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पेड न्यूज, इतनी जल्दी खत्म नहीं होगा ये रोग - सोचिए जरा!
देश में सबसे तेजी से बढ़ने वाले अखबार का दावा करने वाले उत्तर
प्रदेश में अच्छी प्रसार संख्या वाला एक अखबार अपने पाठकों के साथ किस
कदर छलावा, धोखा कर रहा है उसे उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव की कवरेज
में देखा जा सकता है।
देश में सबसे तेजी से बढ़ने वाले अखबार का दावा करने वाले उत्तर
प्रदेश में अच्छी प्रसार संख्या वाला एक अखबार अपने पाठकों के साथ किस
कदर छलावा, धोखा कर रहा है उसे उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव की कवरेज
में देखा जा सकता है। विधानसभा चुनाव के पहले इस अखबार ने ‘आओ राजनीति
करें’ नाम से एक बड़े कैम्पेन की शुरूआत की। अखबार ने पहले पेज पर एक
संकल्प छापा कि वह चुनाव को निष्पक्ष तरीके से कवरेज और पेड न्यूज से
दूर रखेगा, लेकिन इस संकल्प की कैसे ऐसी-तैसी हो रही है, पाठकों को तो
जानना ही चाहिए, प्रेस काउंसिल और चुनाव आयोग को भी इसका संज्ञान लेना
चाहिए। अखबार में एक तरफ यह संकल्प छापा गया तो दूसरी तरफ विज्ञापन
विभाग ने उम्मीदवारों से विज्ञापन का पैसा वसूलने की नई तरकीब निकाली।
उसने सवा लाख, सवा दो लाख, पांच लाख और छह लाख का एक पैकेज तैयार
किया। इसके अनुसार जो उम्मीदवार यह पैकेज स्वीकार कर लेगा, उसके
विज्ञापन तो क्रमशः छपेंगे ही, नामांकन, जनसम्पर्क आदि में उसकी खबरों
को वरीयता दी जाएगी। साथ ही उसका इंटरव्यू छपेगा और अखबार में इंसर्ट
कर उसके पक्ष में पांच हजार पर्चे बांटे जाएंगे।
प्रत्याशियों पर इस पैकेज को स्वीकार करने के लिए दबाव बनाने के
उद्देश्य से प्रत्याशियों और उनकी खबरें सेंसर की जाने लगीं।
जनसम्पर्क, नुक्कड़ सभाएं आदि की खबरें पूरी तरह सेंसर कर दी गईं या
इस तरह दी जाने लगीं कि उसका कोई मतलब ही न हो। केवल बड़े नेताओं की
कवरेज की गई। प्रत्याशियों को विज्ञापन देने पर यह सुविधा भी दी गई कि
उनसे भले 90 रुपए प्रति सेंटीमीटर कालम की दर ली जाएगी, लेकिन उसकी
रसीद दस रुपये प्रति सेंटीमीटर कालम दी जाएगी, ताकि वह चुनावी खर्च
में कम धन का खर्च होना दिखा सकें। इसके अलावा स्ट्रिंगरों को यह लालच
दिया गया कि प्रत्याशियों से पैकेज दिलाने में सफल होने पर उन्हें
तयशुदा 15 प्रतिशत कमीशन के अलावा अतिरिक्त कमीशन तुरन्त प्रदान किया
जाएगा। इतनी कोशिश के बावजूद प्रत्याशियों ने बहुत कम विज्ञापन उस
अखबार को दिए। पैकेज तो इक्का-दुक्का लोगों ने ही स्वीकार किए। इसके
पीछे कारण यह था कि प्रत्याशी चुनाव आयोग के डंडे से बहुत डरे हुए
हैं।
एक दूसरा कारण यह भी है कि उन्हें अखबार में विज्ञापन छपने से कुछ
ज्यादा फायदा न होने की बात ठीक से मालूम है। उन्होंने पिछले विधानसभा
और लोकसभा चुनाव में देखा है कि लाखों रुपये खर्च कर रोज विज्ञापन
देने वाले प्रत्याशियों को भी बहुत कम वोट मिले और जिनके बारे में
अखबारों में न खबर छपी, न विज्ञापन, उन्हें बहुत वोट मिले और कई तो
चुनाव भी जीत गए। चुनाव में करोड़ों की वसूली का सपना देखने वाले उस
अखबार का मंसूबा जब पूरी तरह ध्वस्त हो गया तो उसने एक हैरतअंगेज काम
कर डाला। चार फरवरी के अंक में पहले पन्ने पर उसने एक खबर प्रमुखता से
प्रकाशित की। यह खबर कथित सर्वे के आधार पर थी। इसमें कहा गया था कि
35 फीसदी मतदाता अपने प्रत्याशियों को नहीं जानते। यह पूरी तरह अखबार
द्वारा प्रायोजित खबर थी। एक जिले में 200 लोगों को फोन कर यह सर्वे
कर लिया गया। अब आप ही अंदाजा लगाइए कि अमूमन एक विधानसभा क्षेत्र में
तीन लाख से अधिक वोटर होते हैं। ऐसे में कथित रूप से 200 लोगों से फोन
पर बात कर यह निष्कर्ष निकाल लेना कि वोटर अपने प्रत्याशियों को नहीं
जानते, कितना उचित है। लेकिन इस अखबार ने उत्तर प्रदेश में ऐसा किया।
इसके पीछे उसका मकसद प्रत्याशियों में यह संदेश देना था कि उनके बारे
में मतदाताओं को पता नहीं है, इसलिए उन्हें खूब विज्ञापन देना चाहिए।
लगता नहीं कि इस अखबार की इस गंदी हरकत के प्रभाव में कोई प्रत्याशी
आने वाला है। पूरे चुनाव में इसने ऐसी कई प्रायोजित खबरें छापीं जिनका
मकसद प्रत्याशियों को विज्ञापन और पेड न्यूज के लिए उकसाना था।
बसपा और मायावती के दो पेज के दो बड़े खबरनुमा विज्ञापन छापना एक तरह
का पेड न्यूज ही तो था। इस दो पेज के कथित विज्ञापन में कहीं नहीं
लिखा था कि यह किसके द्वारा जारी किया गया है। इसके उपर दाहिने कोने
पर मीडिया मार्केटिंग इनिशिएटिव लिखा गया था। इस अखबार के संपादक और
उनकी मंडली को बताना चाहिए कि क्या हिन्दी अखबार का पाठक इतना सचेत और
जागरूक है, जो उनके इस खबरनुमा विज्ञापन को विज्ञापन ही समझेगा? एक
सवाल और, पूरे चुनावी कवरेज में मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की
सभाओं की फोटो एक खास एंगिल से क्यों खींची गई और इसे ही क्यों छापा
गया जिससे दोनों की सभाओं में अपार भीड़ दिखाई देती है। कोई भी पाठक
इस अखबार के किसी भी एडिशन के अंक में यह कलाबाजी देख सकता है। क्या
यह पेड न्यूज नहीं है? सवाल और भी हैं। सोचिए जरा!
- आशीष कुमार ‘अंशु’ (भारतीय पक्ष)
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