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विदेशी भाषा की चाह में भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत की हत्या

ऐसा लगता है कि सोनिया-मनमोहन सरकार का एकमात्र लक्ष्य है
भारतीयता, भारतीय संस्कृति और सभी भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत भाषा
को मिटाना। इसलिए कभी वह भारतीयता पर चोट करती है, कभी भारतीय
संस्कृति के विरुद्ध कार्य करती है, तो कभी संस्कृत की 'हत्या' के लिए
विदेशी भाषा रूपी शस्त्र चलाती है। संस्कृत की हत्या? जी हां, यह सरकार जिस नीति पर चल रही
है उससे तो संस्कृत भाषा एक-दो साल में तड़प-तड़प कर अपने प्राण त्याग
देगी। उल्लेखनीय है कि देश के सभी 987 केन्द्रीय विद्यालयों में कक्षा
6 से 8 तक संस्कृत भाषा अनिवार्य रूप से पढ़ाई जाती है। किन्तु 4
अप्रैल, 2012 को सरकार ने संस्कृत पढ़ाने की अनिवार्यता समाप्त कर दी
है। अब बच्चे संस्कृत की जगह फ्रेंच और जर्मन भी पढ़ सकेंगे।
दिल्ली और उसके आस-पास तथा कुछ अन्य महानगरों के केन्द्रीय विद्यालयों
में जर्मन और फ्रेंच की पढ़ाई भी शुरू हो गई है। संस्कृत के अध्ययन की
अनिवार्यता समाप्त होने और विदेशी भाषा की चाह के कारण अधिकांश
अभिभावक अपने बच्चों को संस्कृत के स्थान पर फ्रेंच या जर्मन पढ़ने को
कह रहे हैं। संस्कृत-सेवियों का मानना है कि भारतीयों पर चढ़ा विदेशी
भाषा का यह भूत संस्कृत की 'हत्या' कर देगा। संस्कृत-सेवियों का कहना
है विदेशी भाषा की आड़ में यह सरकार संस्कृत को पूरी तरह समाप्त करने
पर तुली है। संस्कृत हमारी प्राचीन भाषा (संस्कृत बनेगी नासा की भाषा) है। दुनिया के अन्य
देश अपनी प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और भाषा को बचाने के लिए कटिबद्ध
हैं, जबकि भारत में प्राचीन भाषा संस्कृत की पढ़ाई तक बन्द की जा रही
है।
लोग प्रश्न कर रहे हैं कि केन्द्रीय विद्यालयों में अभी फ्रेंच और
जर्मन के शिक्षक भी उपलब्ध नहीं हैं, फिर उन्हें पढ़ाने की जल्दबाजी
क्यों की जा रही? जबकि सभी केन्द्रीय विद्यालयों में संस्कृत के योग्य
एवं प्रशिक्षित शिक्षक उपलब्ध हैं। केन्द्रीय विद्यालयों पर कड़ी नजर
रखने वाले एक विद्वान ने बताया कि फ्रेंच और जर्मन की अभी न तो
पुस्तकें ही उपलब्ध हैं और न ही पाठ्यक्रम। अभी दिल्ली और आसपास के
केन्द्रीय विद्यालयों में फ्रेंच और जर्मन जो लोग पढ़ा रहे हैं, उनके
पास अपेक्षित उपाधियां भी नहीं हैं। इनमें से अधिकांश के पास नई
दिल्ली के भारतीय विद्या भवन और मैक्समूलर भवन से फ्रेंच या जर्मन में
छह-छह महीने का पाठ्यक्रम पूरा करने का डिप्लोमा है। यह डिप्लोमा
बारहवीं उत्तीर्ण कोई भी विद्यार्थी प्राप्त कर सकता है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जर्मन और फ्रेंच में बी.ए. कराता है। हो
सकता है फ्रेंच और जर्मन पढ़ाने वालों में किन्हीं के पास बी.ए. की
उपाधि भी हो। फिर भी उसके पास शिक्षक बनने की पात्रता नहीं है। फिर
उन्हें किस आधार पर केन्द्रीय विद्यालयों में पढ़ाने की अनुमति मिल
रही है? केन्द्रीय विद्यालय के एक अन्य शिक्षक ने नाम न छापने की शर्त
पर कहा कि फ्रेंच और जर्मन के तथाकथित शिक्षकों को विशेष सुविधाएं
क्यों दी जा रही हैं?
बिना तैयारी के जल्दबाजी में फ्रेंच और जर्मन की पढ़ाई शुरू तो कर दी
गई है। किन्तु देश के सभी केन्द्रीय विद्यालयों में फ्रेंच और जर्मन
के इतने शिक्षक कहां से आएंगे? किसी छात्र के सामने उस समय बड़ी
समस्या खड़ी होगी जब वह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के किसी केन्द्रीय
विद्यालय से दूर देश के किसी अन्य केन्द्रीय विद्यालय में जाएगा।
उल्लेखनीय है कि केन्द्रीय विद्यालयों में सरकारी सेवा में लगे लोगों
के बच्चे ही मुख्य रूप से पढ़ते हैं। यदि दिल्ली में कार्यरत किसी
कर्मचारी का स्थानान्तरण पटना हो जाता है तो स्वाभाविक रूप से वह अपने
बच्चों को भी पटना के किसी केन्द्रीय विद्यालय में दाखिला दिलाएगा।
यदि उसके बच्चे दिल्ली में फ्रेंच या जर्मन पढ़ रहे होंगे तो पटना में
वह क्या पढ़ेगा? क्योंकि वहां तो इन विषयों के शिक्षक ही नहीं हैं।
फिर भी पता नहीं सरकार किस दबाव में फ्रेंच और जर्मन को पढ़ाने की
जल्दबाजी कर रही है।
# संस्कृत बनेगी नासा की भाषा, पढ़ने से गणित और विज्ञान की
शिक्षा में आसानी
# भारत में ७ लाख ३२ हज़ार गुरुकुल एवं विज्ञान की २० से अधिक
शाखाएं थीं
# मैकॉले का अभियान सौ वर्ष के अंदर इंडिया के कोने-कोने तक
पहुंचा
# कब तक शर्म करते रहेंगे अपने भारतीय होने पर?
- अरुण कुमार सिंह, पाञ्चजन्य
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