा की गई आजादी सरकार के माथे पर चिंता की लकीरें खींच रही
है।
आजादी बाबुओं के केबिन से निकलकर जनता के हाथ जा पहुंची है। इसलिए
उसकी नकेल कसने के लिए सरकार मय थाना अदालत के साथ इंटरनेट कंपनियों
के सामने जा खड़ी हुई है। इंटरनेट तब तक बहुत परेशान नहीं कर रहा था,
जब तक वह सरकारी बाबुओं के मनोरंजन की चीज बना हुआ था। लेकिन उस दिन
वह निश्चित रूप से परेशानी का कारण नजर आने लगा, जब सरकार की सोनिया
गांधी के बारे में उल्टा-सीधा लिखा जाने लगा। आमतौर पर ब्लॉगरों के
बीच ऐसी बहसें होती रही हैं कि टिप्पणियों के बारे में हमारा क्या
रवैया होना चाहिए। पहली बार सरकार ने यही विचार शुरू कर दिया कि
अभिव्यक्ति की आजादी का आखिरकार मतलब क्या होता है? इस विचार-विमर्श
में जो निष्कर्ष निकला, वह यह कि सोनिया गांधी-कपिल सिब्बल के खिलाफ
कुछ उपद्रवी तत्वों ने नेट पर जो अश्लील सामग्री डाल रखी है, उसे हटा
दिया जाए। इंटरनेट कंपनियों के साथ मीटिंग हुई और कंपनियों ने आश्वासन
दिया कि आपत्तिजनक सामग्रियों को हटा लिया जाएगा।
फेसबुक ने वह अकाउंट डिलीट कर दिया, जिस पर कांग्रेस के खिलाफ जमकर
अभिव्यक्ति की आजादी की ऐसी-तैसी की गई थी और गूगल ने कह दिया कि
शिकायत पर गौर करेंगे। फेसबुक की तरह गूगल के लिए श्लील और अश्लील की
परिभाषा रखने या मिटा देने जैसा नहीं है। गूगल एक सर्च इंजन है और
उसका अपना कोई भी कंटेट नहीं होता है। इसलिए स्वाभाविक तौर पर उसके
लिए वैसा नियमन कर देना बिल्कुल आसान नहीं होगा, जैसा कि सरकार चाहती
है। हां, गूगल तकनीकी तौर पर जो कर सकता है, उसने किया भी है। इंटरनेट
की दुनिया में बेहद सुस्त रफ्तार विकास के बाद भी सरकार अपने चंद
निहित स्वार्थो के कारण उस तकनीक को संशय के घेरे में ला रही है, जो
21वीं सदी का भारत बनाने जा रही है।
साभार विस्फोट डॉट कॉम में संजय तिवारी
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