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प्रणब मुखर्जी ने चिदम्बरम से हाथ तो मिला लिया पर दिल नहीं। प्रणब मुखर्जी से बवाली नोट प्रधानमंत्री कार्यालय ने बनवाया था और सुलह वाला बयान सोनिया गांधी ने दिलवाया। सरकार, कांग्रेस और टू-जी तीनों का यही संकट है। राजनीति के सूत्र सोनिया गांधी के पास हैं और प्रशासन मनमोहन सिंह के पास। एक को नहीं पता कि दूसरा क्या कर रहा है। टू-जी का मौजूदा संकट इसी अविश्वास का नमूना है।
तो क्या प्रणब और चिदम्बरम के इस दिखावटी एका से कांग्रेस और सरकार का संकट खत्म हो गया? चिदम्बरम ‘टू-जी’ के कीचड़ से उबर गए? प्रधानमंत्री को इस विवाद से राहत मिली है? सरकार की किरकिरी का अंत हो गया? नहीं। मंत्रियों के हाथ मिलाने से न तो तथ्य बदलेंगे न सुप्रीम कोर्ट में पेश वित्त मंत्रालय के इस नोट्स के कंटेट। जेपीसी इस नोट की तह में तथ्य खंगालेगी ना कि इस बात का पता लगाएगी कि प्रणब के बयान के बाद चिदम्बरम ने क्या कहा। लोक लेखा समिति इस जांच के लिए नोट के साथ फ़ाइल तलब करेगी और वित्त मंत्री की इस टिप्पणी को कि ‘मंत्री जी ने देखा’ इसका सच जानेगी। फिर फाइल तलब कर यह देखेगी कि नोट प्रधानमंत्री ने भी पढ़ा था। यानी सोनिया गांधी की दखल के बाद वित्त मंत्रालय के सामने जो ड्रामा हुआ उससे संकट खत्म नहीं हुआ है बल्कि कई मामलों में बढ़ा है।
प्रणब मुखर्जी ने पूरे दवाब के बाद अपने रूख में नरमी लाते हुए जो बयान दिया उसमें भी यही तो कहा कि विवादित नोट के निहितार्थ से वे सहमत नहीं हैं। लेकिन उन्होंने यह भी नहीं कहा कि नोट गलत है या उसके तथ्य झूठे हैं। बल्कि एक बार फिर कानून मंत्री सलमान खुर्शीद, संचार मंत्री कपिल सिब्बल की मौजूदगी में उन्होंने कहा कि चिदम्बरम को विवादों के घेरे में लाने वाला नोट केवल उनके वित्त मंत्रालय का विचार नहीं है, कई मंत्रालयों की सहमति से बना दस्तावेज है। नोट इंटरमिनिस्टिरीयल है और इसमें प्रधानमंत्री कार्यालय का भी योगदान है।
दरअसल संकट बड़ा है। चिदम्बरम को बचाना जरूरी है वरना आग प्रधानमंत्री तक पहुंचेगी। सच्चाई यह है कि इस साल मार्च में जब स्पेक्ट्रम मामले पर विपक्षी हमला तेज हुआ था तो प्रधानमंत्री को बचाने के लिए 25 मार्च को यह स्टेटस नोट बना था। इसीलिए नोट लिखवाने में पीएमओ और कैबिनेट सचिव भी लगे थे। यही तो प्रणब मुखर्जी भी कह रहे हैं। ताकि उस वक्त बात अगर प्रधानमंत्री तक बढ़ती तो चिदम्बरम की जिम्मेदारी तय होती और प्रधानमंत्री पर दगती मिसाइलों का मुंह दूसरी तरफ मोड़ा जाता।
अब प्रधानमंत्री चिदम्बरम का बचाव कर रहे हैं। लेकिन उन्होंने ए. राजा का बचाव नहीं किया जबकि दोनों बराबर के जिम्मेदार हैं। राजा ने सरकारी खजाना लुटाया और चिदम्बरम ने उन्हें लुटाने दिया। अब प्रधानमंत्री और कांग्रेस की दलील है कि कोई घपला हुआ ही नहीं। जो नीतियां एनडीए के जमाने की थी, हमने उसका पालन किया। अगर घपला नहीं हुआ तो राजा ही क्यों जेल में है? इस सवाल का जवाब देने के लिए कोई तैयार नहीं है कि 2001 की कीमत पर 2007 में स्पेक्ट्रम क्यों बेचे गए? कैबिनेट प्रणाली में विभाग के सचिव का नोट मंत्री का नोट होता है। कैबिनेट जिस प्रस्ताव को पास करती है। वह संयुक्त सचिव का बनाया होता है। वित्तमंत्री अपनी जवाबदेही से यह कहकर कैसे बचे सकते हैं कि उनकी सहमति के बिना वह नोट गया। ऐसे में फिर कल कैबिनेट प्रणाली का क्या होगा? कोई भी मंत्री अपने फैसले से इसी तर्क पर पीछे हट सकता है कि यह फैसला उसका नहीं बल्कि उसके विभाग या सचिव का है। क्या प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री नीलामी के बजाय ‘पहले आओ और पहले पाओ’ की नीति से सहमत थे! अगर सहमत थे तो अब अपनी जवाबदेही से कैसे बच सकते हैं। अगर असहमत थे तो उस वक्त रोका क्यों नहीं?
प्रधानमंत्री को देश को बताना पड़ेगा कि उस वक्त वे क्या कर रहे थे? जब राजा ‘पहले आओ पहले पाओ’ की जगह यह तय कर रहे थे कि पहले कौन आएगा। यही अजीब संकट है कि सरकार के इस नीतिगत फैसले की जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं है। पहले संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि कोई घपला हुआ ही नहीं। फिर राजा और दूसरे लोग जेल गए। सरकार के ही एक हिस्से सीबीआई ने कोर्ट से कहा कि एक लाख छहत्तर हजार करोड़ की लूट हुई है। सीएजी की रिपोर्ट को बकवास बताते हुए सीएजी पर ही सिब्बल ने हमला कर दिया। फिर विवाद की तह में जाने के लिए प्रणब मुखर्जी के वित्त मंत्रालय ने कानून, संचार मंत्रालय और कैबिनेट सचिवालय की मदद से यह स्टेटस रिपोर्ट बनाई जिसमें कहा गया कि तत्कालीन वित्तमंत्री चाहते तो घोटाला रुक सकता था। रिपोर्ट आरटीआई के जरिए पीएमओ से बाहर आई तो सलमान खुर्शीद बोले कि इस रिपोर्ट का कोई मतलब नहीं है क्योंकि यह रिपोर्ट मंत्री ने नहीं बल्कि किसी जूनियर अफसर ने बनाई है। दूसरे ही रोज प्रणब मुखर्जी ने प्रधानमंत्री को चार पेज की चिठ्टी लिख कर कहा कि रिपोर्ट मेरे विभाग ने अकेले नहीं पीएमओ, संचार मंत्रालय और कानून मंत्रालय की मदद से इंटरमिनिस्टिरीयल नोट बना है। यानी मामला गंभीर है। अब सोनिया गांधी की दखल से प्रणब दा से यह कहलवाया गया कि रिपोर्ट से वे निजी तौर पर सहमत नहीं हैं। हम सब जानते हैं कि सरकारों के कामकाज में निजी राय का क्या मतलब होता है?
प्रणब दा ने फिलहाल गुस्सा भले ही थूक दिया हो पर उनकी भाव-भंगिमा यह बता रही थी कि इस बयान के लिए उन पर कितना दबाव रहा है। चिदम्बरम से उनकी अदावत सिर्फ़ इस नोट को लेकर नहीं है। उन्होंने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी कि कोई उनके दफ़्तर की जासूसी करा रहा है।
इस पूरे मामले में सरकार की साख गई है। सरकार के भीतर भी अविश्वास की गहरी खाई जगज़ाहिर हुई है। प्रणब मुखर्जी के बयान और कांग्रेस के ‘डैमेज कंट्रोल’ से न सच बदलेगा और ना ही जनता में खोई साख लौटेगी। इसे प्रणब दा कैसे समझाएंगे कि जिस नोट को इतने लोगों ने बनाया। फ़ाइल आपने देखी। लेकिन उससे आप सहमत नहीं थे। अगर मंत्री विभागीय नोट से सहमत नहीं होता तो उसे खारिज करता है। आगे वह भी प्रधानमंत्री के पास नहीं भेजता। यह तो कैबिनेट सिस्टम का क ख ग है।
यह हमारे लोकतंत्र का विद्रूप चेहरा है कि जिस पर जनता की कमाई के हज़ारों करोड़ लुटाने का आरोप लगा वह कह रहा है कि अब हम यह मामला यहीं समाप्त करते हैं। प्रणब मुखर्जी के बयान के बाद चिदम्बरम ने कहा कि वे यह मामला अब समाप्त करते हैं। मामला ख़त्म नहीं कर सकते चिदम्बरम। वित्त मंत्रालय के नोट से जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई नहीं हो सकती। ना आगे होगी। तमाम अदालतों के बाद जनता की भी अदालत है। देश टू-जी स्पेक्ट्रम की लूट को बहुत करीब से देख रहा है। ठीक है गठबंधन राजनीति में नैतिकता और ईमानदारी फालतू शब्द हो सकते हैं लेकिन जनता के बीच इन शब्दों के अभी भी मायने हैं।
— हेमंत शर्मा, न्यूज़ डायरेक्टर, इंडिया टीवी
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