विचारधाराओं का संगम इंडियन कॉफी हाऊस

Published: Tuesday, Apr 24,2012, 17:58 IST
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शाह आलम भाई के अनुभवों का फायदा मुझे पिछले करीब 10 महीने से मिल रहा है। वो मेरे सहकर्मी और सहयोगी भी हैं। आज जब कनॉट प्लेस में बिना किसी काम के पहुँचा तो मन हुआ कि कॉफी हाऊस चला जाए। सबसे पहले जहन में शाह आलम भाई की तस्वीर उभर आई, जेब से फौरन मोबाइल निकाला और मिला दिया उनका नंबर। हाल चाल लेने के बाद कॉफी हाऊस का पता चल पाया। हालांकि कॉफी हाऊस की जानकारी मुझे पहले भी थी लेकिन शाह भाई ने मुझे बताया था कि अब इंडियन कॉफी हाऊस जोकि 1957 के बाद से ही अस्तित्व में आ चुका था अब उसके साथ बुजुर्ग शब्द जुड़ गया है। खैर मैने शाह भाई से जानना चाहा कि युवाओं का कॉफी हाऊस कहाँ है तो वो भी ठीक से बता नही पाए। खैर सोचा अभी बुजुर्गों के कॉफी हाऊस में ही चल लेते हैं, सो पहुँच गए। कॉफी हाऊस में कदम रखते ही दिल का एक और अरमान पूरा हो चला था।

मोहन सिंह प्लेस का ये कॉफी हाऊस कई पन्नों पर खुद को दर्ज करा चुका है। कॉफी हाऊस में इक्का दुक्का बूढे अंग्रेजी अखबार पढ रहे थे। एक युवा जोड़ा कुछ गुफ्तगु करने में मशरूफ था। दो ऑफिशियल लोग ख्वाबों की ऊंची मीनारों के आसरे अपने-अपने उज्जवल भविष्य की इमारत को खड़ा करने की कवायद में जुटे हुए थे। एक भ्रांति तो दूर हो गई कि कॉफी हाऊस पर सिर्फ बुजुर्गों का ही कब्जा नही है उस पर युवाओं का भी बराबर का हक है। कई सोफे फट चुके हैं। पंखे भी चलने के दौरान बेकग्राऊंड स्कोर देते रहते हैं। लेकिन फिर भी एक शांति है जिसकी तलाश में मेरे जैसे कई खिंचे चले आते हैं। बैठ गया, मेन्यू पर नज़र डाली तो दिल खुश हो गया मतलब की जगह और मतलबी रेटों को देखकर लगा चलो एक नया अड्डा ढूंढने में कामयाबी मिली। आर्डर दिया कोल्ड क्रीम कॉफी का और अखबार के आसरे देश और दुनिया के हालातों से रूबरू होने की कवायद की शुरूआत कर दी। तीन लोग आकर मेरे बगल वाले सोफे पर बैठ गए। मैं अखबार में मशरूफ था अचानक तेज स्वर सुनाई दिया “वामपंथ अब एक विचार नही रहा बल्कि राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि का साधन रह गया है” वामपंथी मित्र को बुरा लगा तो उसने भी कांग्रेस और दक्षिणपंथियों की बखिया उधेड़नी शुरू कर दी। सिलसिला चल चुका था कभी हंसी तो कभी रोष। लेकिन फिर भी चर्चा संतुलित और स्वस्थ। तीन विचारधाराओं का संगम होता देखा कॉफी हाऊस में।

जामिया के फाऊंटेन लॉन, दिल्ली यूनिवर्सिटी की लॉ फैकल्टी और जे.एन.यू के गंगा ढाबा पर अक्सर बहस का हिस्सा बनने का सौभाग्य मिला मगर उस बहस का अंतिम परिणाम विवादित विषयों का निपटारा न होकर एक नए विवाद को मन में घर कर देना भर रह जाता था लेकिन कॉफी हाऊस की उस बहस में निपटारा भी था, विवाद भी था, समस्याओं का समाधान और हंसी का पिटारा भी था। कॉफी के कप में कई विचारों को ढूंढ-ढूंढकर निकालने वाले भी देखने के मिल जाते हैं यहाँ। काफी खुला हुआ है यहाँ का एरिया लेकिन भीड़ नजर नही आती, कई कॉफी के अड्डे खुल गए हैं ना ! अब लोग कॉफी की तुलना हॉट सन्नी लियोन से करते हैं और कॉफी हाऊस का मिज़ाज बताता है कि सन्नी लियोन पर सिर्फ चर्चा तो यहाँ हो सकती है लेकिन फूहड़ता का फ्लेवर यहाँ की कॉफी में नही मिल सकता। शायद इसलिए भीड़ कम ही नज़र आती है! शहर की तेज़-तर्रार और सिर झन्न कर देने वाली जिंदगी में सूकूं के दो पल बिताना बहुत जरूरी है। विचारों के जन्म के लिए जिस आत्मिक और बौद्धिक शांति की आवश्यकता होती है उसकी प्राप्ति मेरे लिहाज से यहाँ हो सकती है। बाथरूम की भयानक बदबू हालांकि इस मामले में अपवाद हो सकती है लेकिन कौन सा हमें बाथरूम में बैठकर कॉफी पीनी है। लेकिन सफाई हो जाए तो बेहतर ही होता है। क्योंकि कई बार शौचालय में भी सोच का सृजन होता है।

मंडी हाऊस, कटवारिया सराय, नार्थ कैंपस, जामिया का फाऊंटेन पार्क, जे.एन.यू. का ढाबा, मुखर्जी नगर, क्रिश्चियन कॉलोनी और न जाने ऐसी ही कितनी जगहें, रचनात्मक लोगों के सोचने विचारने और टाइम पास करने के अड्डे में शुमार हैं। उसी तरह मोहन सिंह प्लेस का ये कॉफी हाऊस अपने आप में परिपूर्ण है एक सामाजिक सोच विकसित करने के लिए जहाँ टेबल पर आपके सामने पानी और कॉफी एक आर्डर पर आ जाते है। और क्या चाहिए, सरकार के दावों की हवा निकालते शिगुफे, और कभी-कभी तो किस्सों कहानियों के कथानक और मेरे जैसे कुछ लिखने वालों के लिए लिखने का बहाना ये कॉफी हाऊस गाहे-बगाहे बन ही जाता है। 2 घंटे कॉफी हाऊस में बैठना मेरे लिए एक अविस्मरणीय अनुभव रहा जिसको शब्दों में बयाँ करना जरा मुश्किल है लेकिन मुझे भरोसा है कॉफी हाऊस की इस पहली कॉफी की महक, वेटर का वो सादा लिवाज़ सिर पर ताज़ की तरह सजती नेहरू टोपी, और सबसे अहम विचारधाराओं के संगम की ये अवधारणा मेरे ज़हन में रचनात्मक रूप में सदैव व्याप्त रहेगी।

अमित कुमार (लेखक पत्रकार हैं, जनता टीवी में कार्यरत हैं)

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