मैं आंसू आंसू रोया हूँ
कुछ रातों से ना सोया हूँ,
जो सीमाओं पर बिछुड़ गए
उनकी यादों में खोया हूँ
..
जयप्रकाश नारायण के साथ मेरे अनुभव : डा. सुब्रमणियन स्वामी

मैं जेपी से अमेरिका में १९६८ में मिला था जब वह क्वेकर्स नामक एक
अमेरिकी संस्था के प्रायोजित दौरे पर अमेरिका आये हुए थे। मैं तब
हार्वर्ड विश्वविद्यालय मेविन अर्थशास्त्र का प्राध्यापक था और इस
क्षेत्र में दो नोबेल पुरस्कार विजेताओं, एमआईटी के पुल सैमुअल्सन और
हार्वर्ड के ही साईमन कुज्नेट्स, के साथ काम कर के पहले ही ख्याति
अर्जित कर चुका था। इन दोनों का ये कहना था कि यदि मैं सूचकांक
संख्या के अपने सिद्धांत पर काम करता रहा तो मैं अवश्य ही नोबेल
पुरस्कार प्राप्त कर लूँगा। परन्तु जेपी के साथ हुई उस एक भेंट ने
मेरा कार्यक्षेत्र अध्यापन से बदल कर राजनीति कर दिया। जेपी के साथ
बिताये उन तीन दिनों में उन्होंने मुझे इस त्याग के लिए राजी कर लिया
था, अतः मैं इस निर्णय पर दुखी नहीं हूँ। तभी से मैं एक प्रकार कि
संकल्प भावना से भरा हुआ हूँ जिसने मेरा ध्यान राजनैतिक लक्ष्यों पर
एकाग्र कर दिया है। इसी कारण मैं पराजय अथवा विलम्ब से हतोत्साहित
नहीं होता और विजय से अधिक आह्लादित नहीं होता। जेपी से प्राप्त इसी
संकल्प भावना के कारण मैं अपना युद्ध नहीं छोड़ा और न ही परिणाम से
भयभीत हुआ। जेपी के राजनैतिक मार्गदर्शन एवं दैवीय परमाचार्य के
अध्यात्मिक आशीर्वाद के संगम का ही परिणाम है कि मैं आज भी उतना भी
सशक्त हूँ और अकेले बोलने या कार्य करने से नहीं घबराता।
In English : My experiences with Jayaprakash Narayan
: Dr. Swamy
अप्रैल १९६८ की बात है जब हार्वर्ड विश्वविद्यालय के मार्शल कार्यालय,
जो आगंतुकों से सम्बंधित है, वहाँ से अर्थशास्त्र विभाग के मेरे
कार्यालय में मुझे फ़ोन आया। फ़ोन पर महिला ने मुझे बताया कि भारत से
कोई जेपी नारायण आपसे और विश्वविद्यालय के अन्य संकाय से मिलना चाहते
हैं। अपने बचपन में ४० के दशक में मैंने जेपी नाम के किसी नेता के
बारे में सुना था और मैंने सोचा कि कहीं ये वही तो नहीं। मैंने उस
महिला से उन्हें फ़ोन देने को कहा और उनके फ़ोन पर आने पर उनसे पूछा
कि क्या आप स्वाधीनता सेनानी जेपी हैं? उनकी आवाज भर्रा गयी एवं
उन्होंने कहा, "मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि युवा पीढ़ी (मैं तब २८ वर्ष का
था) ने मेरे विषय में सुना हुआ है"। मैंने उन्हें महिला को फ़ोन देने
को कहा और महिला से कहा कि उन्हें विश्वविद्यालय के संकाय मनोरंजनग्रह
में ले आयें और मैं तत्काल उनसे मिलने चला गया।
उन दिनों मैं राष्ट्रवादी विचारों से भरा हुआ था जैसे कि बिना विदेशी
सहायता के परमाणु बम बनाना, एवं आर्य-द्रविड़ का मिथ्या सिद्धांत जो
अंग्रेजों ने भारत को विभाजित करने के लिए रचा। १९६० में ऐसे विचार
अतिवादी माने जाते थे। अतः इस राष्ट्रवादी जोश के कारण मैं बंद गले का
कोट जो कि तब आधुनिक भारतीय परिधान माना जाता था, वो पहनता था जब कि
अन्य भारतीय टाई एवं कमीज पहनते थे। अमरीकियों के प्रशंसा करनी होगी
कि उन्होंने मेरे परिधान पर कभी टिप्पणी नहीं की क्योंकि मैं एक अच्छा
प्राध्यापक एवं अनुसंधानकर्ता था। यह भारतीयों का हीन-भाव ही था जो
उन्हें पाश्चात्य वेशभूषा पहनने पर विवश करता था।
परन्तु जब मैं जेपी को देखने संकाय मनोरंजनग्रह में गया तब उन्हें टाई
एवं थ्री-पीस सूट पहने देख कर विस्मित रह गया। उनकी पत्नी प्रभावती भी
साड़ी में उनके साथ थीं। उन्होंने तत्काल इस विसंगति को भाँप लिया और
जेपी को कहा कि जेपी ने वह पहन के गांधी के दो अनुयायियों को लज्जित
करने वाला कृत्य किया है। परन्तु जेपी ने अपनी लोकप्रिय मधुर मुस्कान
के साथ कहा कि "लगता है मुझे नया मित्र मिल गया है" और अपने कमरे में
चले गए और भारतीय शेरवानी एवं पैजामा पहन कर बाहर आए। अगले तीनों दिन
उन्होंने भारतीय परिधान ही पहने।
जेपी कि यात्रा के दौरान मैंने उनके वाहन चालक की भूमिका निभाई। मैंने
हार्वर्ड में भारतीय राजनीति की तात्कालिक दशा पर उनका व्याख्यान
आयोजित करवाया। चूंकि स्वाधीनता संग्राम में मेरे पिता कांग्रेस के
साथ थे एवं सत्यमूर्ति एवं कामराज से सम्बद्ध थे अतः मैं उस समय के
कुछ तथ्यों से परिचित था। ऐसा ही एक तथ्य मुझे ज्ञात था जिसने जेपी को
बहुत प्रभावित किया। व्याख्यान के दौरान उन्होंने अपने श्रोताओं से
पूछा कि गांधी जी की अंतिम इच्छा क्या थी। ३०० भारतीय एवं अमेरिकियों
वाले उस श्रोता समुदाय में कोई भी इस प्रश्न का उत्तर न दे सका। तब
जेपी ने मेरी ओर देखा एवं मैंने कहा कि गांधी जी चाहते थे कि कांग्रेस
को विसर्जित कर दिया जाए। इस तथ्य को गांधी जी के निजी सचिव प्यारे
लाल ने उनके अंतिम इच्छापत्र में लिखा है। जेपी ने इतने वर्षों से
बाहर रहने के बाद भी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास से इतने निकट
का ज्ञान रखने के लिए मेरी प्रशंसा की।
व्याख्यान के बाद जेपी ने मुझे रात्रिभोज पर मिलने की इच्छा व्यक्त
की। उस समय उन्होंने मुझसे भारत वापस लौट चलने एवं सर्वोदय आन्दोलन
में शामिल होने को कहा। उन्होंने कहा कि कैसे वे स्वयं एवं डॉ.
आंबेडकर ने अमरीका से शिक्षा प्राप्त की थी परन्तु देश के लिए बलिदान
कर दी। उन्होंने मुझे गांधी, नेहरु, पटेल एवं सुभाष चन्द्र बोस का भी
स्मरण करवाया जिन्होंने जनसेवा हेतु अपनी आजीविका-वृत्तियों का
परित्याग किया था। परन्तु उन्होंने मुझे राजनीति से अलग रह कर सर्वोदय
आन्दोलन में शामिल होने को कहा।
एक वर्ष के बाद १९६९ में मैंने अपनी प्राध्यापिकी छोड़ दी एवं भारत लौट
आया। जेपी से दिल्ली में मिलने के बाद मैं आन्दोलन में शामिल होने के
लिए मदुरै जनपद के बत्लागुंदु चला गया। उस समय तक लोग जेपी को भुला
चुके थे। मुझे स्मरण है कि मैं जेपी को लेने नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन
गया था जब वे पटना से आ रहे थे एवं वहाँ उनके सचिव और मुझे छोड़ के कोई
भी नहीं था। किसी ने जेपी को पहचाना भी नहीं जब वे ट्रेन से उतरे।
अमेरिका में ७ वर्ष का सुविधाजनक जीवन व्यतीत करने के बाद अक्टूबर
१९६९ में मैं बत्लागुंदु चला आया । सर्वोदय आन्दोलन में जीवन कठिन था
परन्तु आन्दोलन के साथियों ने जीवन को रोचक बनाने के प्रयास किये ।
मैंने जाना कि गाँव के लोग आन्दोलन के नेताओं का सम्मान तो करते थे
परन्तु उन्हें गंभीरता से नहीं लेते थे। उस दौरान मैंने गांधी स्मारक
निधि संग्रहालय में गांधी के साहित्य को पढ़ा जहाँ मैं अक्सर बोरियत के
कारण चला जाया करता था। गांधी ने राजनीति एवं सृजनात्मक सामाजिक
कार्यों को एकीकृत करने की बात की थी ताकि लोग उत्साहित हो सकें।
परन्तु सर्वोदय पूर्णतया अराजनैतिक था एवं भारतीय समाज किसी भी बात को
अराजनैतिक रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था।
अतः मैंने जेपी को कुछ महीनों बाद लिखा कि मैं सर्वोदय के योग्य नहीं
क्योंकि मुझे लगता है कि बिना राजनैतिक वर्चस्व के सामाजिक कार्य भारत
में संभव नहीं। १९७० में दिल्ली आ कर मैं आईआईटी दिल्ली में
अर्थशास्त्र का प्राध्यापक बन गया।
जेपी मेरे पत्र से बहुत विचलित थे। मुझे भान नहीं था कि १९५३ में
जवाहरलाल नेहरु द्वारा उन्हें उप-प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव
ठुकरा कर जेपी इसके उलट निर्णय पर पहुँचे थे। १९५३ से ही जेपी का
कार्य राजनीति को द्रवीकृत करने की दिशा में था। उन्होंने दल-विहीन
राजनीति एवं पंचायती-राज आधारित अराजनैतिक सर्वोदय का समर्थन किया था।
मेरा पत्र इस प्रकार यह कह रहा था कि जेपी ने अपने १७ वर्ष व्यर्थ कर
दिए हैं और जेपी आहत हो गए।
उन्होंने मुझे उत्तर में एक कड़ा पत्र लिखा कि वे मुझसे निराश हैं।
उसके बाद उन्होंने मेरे किसी पत्र का उत्तर नहीं दिया। जुलाई १९७२ में
मुझे उनसे एक तार मिला कि वे हृदय आघात के बाद बंगलोर के निकट
टिप्पनगोंडाहल्ली में स्वास्थ्यलाभ कर रहे हैं एवं एक महत्वपूर्ण विषय
पर चर्चा हेतु मिलना चाहते हैं। अतः मैं उनसे मिलने वहाँ गया। वहाँ
सर्वोदय के १५ शीश नेता थे। हम साथ रहे एवं अनेक विषयों पर चर्चा की।
एक सत्र में जेपी ने पूछा कि यदि इंदिरा गांधी सैन्य शासन लगा देती
हैं तो हमारी भूमिका क्या होगी, और हम इसे कैसे रोक सकते हैं।
जहाँ सभी सर्वोदय नेताओं ने अनशन करने अथवा पत्र लिखा कर विरोध करने
जैसा कुछ निष्क्रिय मार्ग सुझाया वही मैंने बोला कि जेपी ने राजनीति
छोड़ कर एक भूल की है और इसे उन्हें अब सुधार लेना चाहिए। सभी सर्वोदय
नेताओं ने ऐसा कहने के लिए मेरी भर्त्सना की और इसे मेरी नासमझी
बतलाया। परन्तु जेपी ने अपने समापन भाषण में मुझसे सहमती जतलाई और कहा
कि इंदिरा गांधी की तानाशाही रोकने के लिए उन्हें राजनीति में आना ही
होगा। उन्हें भावुक होकर कहा, "डॉ. स्वामी साहसी हैं एवं वे अप्रिय
सत्य बोलने से डरते नहीं हैं। एक उचित तिथि पर मैंने राजनीति में
लौटने का निर्णय किया है"। इस प्रकार मैं कह सकता हूँ कि आपातकाल
रोकने एवं जनता पार्टी बनाने के विचार जेपी के मन में डालने में मेरी
भूमिका थी ।
१९७४ तक जेपी पूर्णतया उस राजनैतिक आन्दोलन की धुरी बन चुके थे जो
इंदिरा गांधी के उस सत्तावादी शासन का विरोध कर रहा था जिसकी परिणति
आपातकाल में होना तय लग रहा था । ७४-७५ में जेपी बिना मुझे फ़ोन किये
कभी दिल्ली नहीं आते थे । उन्होंने मुझे अनेक राष्ट्रीय संयोजन
समितियों का सदस्य बनांय यद्यपि मैं राजनीति में कनिष्ठ था । जेपी एवं
कामराज की पहली भेंट मैंने ही तय करवाई थी । यह भेंट १९७४ में हुई थी
एवं हम तीनों के छायाचित्र उपलब्ध हैं।
२५ जून १९७५ (जिस दिन आपातकाल लगा) की सुबह मुझे एक राजनैतिक नेता से
फ़ोन आया किउस दिन शाम कोदिल्ली के रामलीला मैदान पर होने वाली रैली
के सम्बन्ध में जेपी एवं मोरारजी में मतभेद हैं एवं वे दोनों एक दूसरे
से बात भी नहीं कर रहे हैं। मोरारजी उस समय उत्साहित थे क्योंकि उनके
अनशन के कारण गुजरात विधानसभा में जनता गठबंधन की सरकार बन चुकी थी।
मोरारजी अनुशासनवादी थे एवं जेपी के असमय कार्यक्रम उन्हें पसंद नहीं
थे। झगडा इस कारण था कि जनसभा ५ बजे घोषित की गयी थी और जेपी ने गर्मी
का बहाना बना कर कहा था कि वे स्वयं ८ बजे आयेंगे। मोरारजी इस पर
क्रुद्ध थे और कह रहे थे कि जेपी को समय पर आना चाहिए। "हम लोगों की
आदतें बिगाड़ रहे हैं और हम वो नहीं कहते जो हमें कहना होता है" - ऐसा
मोरारजी का मत था। अतः मुझे जेपी को ५ बजे आने के लिए मनाना था। उस
कारण मैं मोरारजी को भी ठीक प्रकार जान पाया। परन्तु उनसे मित्रता सरल
नहीं थी क्योंकि मैं तब ३५ वर्ष का था एवं मोरारजी को मैं कनिष्ठ तो
लगता ही था, वे ये भी कहते थे कि मैं 'अमेरिकी' हो गया हूँ और भारतीय
राजनीति के लिए आवश्यकता से अधिक स्पष्टवादी हूँ। ऐसी बात उन मोरारजी
से सुनना जिन्हें स्वयं मुंहफट होने का अपराधी ठहराया जाता था, मेरे
लिए विस्मयकारी था।
परन्तु अंततः दोनों दिग्गज ६ बजे एक साथ आने के लिए सहमत हो गए। ये
वही जनसभा थी जिसे इंदिरा गांधी ने आपातकाल का आधार बनाया था। जेपी पर
आरोप था कि उन्होंने भारतीय सेना को सशस्त्र विद्रोह के लिए उकसाया।
एक प्रत्यक्षदर्शी होने के नाते मैं ये कह सकता हूँ कि यह इंदिरा
गांधी का सफ़ेद झूठ था। मोरारजी मेरे धैर्य से प्रभावित थे। अपनी
आत्मकथा के तीसरे भाग में मोरारजी ने एक तस्वीर दी है जिसमें मैं एवं
जेपी उनके साथ उस जनसभा में बैठे हैं।
उस रात मैंने जेपी के साथ अकेले भोजन किया। वे अत्यंत भावुक थे।
उन्होंने कहा कि सैन्य शासन निश्चित है और हमें लड़ना होगा। उन्होंने
कहा कि मुझमे साहस है एवं मेरे विश्वभर में मित्र हैं अतः मुझे बाहर
से समर्थन जुटाना चाहिए। मुझे लग रहा था कि जेपी अकारण ही प्रलयनाद कर
रहे हैं। परन्तु वे सही थे। अगले दिन एक अनाम पुलिस अधिकारी ने सुबह
४:३० बजे फ़ोन कर के बताया कि जेपी को बंदी बना लिया गया है एवं यदि
मैं घर से नहीं भागा तो मुझे भी बना लिया जाएगा।
जेपी का पिछली रात का सुझाव स्मरण करके मैं
भूमिगत हो गया। पूरे आपातकाल में मुझे अपराधी घोषित करके एवं मेरी
सूचना देने पर बड़ा पारितोषिक घोषित करने के बाद भी इंदिरा गांधी की
सरकार मुझे नहीं पकड़ सकी। इस लम्बी कथा के बारे में फिर कभी लिखूँगा,
परन्तु मैंने आपातकाल का प्रचंड विरोध किया जैसा जेपी ने चाहा
था।
उसके बाद मैं उनसे १९७७ में आपातकाल हटने के बाद मिला। तब तक वे
राष्ट्रीय चेता के प्रतिनिधि बन चुके थे। वे मुझे देख कर अति-प्रसन्न
हुए परन्तु हर जगह भीड़ थी अतः मुझसे बात न कर सके। पुराने
समाजवादियों ने उन्हें अपना नेता बताया, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने
भी उनमे आस्था जताई। १९७९ तक मैं जेपी से छोटी छोटी भेंट करता रहा।
उन्ही में से एक मैं मैंने भावुकतापूर्वक अपनी १९७२ की भेंट का स्मरण
उन्हें दिलाया। उन्होंने मोरारजी की शिकायत मुझसे की। मैंने दोनों के
मतभेदों को पाटने के प्रयास भी किया परन्तु उनके बीच की खाई गहरी हो
चुकी थी। जेपी ने मुझे विशेषतया गांधी शांति प्रतिष्ठान बुलाया था जब
आचार्य कृपलानी एवं उन्होंने जगजीवन राम की जगह मोरारजी को चुना था।
जेपी ने मुझे उनके साथ बैठाया ताकि मुझे राजनैतिक प्रशिक्षण मिलता रहे
जैसे एक एक कर नेता उनसे मिलने आते रहे। जेपी का स्पष्ट मत था कि पहले
२.५ वर्ष के लिए ही मोरारजी प्रधानमंत्री होंगे परन्तु मोरारजी शर्तों
में बंधने वाले नहीं थे। अतः जेपी को झुकना पड़ा एवं मोरारजी को
प्रधानमंत्री बना दिया गया।
जेपी के साथ मेरी अंतिम तात्विक बातचीत १९७९ में पटना में जनता पार्टी
के विघटन के समय हुई थी। वे अस्वस्थ एवं संतापग्रस्त थे। "मेरे
स्वप्नों के उपवन को मरुस्थल बना दिया", उन्होंने रोते हुए बोला।
उन्होंने अपना हाथ मेरी बाँह पर रख कर कहा, "तुम्हे युवा पीढ़ी को
जोड़ना है ताकि जनता पार्टी का ध्वज लहराता रहे। वचन दो।" मैंने वह वचन
निभाया है। जब १९८० में भाजपा बनी, तब भी मैंने जनता पार्टी को नहीं
छोड़ा। १९८४ में चंद्रशेखर ने अध्यक्ष पद चुनाव में उनका विरोध करने के
कारण आवेश में आकर मुझे पार्टी से निकाल दिया। मैंने प्रतीक्षा की,
मित्र बनाए एवं वापस पार्टी में आ गया। १९८९ में चंद्रशेखर सहित सभी
जनता पार्टी छोड़ जनता दल में जा मिले, परन्तु मैं और देवगौड़ा रुके
रहे। १९९२ में देवगौड़ा भी जनता दल में चले गए एवं बाद में उसे तोड़ कर
जनता दल सेकुलर बनाया। मैं जनता पार्टी में हूँ क्योंकि मैंने जेपी को
वचन दिया था। मैंने इसे बढाने के भी प्रयास किए हैं। परन्तु जेपी ने
जनता पार्टी विकेंद्रीकरण के विचारधारा से बनाई थी। आज उनकी इस
विचारधारा को सभी स्वीकार करते हैं।
यद्यपि उनका शिशु जनता पार्टी १९७७ की
प्रतिष्ठा नहीं पा सका, परन्तु विचारधारा की विजय हुई है। उनके विरोधी
कांग्रेस ने स्वयं उनकी विचारधारा अपना ली है। यह उनकी विजय है। इसके
लिए हमें राजीव गांधी एवं नरसिम्हा राव को भी धन्यवाद देना
चाहिए।
आज जब मैं जेपी के व्यक्तित्व का चिंतन करता हूँ, तो मुझे उनकी
स्पष्टवादिता एवं उनकी सरलता उन्हें महान बनाने के पीछे दिखलाई देती
हैं। यदि गांधी जी स्वाधीनता संग्राम के प्रतीक हैं तो जेपी लोकतंत्र
की भावना के प्रतीक हैं। उन्हें इतने निकट से जाना मेरे लिए गौरव की
बात थी।
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