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सुबह से भाग-भाग कर बाघिन पूरी तरह थक चुकी थी। वह मुझसे सिर्फ 10 फीट दूर मानो आत्म समर्पण की मुद्रा में थी। मुझे लगा कि भीड़ के हिंसक इरादों को समझकर अपने आपको बचाने की गुहार लगा रही है। इसे मैंने और मेरे साथियों ने समझ भी लिया।
मैंने उस पर जाल फेंका और वह दुबक कर खड़ी हो गई। इतने में किसी ने उसको पत्थर मारा। पत्थर की चोट से वह तिलमिला गई और एक जोरदार दहाड़ मारी। उसकी दहाड़ से भीड़ तितर-बितर हो गई। मगर फिर लौट भी आई। बाघिन समझ गई कि भीड़ में शामिल निर्दयी लोग उसकी जान के प्यासे हैं। वह एक बार फिर भागी। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। कुछ ही दूरी पर वह दलदल में जा फंसी। इस लाचार बाघिन पर गांव वालों ने फिर जाल फेंका और पलक झपकते ही लाठी और डंडे लेकर टूट पड़े। ऐसा लग रहा था मानो बाघिन से उनकी कोई पुश्तैनी दुश्मनी हो। हम खड़े-खड़े बेबस सबकुछ देखते रहे और मिनटों में बाघिन ने दम तोड़ दिया।
हम चाह कर भी कुछ नहीं कर सके। 30 साल की नौकरी में मैंने पहली बार ऐसी घटना देखी। मेरी आंखों से आंसू बह रहे थे और जुबान से बोल नहीं फूट रहे थे। मैं और मेरे साथी भीड़ के आगे लाचार थे। राजनांदगांव के डीएफओ और रेंजर भी वहां मौजूद थे, लेकिन किसी में हिंसक भीड़ को रोकने की हिम्मत नहीं थी। हम सब जानते थे कि बाघिन के साथ जो हुआ, वह हमारे साथ भी हो सकता है। लगभग १0 हजार लोग एक बाघिन को मारने के बाद ऐसे जश्न मना रहे थे जैसे कोई बड़ी विजय हासिल हो गई हो।
बाघ को हमारे हिंदू धर्म में मां दुर्गा की सवारी के रूप में देखा जाता है। कुछ दिनों बाद नवरात्रि में हम उसकी पूजा भी करेंगे। लेकिन भय से आदमी कितना संवेदनहीन हो जाता है। हमने एक ऐसी बाघिन को मार डाला जिसने अपना जीवन शुरू ही किया था। पांच साल की यह बाघिन अभी जवान हुई ही थी और एक बार भी गर्भवती नहीं हुई थी। यह बाघिन हमारे प्रदेश में लुप्त प्राय बाघों की संख्या को बढ़ा सकती थी। लेकिन ग्रामीणों के गुस्से ने एक कहानी को शुरू होने से पहले ही खत्म कर दिया। (राजनांदगांव के छुरिया ब्लॉक में बाघिन की बर्बर हत्या के चश्मदीद रहे नंदनवन के वनपाल केएस तिवारी ने जैसा अमनेश दुबे को बताया)
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