आईबीएन समूह के सर्वेसर्वा राजदीप सरदेसाई अगर ब्रिटेन या अन्य यूरोपीय देशों में होते तो निश्चित मानिए कि उनकी जगह जेल होत..
उत्तर प्रदेश में उभरेगा युवा नेतृत्व : डॉ. वेदप्रताप वैदिक

उत्तरप्रदेश के चुनाव का महत्व किसी भी प्रदेश के चुनाव से कई
गुना है। ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं है कि वह सबसे बड़ा प्रदेश है और उसके
करोड़ों वोटरों की संख्या दुनिया के कई राष्ट्रों की जनसंख्या से भी
ज्यादा है। इस तथ्य की अपनी भूमिका है लेकिन वर्तमान चुनावों का जैसा
नाटकीय असर उ.प्र. की राजनीति पर इस बार होनेवाला है, वैसा अब से पहले
शायद किसी भी चुनाव का नहीं हुआ है। यह चुनाव चाहे उ.प्र. की किसी भी
समस्या का मौलिक समाधान न कर पाए लेकिन यह युवा नेतृत्व को उभारे बिना
नहीं रहेगा।
सबसे पहले तो हम इस तथ्य पर ध्यान दें कि हर चरण के मतदान में
मतदाताओं की संख्या जबर्दस्त ढंग से बढ़ती चली जा रही है। आजादी के
बाद उ.प्र. में इतना मतदान पहले कभी नहीं हुआ। इस जागृति का रहस्य
क्या है? चुनाव आयोग ने इस बार हर मतदाता के घर पर्ची भेजी। इस नए कदम
ने वोटरों को घर से निकलने के लिए प्रेरित किया। पहले यही काम
पार्टियॉं करती थीं। वे उन इलाकों में वोटर-पर्ची ही नहीं बांटती थीं,
जिन्हें वे अपना विरोधी समझती थीं। वोटरों के मन में अनिश्चय बना रहता
था कि वे मतदान केंद्र तक जाएं या न जाएं। अब स्त्री-पुरूष और
युवा-वृद्ध झुंड के झुंड बनाकर मतदान केंद्रों पर पहुंच रहे हैं।
दोपहर तक कई केंद्रों पर 50 प्रतिशत से अधिक तक मतदान हो रहा
है।
वोटरों की संख्या बढ़ने का एक बड़ा कारण यह भी है कि पिछले एक
वर्ष में दो बड़े जन-आंदोलन देश में चले। उन्होंने भ्रष्टाचार के
विरूद्ध पहले से चल रही लहर को ज़रा नई ऊंचाइयां प्रदान कीं। लोकपाल
और काले धन के मुद्दों ने साधारण वोटरों पर चाहे सीधा असर नहीं किया
हो लेकिन राष्ट्रकुल खेल और 2 जी स्पेक्ट्रम घोटालों ने देश के
राजनीतिक माहौल को गरमा दिया। अन्ना का आंदोलन अभी चाहे ठंडा पड़ गया
हो लेकिन स्वामी रामदेव की सभाओं में अब भी लाखों
लोग जमा हो रहे हैं। वे उ.प्र. के कई जिलों में घूम-घूमकर वोटरों से
कह रहे हैं कि अपने-अपने घरों से निकलो और भ्रष्टाचारियों को हराओ।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने भी चुनाव आयोग के इस मतदाता-जागृति अभियान का शुभारंभ
करके लोगों को प्रेरित किया।
स्वयं उत्तरप्रदेश में भ्रष्टाचार सबसे ज्वलंत मुद्दा है। इस
मुद्दे की भाड़ में सबसे ज्यादा ईंधन मायावती ने ही झोंका है।
उन्होंने अपने लगभग 20 भ्रष्ट मंत्रियों को निकाला और दर्जनों
उम्मीदवारों को बदल दिया। उन्होंने तो ऐसा यह सोचकर किया कि इससे उनकी
छवि चमकेगी लेकिन इसका असर उल्टा ही हो रहा है। आम लोगों के मन पर
पड़ी यह छाप कि मायावती सरकार सर्वाधिक भ्रष्ट है, पहले से ज्यादा
मजबूत हो गई है। मायावती ने मूर्तियों और पत्थरों पर अरबों रू. खर्च
कर दिए कि ये दिखावटी चीजें वोट खींचने का साधन बनेंगी लेकिन इसका
परिणाम भी उल्टा ही आ रहा है। चुनाव आयोग ने जब से इन मूर्तियों को
ढका है, तब से लोगों का ध्यान उन पर कहीं ज्यादा जा रहा है। पत्थर की
इन ढकी हुई लाशों से उठनेवाली भ्रष्टाचार की सड़ांध बहुत जानलेवा
सिद्ध हो रही है। इसीलिए लोग मतदान-केंद्रों की तरफ दौड़े चले जा रहे
हैं। डर यही है कि कहीं मायावती का सूपड़ा ही साफ न हो जाए।
जब बहुत ज्यादा मतदान होता है तो वह आम आदमी के दिल में आए किसी
जोश-खरोश, क्रोध, आशा या आभार का प्रदर्शन होता है। उत्तरप्रदेश में
इस समय कोई जोश-खरोश या आभार का प्रश्न ही नहीं उठता। हॉं भ्रष्टाचार
पर क्रोध और युवा नेतृत्व से आशा का माहौल जरूर दिखाई पड़ता है। इस
साल देश में जो करोड़ों नए और युवा मतदाता हैं, उनका करिश्मा
उत्तरप्रदेश में दिखाई पड़ रहा है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध सबसे ज्यादा
घृणा युवजन को ही होती है। युवा लोग बेदाग होते हैं और सपने देखते
हैं। वे नेतृत्व के तबकों में भी अपने ही जैसे लोगों से प्रभावित होते
हैं। उत्तरप्रदेश के भ्रष्टाचार-विरोधी माहौल में युवजन सहित आम लोग
एक दम ताजा और नए चेहरे देखना चाहते हैं। ये चेहरे वहां जमकर दिखाई
पड़ रहे हैं। राहुल और प्रियंका के क्या कहने? दोनों भाई-बहन को
अखबारों और टीवी चैनलों ने हथेली पर उठा रखा है। यों भी राहुल ने
भट्टा-पारसौल जाकर और कुछ दलितों के घर भोजन करके अपनी अच्छी छवि बनाई
है लेकिन दोनों भाई-बहन मंचों से जिस तरह की हिंदी बोलते हैं और
राजनीतिक मुद्दों पर जैसे अटपट-लटपट वाक्य बिलोते हैं, उससे भोलेपन और
भलेपन लेकिन भौंदूपन की छवि ही बनती है। आज का जागरूक नौजवान इस छवि
से कितना प्रभावित हो रहा है, यह जानना कठिन है। इसके अलावा कांग्रेस
के पास कोई मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नहीं है। स्वयं राहुल और
प्रियंका उ.प्र. के दलदल में नहीं फंसना चाहते। उनमें से एक की नज़र
प्रधानमंत्री पद पर लगी है। ऐसी उलझन में फंसी कांग्रेस को कोई
प्रांतीय मतदाता कितना समर्थन देंगे, कहना कठिन है।
कांग्रेस के मुकाबले सपा के अखिलेश यादव के तरकस में कहीं अधिक
तीर हैं। वह जवान है, कहीं अधिक सुंदर और तेजस्वी है। उसके चेहरे और
बोली में जो ओज है, वह मतदाताओं को रिझाता है। राहुल और प्रियंका की
तरह अखिलेश का कागज भी कोरा ही है। उस पर कोई दाग नहीं है। लेकिन
उ.प्र. में वह अतिथि कलाकार नहीं है। जनता उसे मौका देगी तो वह
मुख्यमंत्री भी बन सकता है। उमा भारती भी अतिथि कलाकार है। कांग्रेस
ओर भाजपा ने कोई ऐसा नेता नहीं उछाला जो मुख्यमंत्री बन सके। जहां तक
मायावती तथा अन्य दलों के बुजुर्ग नेताओं का सवाल है, वे बासी कढ़ी की
तरह हैं। उ.प्र. की जनता अब इस बदबूदार बासी कढ़ी को चखने के लिए भी
तैयार नहीं है। उसे ताजा भोजन चाहिए, खासकर युवा मतदाताओं को! यह भोजन
अखिलेश, राहुल, जयंत चौधरी जैसे युवा और निष्कलंक नेता ही परोस सकते
हैं।
ये नेता अभी उ.प्र. में चमक रहे हैं लेकिन इनको पूरे देश में
चमकने से कौन रोक सकता है? उ.प्र. तो उनकी परीक्षण-स्थली है। लोगों को
जात, मजहब और लालच में फंसाकर वोट मांगने में उ.प्र. सबसे आगे है। इस
सडांध का सेवन हमारे युवा नेता भी कर रहे हैं।
उन्होंने कोई नया तीर नहीं मारा है। उनमें से कोई नीतीशकुमार बनने की
कोशिश भी नहीं कर रहा है। इन नए युवा नेताओं के पास उ.प्र. को गरीबी,
अपराध, भ्रष्टाचार और अविकास के दल-दल से बाहर निकालने की भी कोई
रणनीति नहीं है। यह चुनाव कोई मौलिक राजनीतिक विचारों को भी नहीं उछाल
पा रहा है। सभी दलों के उम्मीदवारों में करोड़पतियों, अपराधियों और
भ्रष्टाचारियों की भरमार है। युवा नेताओं में कुछ आकर्षण जरूर है
लेकिन उनमें से कौन ऐसा है, जिसे आप मुख्यमंत्री बना दें तो वह अपनी
सरकार को भ्रष्टाचार और अपराध से मुक्त करवा सकता है? वे सब
भ्रष्टाचार के बरगदों की छाया में पलकर ही बड़े हुए हैं। इसीलिए
उ.प्र. का चुनाव युवा नेतृत्व को उभारने में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाएगा लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में वह कोई बड़ा फेर-बदल कर सकेगा,
इसकी संभावना बहुत ही कम है।
साभार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
साभार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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