संघ का साथ स्वीकारने से परहेज क्यों, संघ के स्वयंसेवक पहचान छिपाए आन्दोलन में सक्रिय थे

Published: Tuesday, Oct 11,2011, 08:08 IST
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अवधेश कुमार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, प्रमुख मोहन भागवत, दिग्विजय सिंह

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक ऐसा संगठन हो गया है, जिसका साथ सार्वजनिक तौर पर स्वीकारने में ज्यादातर नेताओं व संगठनों को समस्या होती है। इस कड़ी में अन्ना हजारे और उनके साथी भी अब जुड़ गए हैं। संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा उनके आंदोलन में स्वयंसेवकों की सक्रियता संबंधी बयान पर स्वयं अन्ना एवं उनके साथियों ने जैसी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है उसे देखने के बाद ऐसा लगता है जैसे संघ का नाम हथेली पर रखे अंगारे की तरह है जिसे तुरंत झाड़कर फेंक देने में ही अपनी भलाई समझी जाती है। कोई संघ की विचारधारा या कार्यप्रणाली का विरोधी है या समर्थक यह अलग बात है, लेकिन सच के आईने में विचार करें तो अन्ना के उपवास अभियान में संघ के कार्यकर्ताओं की सक्रिय भूमिका थी या नहीं यह बहस न केवल औचित्यहीन, बल्कि अनैतिक भी है।

वास्तव में इस बहस की शुरुआत जिस तरह से हुई उसका कोई कारण नहीं था। स्ंघ प्रमुख मोहन भागवत ने विजयदशमी के वार्षिक कार्यक्रम के अपने संबोधन में यह कहते हुए कि संघ वैसे हर कार्य में भाग लेता है जिसमें भारत का भला हो। इस दौरान उन्होंने यह भी कहा कि संघ के स्वयंसेवक बिना अपनी पहचान बताए भ्रष्टाचार के विरुद्ध चले आंदोलन में भी सक्रिय रहे। अन्ना एवं उनके साथियों को तुरंत इसका तीखा प्रतिवाद किया। अन्ना ने कहा कि आरएसएस का एक भी कार्यकर्ता मुझसे नहीं मिला। वह ऐसा कैसे कह रहे हैं मुझे नहीं मालूम। उनके दूसरे साथी ने तो हिसार में भागवत को नसीहत दी कि वह आंदोलन का श्रेय लेने से बचें। कांग्रेस को तो बस मौका चाहिए था और महासचिव दिग्विजय सिंह को अपना राग अलापने का मौका मिल गया। मनीष तिवारी ने कहा कि जो सच है उसे प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है।

बाबा रामदेव एवं अन्ना हजारे दोनों की मुहिम को कांग्रेस संघ द्वारा प्रायोजित राजनीतिक अभियान करार देती रही है। ऊपर से कांग्रेस एवं अन्ना टीम दोनों एक दूसरे के विरोधी दिखते हैं पर गहराई से देखें तो संघ के मामले पर दोनों एक ही धरातल पर हैं। कांग्रेस जब इनके अभियान को संघ का अभियान साबित करती है तो उसके पीछे निहित भाव इसे बदनाम करने का होता है। यानी कांग्रेस मानती है कि जिस कार्य में संघ शामिल हो वह गलत या गंदा है। अन्ना के बचाव से भी यही ध्वनि निकलती है। अगर अन्ना एवं उनके साथी संघ के बारे में कांग्रेस से अलग धारणा रखते तो उन्हें ऐसा प्रतिवाद करने की आवश्यकता शायद नहीं होती। अन्ना टीम भी मान रही है कि उनकी मुहिम के साथ संघ का नाम जुड़ने से उनकी छवि खराब हो जाएगी या उनकी मुहिम गलत साबित हो जाएगी। हालांकि दोनों पक्ष सच जानते हैं। कांग्रेस को पता है कि उसका आरोप राजनीतिक है।

संघ के प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शामिल होने मात्र से कोई आंदोलन भल गलत कैसे हो सकता है। लगातार संघ की खिलाफत या उसे गलत विचारधारा का संगठन साबित करने का उद्देश्य अल्पसंख्यक मुसलमानों और ईसाइयों को वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करना है। अन्ना और उनकी टीम को भी यह सच मालूम है कि संघ के साथ होने मात्र से उनकी मुहिम गलत नहीं हो जाती, लेकिन पिछले कुछ वर्षो में राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन में भाजपा एवं संघ के नाम पर जैसा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश हुई है, उससे पूरा माहौल ऐसा बन चुका है, जिसमें संघ का विरोध करना या संघ से किसी प्रकार का रिश्ता न रखना प्रगतिशीलता, नैतिकता, शुद्धता, सेक्युलरवाद आदि का प्रमाण पत्र है।

जन लोकपाल की मांग संघ के समर्थन से सांप्रदायिक नहीं हो जाएगी यह बात दोनों को पता है। फिर भी एक पक्ष इस मुहिम को संघ का साबित करने पर तुला है तो दूसरा उससे पल्ला झाड़ने में लगा है। स्वामी रामदेव एवं अन्ना हजारे की मुहिम पर निकट से नजर रखने वाले यह सच भलीभांति जानते हैं कि यह संघ द्वारा प्रायोजित नहीं था। हां, यह अवश्य है कि आंदोलन में संघ परिवार के लोग भारी संख्या में हर स्तर पर स्वत: प्रेरणा से शामिल हुए थे। संघ ही क्यों इसमें दूसरे तमाम संगठन और समूह भी निजी तौर पर भागीदारी कर रहे थे। वैसे अन्ना उपवास के दौरान संघ के सरकार्यवाह ने पत्र लिखकर भी समर्थन दिया था और पत्र लेकर पहुंचे संघ के पदाधिकारी उनके मंच पर भी उपस्थित थे। संघ ने न तो कभी समर्थन वापस लेने की घोषणा की और न अन्ना हजारे एवं उनकी टीम के सदस्यों ने ऐसा कोई बयान दिया। अन्ना एवं उनके साथी ऐसा करने वाले अकेले नहीं हैं।

स्वामी रामदेव भी संघ का नाम आने पर इनकार तो नहीं करते थे, लेकिन कभी वह सार्वजनिक तौर पर संघ का समर्थन स्वीकार भी नहीं करते थे। उनका बयान होता था कि भारत भर के लोगों का उनको समर्थन है। वस्तुत: यह प्रवृत्ति आम है। राजनीति में भी इसके उदाहरण मौजूद हैं। केरल के चुनावों में कई बार कांग्रेस एवं कम्युनिस्ट दोनों के उम्मीदवार समय-समय पर संघ का वोट पाने की कोशिश करते हैं और पाते भी हैं। हालांकि सार्वजनिक तौर पर यह इसे स्वीकार नहीं करते। मार्च 2005 में कांग्रेस द्वारा विधानसभा चुनाव में संघ से मदद मिलने के आरोप ने तूल पकड़ा था। वहां कम्युनिस्टों एवं संघ से संघर्ष का लाभ कांग्रेस को हमेशा मिलता रहा है। इस बार कांगे्रस ने केरल में सांप्रदायिकता का कार्ड खेला, इसलिए कई क्षेत्रों में संघ के कार्यकर्ताओं ने वाममोर्चे के उम्मीदवार को मत दिया। हालांकि इसे वह स्वीकार नहीं करते। लोक जनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान संघ के खिलाफ विषवमन करते हैं, जबकि 1999 के लोकसभा चुनाव में संघ के कार्यकर्ता उनके लिए काम कर रहे थे और उन्होंने इससे संबंधित प्रश्न पर जयप्रकाश नारायण की यह पंक्तिकही थी कि अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ फासिस्ट है तो मैं भी फासिस्ट हूं। इस तरह के के पाखंड के अनेक उदाहरण गिनाए जा सकते हैं।

अन्ना हजारे कह रहे हैं कि उनसे संघ का कोई कार्यकर्ता नहीं मिला। संघ के कार्यकर्ता भी माहौल को जानते हैं और ज्यादातर अपनी पहचान बताने से बचते भी हैं। मोहन भागवत ने अपने बयान में कहा कि स्वयंसेवक अपनी पहचान बताए बिना देशहित के हर काम में भागीदारी करते हैं और ऐसा ही उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान भी किया। में किया। आखिर इसमें अन्ना मिलने और पहचान बताने का सवाल कहां से पैदा होता है? वैसे भी मंच पर जाकर अन्ना से कितने लोग मिले होंगे? कोई भी विवेकशील व्यक्ति अन्ना एवं उनके साथियों की इस दलील को स्वीकार नहीं कर सकता। यह जानते हुए भी कि संघ के लोगों का साथ स्वीकार करने का साहस किसी में नहीं इसलिए अन्ना एवं उनके साथियों का आचरण अस्वाभाविक नहीं है। हालांकि अन्ना की सच्चे, निष्कपट एवं साहसी व्यक्तित्व की जैसी छवि बनी है उस नजरिये से उनका आचरण आघात पहुंचाने वाला है।

जिस व्यक्ति को राजनीति से लेना-देना नहीं उसे सच स्वीकारने में क्या समस्या है यह समझ से परे है। वैसे संघ के इस प्रकरण में संघ प्रमुख, संघ के प्रवक्ता और अन्ना व उनके साथियों के आचरण में मौलिक अंतर है। अन्ना एवं उनके साथियों के बयानों और हावभाव में एक तरह का अहंकार है कि जो कुछ हुआ वह हमारे कारण हुआ। संघ प्रमुख ने कहा भी कि संघ अपने योगदान का श्रेय नहीं चाहता, क्योंकि उसे तो देश का गौरव बढ़ाना है और ऐसे हर काम में संघ सक्रिय होगा। इसका श्रेय यदि किसी को जाता है तो वह देश की जनता है। बावजूद इसके अरविंद केजरीवाल चेतावनी देते हैं कि संघ प्रमुख इसका श्रेय न लें। संघ राजनीति से लेकर समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय तो इसकी स्वीकारोक्ति में पाखंड क्यों?

— अवधेश कुमार (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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