विधानसभा चुनाव आते ही मुस्लिम समुदाय को आरक्षण, गलत दिशा में राजनीति
उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड आदि राज्यों के विधानसभा चुनाव
निकट आते ही मुस्लिम समुदाय को जिस तरह आरक्षण देने की पहल शुरू हो गई
है उससे एक बार फिर यह साफ हो रहा है कि हमारे राजनीतिक दल वोट बैंक
बनाने की प्रवृत्ति का परित्याग करने के लिए तैयार नहीं। उत्तर प्रदेश
की मुख्यमंत्री मायावती की ओर से मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देने के
संकेत दिए जाने के साथ ही केंद्र सरकार ने भी जिस प्रकार इसी तरह के
संकेत देने शुरू कर दिए उससे तो ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों में
मुस्लिम आरक्षण के लिए होड़ मचने वाली है। यह तब है जब सभी राजनीतिक
यह जान रहे हैं कि ऐसा करना आसान नहीं होगा।
क्या यह विचित्र नहीं कि भारतीय संविधान मजहब-पंथ के आधार पर आरक्षण
का निषेध करता है, फिर भी राजनीतिक दल इसी आधार पर आरक्षण देने की राह
निकालने पर आमादा हैं? राजनीतिक दल ऐसा सिर्फ इसलिए कर रहे हैं,
क्योंकि वे आने वाले चुनावों में मुस्लिम समुदाय के थोक में वोट हासिल
करना चाहते हैं। मुस्लिम आरक्षण की वकालत करने वाले दलों के पास इस
सवाल का शायद ही कोई जवाब हो कि उन्हें अभी तक इस समुदाय का पिछड़ापन
क्यों नहीं दिखा? ध्यान रहे कि यदि कांग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन
सरकार पिछले सात साल से सत्ता में है तो मायावती भी साढ़े चार साल से
शासन में हैं।
विगत दिवस एक सम्मेलन में मुस्लिम नेताओं ने अपने समुदाय के हित के
लिए चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं में जिस तरह तमाम खामियां गिनाईं
उससे तो यही पता चलता है कि केंद्र सरकार अपनी इन योजनाओं के प्रति
गंभीर नहीं। क्या इसका कारण यह है कि इन योजनाओं से उसे मुस्लिम
समुदाय को वोट बैंक के रूप में तब्दील करने में कठिनाई हो रही है?
सच्चाई जो भी हो, इससे इंकार नहीं कि मुस्लिम समुदाय के पिछड़ेपन के
कारणों की सही तरह पहचान और फिर उनका निवारण करने के अपेक्षित प्रयास
किसी भी स्तर पर नहीं किए जा रहे हैं।
मुस्लिम समुदाय के पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण उसके पास सही-सक्षम
नेतृत्व न होना है और जो नेता खुद को उसका प्रतिनिधि अथवा हितैषी
बताते हैं उनकी दिलचस्पी सिर्फ इस समुदाय के वोटों में है। यह एक
सच्चाई है कि मुस्लिम समुदाय पिछड़ेपन से ग्रस्त है, लेकिन इसके आधार
पर उसे मुख्यधारा से बाहर करार देना उसे जानबूझकर एक संकुचित दायरे
में सीमित करना है।
मुस्लिम समाज के हित के लिए यह आवश्यक है कि उसे किसी खांचे-दायरे में
न बांधा जाए। जो लोग ऐसा कर रहे हैं उन्हें इस पर विचार करना चाहिए कि
जिस समुदाय के लोग लंबे अर्से तक देश के शासक रहे वे पिछड़ेपन से
क्यों ग्रस्त हो गए? नि:संदेह विचार इस पर भी होना चाहिए कि क्या
आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था से आरक्षित वर्गो का वास्तविक विकास हुआ
है? यह ठीक नहीं कि जब आरक्षण व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव के बारे
में सोचा जाना चाहिए तब पंथ आधारित आरक्षण की दिशा में बढ़ा जा रहा
है। आखिर ऐसी कोई व्यवस्था क्यों नहीं बन सकती जिसमें भारतीय समाज के
जो भी वंचित-निर्धन हैं उन सभी का उत्थान हो सके, भले ही वे किसी भी
जाति, समुदाय, क्षेत्र अथवा मजहब के हों?
साभार दैनिक जागरण
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