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27 फरवरी 2002. 'आधुनिक' भारत के इतिहास का एक और काला दिन. इसी
दिन इस 'स्वतंत्र' और "धर्मनिरपेक्ष" देश में सुबह 7:43 बजे गुजरात के
गोधरा स्टेशन पर इसी देश के 58 नागरिकों (23 पुरुषों, 15 महिलाओं और
20 बच्चों) को साबरमती एक्सप्रेस के कोच S-6 में ज़िंदा जला दिया गया.
उनका 'अपराध' शायद ये था कि वे अपनी धार्मिक आस्थाओं के अनुसार
अयोध्या को श्रीराम की जन्मभूमि मानते थे और उसी अयोध्या की अपनी
तीर्थयात्रा से लौट रहे थे.
मैंने सुना है कि इस देश में नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का
अधिकार प्राप्त है. मैंने ये भी सुना है कि इस देश में मानवाधिकारों
और महिला-अधिकारों की रक्षा के लिए भी अनेक प्रावधान हैं. लेकिन मुझे
ये नहीं मालूम कि ये अधिकार हिंदुओं के लिए भी हैं या नहीं. सुना तो
मैंने ये भी है कि इस देश का मीडिया बहुत 'जागरूक', 'निष्पक्ष' और
'ज़िम्मेदार' मीडिया है. मीडिया में गोधरा के बाद पूरे गुजरात में हुए
दंगों की खबरें खूब सुनने को मिलीं, लेकिन अफसोस! गोधरा में मारे गए
लोगों के परिवार की व्यथा विश्व को सुनाने का समय शायद किसी चैनल,
किसी अखबार को नहीं मिला.
मुस्लिम-बहुल गोधरा में दंगों का एक पुराना इतिहास रहा है. वीकिपीडिया पर उपलब्ध जानकारी के
अनुसार गोधरा में 1947-48, 1953-55, 1965, 1980-81 और 1985 में भी
भीषण दंगे हुए थे, जिन्हें नियंत्रित करने के लिए कई बार सेना की मदद
भी लेनी पड़ी. 27 फरवरी 2002 की घटना के बाद दंगों की इस गाथा में एक
काला अध्याय और जुड़ गया है. गोधरा की इस भीषण घटना में जीवित बचे एक
प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार उस दिन सुबह गोधरा स्टेशन के पास 'सिग्नल
फालिया' में लगभग 3000 लोग एकत्रित थे. द ट्रिब्यून (The Tribune) के
अनुसार साबरमती एक्सप्रेस जैसे ही स्टेशन से आगे बढ़ी, गाड़ी में पहले
से सवार हो चुके लोगों में से किसी ने चेन खींचकर ट्रेन रोक दी और
तुरंत ही बाहर से भीड़ ने पथराव शुरू कर दिया. इससे बचने के लिए अंदर
बैठे यात्रियों ने दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर लीं. कुछ ही देर बाद
बाहर से पेट्रोल और केरोसीन छिड़ककर डिब्बे में आग लगा दी गई. गोधरा के
एक पेट्रोल पंप पर काम करनेवाले दो कर्मचारियों के अनुसार एक दिन
पूर्व ही कुछ लोगों द्वारा उनके पेट्रोल-पंप से 140 लीटर पेट्रोल
खरीदा गया था.
# गोधरा से पूर्व दंगो का इतिहास
1715-1969 ...
# गुजरात दंगों का सच, छद्म धर्मनिरपेक्षता
के दोहरे मापदंड ...
गोधरा-कांड की जांच के लिए गठित नानावती आयोग और साथ ही राज्य की SIT
की रिपोर्ट के अनुसार गोधरा की घटना एक सुनियोजित षड्यंत्र का परिणाम
थी. पूर्व रेल-मंत्री लालूप्रसाद यादव द्वारा नियुक्त बनर्जी कमीशन ने
ट्रेन में सवार यात्रियों को ही इस अग्नि-कांड के लिए दोषी ठहराया था,
लेकिन 13 अक्टूबर 2006 को गुजरात उच्च-न्यायालय ने इस रिपोर्ट को
असंवैधानिक करार देते हुए निरस्त कर दिया. हत्याकांड के नौ वर्षों बाद
22 फरवरी 2011 को एक विशेष अदालत ने 31 लोगों को गोधरा की घटना के लिए
दोषी करार दिया, जिनमें से 11 लोगों को मृत्यु-दंड और 20 को आजीवन
कारावास की सजा सुनाई गई.
हालांकि, कानूनी प्रक्रिया अभी लंबी चलेगी, लेकिन मेरे मन में सवाल ये
है कि देश में होने वाली इस तरह की घटनाओं और सांप्रदायिक दंगों का
सिलसिला आखिर कब रूकेगा? और रूकेगा भी या नहीं? आखिर इसका परिणाम क्या
होगा? गोधरा हत्याकांड और उसके बाद पूरे गुजरात में हुए दंगे इस बात
का एक खतरनाक संकेत हैं कि हमारे देश में शांति और सद्भाव को खत्म
करने के लिए किसी विदेशी शक्ति की आवश्यकता नहीं है. दंगों के बाद
मीडिया के माध्यम से शोर मचाकर तथाकथित 'सेक्युलर' समूहों और NGOs के
बीच जिस तरह श्री नरेंद्र मोदी को दंगों का गुनहगार साबित करने की होड़
दिखाई दी, उससे फिर मुझे यही महसूस होता है कि हम आपस में ही
लड़ने-मिटने को तैयार बैठे हैं. मेरे मन में प्रश्न ये है कि मोदी के
खिलाफ शोर मचाने वालों के मन में इस देश के लोकतंत्र और न्याय-तंत्र
पर विश्वास है या नहीं? गुजरात दंगों के बाद हुए दोनों विधानसभा
चुनावों में मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा ने गुजरात में जीत हासिल की
है. साथ ही, उनके खिलाफ जो प्रकरण न्यायालय में दाखिल किए गए थे, उन
पर निर्णय न्यायालय में होगा ही. फिर बेवजह शोर मचाकर देश में
सांप्रदायिक वैमनस्य बढाने का प्रयास क्यों? मुझे आश्चर्य होता है कि
गुजरात दंगों के दोषियों को कड़ी सज़ा दिलाने के लिए आंदोलन चलाने वाले
कभी गोधरा के दोषियों के खिलाफ आवाज़ क्यों नहीं उठाते? नरेंद्र मोदी
को गुनहगार बतानेवाले लोग 1984 के सिख दंगों पर मौन क्यों हैं?
अल्पसंख्यकों के अधिकार और उनकी सुरक्षा जितनी महत्वपूर्ण है, क्या
बहुसंख्यकों के अधिकारों और उनकी सुरक्षा को भी उतना ही महत्व नहीं
दिया जाना चाहिए?
मुझे लगता है कि गुजरात दंगों जैसी घटनाओं के संदर्भ में अपनी
सुविधानुसार निष्कर्ष निकालने वालों को पूर्वाग्रहों से बाहर निकलकर
सत्य को स्वीकार करना चाहिए. गुजरात दंगों की बात गोधरा के बिना अधूरी
है. झूठे आरोप-प्रत्यारोप किसी को तात्कालिक लाभ तो दिला सकते हैं,
लेकिन ये देश और समाज को नुकसान ही पहुंचाते हैं. आवश्यकता इस बात की
है कि हम संगठित होकर इस तरह के कुचक्रों का सामना करें और उन्हें
परास्त करें. यही गोधरा के शहीदों के लिए हमारी सच्ची श्रद्धांजलि
होगी.
सुमंत विद्वांस | लेखक से फेसबुक पर जुडें facebook.com/sumantv
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं एवं यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं
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