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अमेरिकी कंपनियां जन के प्रति संवेदनहीन हैं, लोगों की भूख, बेरोजगारी से कुछ लेना-देना नहीं
वालस्ट्रीट अमेरिका की वह जगह है जहां दुनिया का सबसे बड़ा स्टाक
एक्सचेंज काम करता है। पूंजीवादी जगत के लिए यह स्थान किसी मंदिर से
कम नहीं। दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों का दिल यहीं से धड़कता है।
पिछले दिनों यहां अमेरिका के लोगों ने जमकर विरोध प्रदर्शन किया। 700
से ज्यादा प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। धीरे-धीरे यह
प्रदर्शन अमेरिका के दूसरे शहरों जैसे लास एंजल्स और बोस्टन में भी
फैल रहा है।
पूंजीवादी व्यवस्था ने जो विकृतियां पैदा की हैं, अमेरिकी मंदी के
चलते उन्हें ढके रख पाना मुश्किल हो रहा है। अमेरिका के समाज विज्ञानी
और अर्थशास्त्री समस्या के मूल कारण को जानते हैं, किंतु उसकी तह तक
जाने और उसका समाधान ढूंढने की इच्छा शक्ति उनमें नहीं है।
ग्लोबल वार्मिंग जैसे तमाम वैश्विक मुद्दों पर जब बातचीत होती है, तो
सबकी नजर में बेलगाम अमेरिकी उपभोग की समस्या आती है, लेकिन इसका
समाधान ढूंढने की बजाय अमेरिकी नेता अहंकार पूर्वक घोषणा करते हैं कि
वे अमेरिकी जीवनशैली पर कोई बातचीत नहीं करेंगे। जिस ‘अमेरिकी
जीवनशैली’ को वहां के नेता बातचीत से परे मानते हैं, वह वहां के आम
आदमी की नहीं, बल्कि अमेरिकी कंपनियों की चिंता करती है, उन कंपनियों
के मुनाफे की चिंता करती है। इन कंपनियों के लाभ को बनाए रखने के लिए
अमेरिकी सरकार कुछ भी करने को तैयार रहती है।
अमेरिका की देखादेखी दुनिया की अन्य सरकारें भी अपनी कंपनियों के
हितपोषण में लगी हुई हैं। लेकिन उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद कंपनियों
की हालत बिगड़ रही है। ब्राजील जैसे देश अपने विशाल प्राकृतिक
संसाधनों के कारण निर्यात की गति को बनाए हुए हैं, किंतु यूरोपीय
देशों की आर्थिक स्थिति चिंताजनक है। ग्रीस जैसे देश तो दिवालिया होने
की कगार पर हैं। जर्मनी की पूरी कोशिश है कि वह यूरोपीय देशों को
दिवालिया होने से बचाए, लेकिन वह कब तक ऐसा कर पाएगा?
कभी ऐसा माना जाता था कि महंगाई, गरीबी और बेरोजगारी जैसी समस्याएं
केवल तीसरी दुनिया की समस्याएं हैं। पर आज पहली दुनिया के देश भी इनसे
जूझते नजर आ रहे हैं। उपनिवेशवाद की बुनियाद पर बनाई गई यूरोपीय
सभ्यता की इमारत की दीवारें आज दरक रही हैं। अपनी 500 वर्षों की विकास
यात्रा में यूरोपीय देशों ने जो माडल खड़े किए, उसका घातक परिणाम न
केवल मानवता को, बल्कि संपूर्ण प्रकृति को झेलना पड़ रहा है।
हथियारवाद, उपनिवेशवाद, सरकारवाद के रास्ते चलते हुए पश्चिमी सभ्यता
ने बदली हुई परिस्थिति में अपनी सर्वोच्चता को बनाए रखने के लिए
बाजारवाद का नारा दिया। पूंजी को ब्रह्म, मुनाफा को जीवनमूल्य और
उन्मुक्त उपभोग को मोक्ष बताया गया। इसके चलते मानव ‘अमानवीय’ होता
गया। लाभोन्माद, भोगोन्माद को मानवजीवन का मूल मान लिया गया। पारंपरिक
मानवीय मूल्य नष्ट होते गए और संवेदनशीलता कुंद होती गई।
बाजारवाद के रूप में जो संकट आज विश्व के सामने उपस्थित है, उसके
लक्षण 20 साल पहले ही उभरने लगे थे। भारत में 1991 की नई आर्थिक नीति
और डंकल ड्राफ्ट पर बहस में इसी प्रकृति विरोधी और मानव विरोधी दिशा
का संकेत मिल रहा था। इन्हीं सब बातों को देखते हुए मेरे मन में
अध्ययन अवकाश पर जाने की इच्छा हुई थी।
समस्या की मूल प्रकृति को जानने के लिए मैं क्या पढ़ूं, यह पूछने के
लिए मैं प्रयाग स्थित आजादी बचाओ आंदोलन के नेता श्री बनवारी लाल
शर्मा से मिला। उन्होंने मुझे दो किताबें पढ़ने के लिए प्रेरित किया।
पहली किताब थी, When Corporations Rule the World (David Corten)
जिसमें मेगा कारपोरेशन्स के प्रभुत्व से उत्पन्न खतरों को बताया गया
है। आज वालस्ट्रीट में जो प्रदर्शन हो रहे हैं, उससे इस किताब की बात
सच साबित हो रही है। अथाह संपत्ति की मालिक अमेरिका की कंपनियां वहां
के जन के प्रति संवेदनहीन हैं, लोगों की भूख, बेरोजगारी से उन्हें कुछ
लेना-देना नहीं है। दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी कंपनियों की यही
प्रकृति है। हर कीमत पर ज्यादा से ज्यादा लाभ ही उनकी सभी गतिविधियों
के मूल में है।
बनवारीलाल जी ने मुझे दूसरी किताब बताई थी, Enough is Enough (Davison
Budhoo) इस किताब में कारपोरेट दुनिया की विकृतियों को उदाहरण सहित
बताया गया है। यही बातें Globalisation and its Discontents (Nobel
laureate Joseph E. Stiglitz) और Confessions of an Economic Hit Man
(John Perkins) जैसी किताबों में भी पुष्ट की गई हैं।
दुनिया भर के समाज विज्ञानी और अर्थशास्त्री- चाहे वे दुर्खाइन हों या
फुकुयामा हों, या फिर क्रुगमैन हों, पॉल ड्रकर हों, सभी ने इस
विनाशकारी दिशा का संकेत दिया है। अपने-अपने स्तर पर उन्होंने विकल्प
तलाशने की मुहिम भी शुरू की।
1998 के दक्षिण एशियाई देशों का मुद्रा संकट चीख-चीख कर दुनिया भर को
आसन्न संकट की चेतावनी दे रहा था। लेकिन कारपोरेट सेक्टर और
ट्रांसनेशनल कंपनियों की मुनाफाखोरी और लालच के कारण विकल्प तलाशने की
आवाज को दबा दिया गया। जो लोग विकल्प की बात कर रहे थे, उन्हें विकास
विरोधी करार दे दिया गया। विकास की संकल्पना के बारे में बहस को सिरे
से ही नकार दिया गया और अर्थव्यवस्था को सर्वग्रासी बनाने की कोशिश
चलती रही।
राजनीति, अर्थनीति और संस्कृति को कारपोरेट हितों के लिए निर्देशित और
नियंत्रित करने की गति द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद काफी तेज हो गई।
सोवियत रूस और अमेरिका के बीच शीतयुद्ध के कारण इसमें जो थोड़ी-बहुत
शिथिलता आई थी, वह सोवियत रूस के विखंडन के बाद दूर हो गई। एक ध्रुवीय
दुनिया का दंभ पालने वाले अमेरिका ने बेरोक-टोक अपनी कारपोरेट हितैषी
नीतियों को दुनिया पर थोपना शुरू किया। लेकिन यह प्रक्रिया अब अपने ही
बोझ के कारण बिखर रही है।
भारतीय चिंतन के आलोक में एस. गुरुमुर्ति जैसे लोगों ने पश्चिमी
अर्थशास्त्र की संकल्पनाओं की असफलता और असमर्थता को चिन्हित किया है।
उनका कहना है कि हमें अपनी आर्थिक सोच में मूलभूत बदलाव लाने की जरूरत
है। 500 वर्षों से दुनिया में जिस आर्थिक व्यवस्था का बोलबाला रहा है,
उसे बदलने के लिए एस. गुरुमुर्ति ने भारतीय चिंतन की रोशनी में
अर्थनीति, राजनीति और समाजनीति के पुनर्गठन पर बल दिया है।
मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमें भारतीय जीवन दर्शन, जीवन लक्ष्य, जीवन
मूल्य और जीवन आदर्श के अनुरूप जीवनशैली अपनानी होगी। इसके लिए अनुकूल
राजनीति और अर्थनीति को परिभाषित करने और उसे साकार करने की जरूरत है।
पिछले लगभग 100 वर्षों से केन्द्रीयकरण, एकरूपीकरण, बाजारीकरण और
अंधाधुंध वैश्वीकरण को ही सभी समस्याओं का रामबाण इलाज माने जाने की
मानसिकता से हटकर विकेन्द्रीकरण, विविधिकरण, स्थानिकीकरण और बाजार
मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने से ही आज की अपसंस्कृति की सुनामी से
बचा जा सकेगा। समता और एकात्मता के अधिष्ठान पर देशी सोच और
विकेन्द्रीकरण को आधार बनाकर आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्था का पुनर्गठन
ही आज की विषम परिस्थितियों से पार पाने का रास्ता होगा।
साभार के. एन. गोविन्दाचार्य
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