गरीबी रेखा के दायरे में आने वाले व्यक्ति के खर्च के सवाल को सुलझाने की बजाय उलझाने की कवायद फिलहाल जारी है। शीर्ष अदालत मे..
मैकॉले का अभियान सौ वर्ष के अंदर इंडिया के कोने-कोने तक पहुंचा
पिछले लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह एकमात्र नेता थे जिन्होंने
भाषा के प्रश्न को अपने चुनाव घोषणा-पत्र में रखा। जिस तरह दूसरे उन
पर टूट पड़े, उससे दिखा कि भाषा-संस्कृति के प्रति कुशिक्षा कितनी गहरी
जड़ जमा चुकी है। जब कोई दासता सहज स्थिति बन जाए तो वह कष्टकर नहीं
लगती। भारतवासियों के लिए लॉर्ड मैकॉले की शिक्षा-नीति का यही लक्ष्य
था। उसने भारत को सहज पराधीन बनाना चाहा था, उसी के शब्दों में:
‘सचमुच दमित राष्ट्र’ (ट्रूली डॉमिनेटेड नेशन)।
अपनी भाषा से विलगाव ही इस उद्देश्य का सटीक उपाय था। मैकॉले के शब्द
थे- ‘अगर आप एक ऐसी युवा पीढ़ी उत्पन्न करना चाहते हैं, जो न केवल अपनी
अस्मिता और विरासत से अनभिज्ञ हो, बल्कि उसके प्रति गहरी हिकारत की
भावना रख सके, तब उसे संस्कृत की शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए। क्योंकि
वह एक ऐसी भाषा है, जो एक भारतीय को अपनी सशक्त परंपरा और विशिष्ट
अस्मिता के प्रति सचेत करती है। उसे अंग्रेजी की शिक्षा दी जानी
चाहिए, जिसके माध्यम से वह पश्चिमी मूल्यों में दीक्षित हो सके।’
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राजीव दीक्षित : अंग्रेजी कोई बड़ी भाषा नहीं है, केवल १४ देशों में चलती है
जो गुलाम रहे हैं
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ध्यान दें, मैकॉले ने हमें अंग्रेजी पढ़ाने पर
उतना बल नहीं दिया था जितना संस्कृत और अपनी भाषाओं से अलग करने पर।
वह भाषा की भूमिका समझता था। यह मर्म भी कि भारतीयता की आत्मा संस्कृत
में बसती है। इसलिए जो भारतीय अपनी भाषा से कटा, उसे आत्म-हीन बनाना
बहुत सरल हो जाएगा। यहां तक कि समय के साथ ऐसे भारतीयों में अनेक को
भारत-विरोधी बनाना भी संभव हो जाएगा।
इस बात को हमारे अनेक मनीषी और नेता भी समझते थे। इसीलिए उनके लिए
लक्ष्य अपनी भाषा में काम करने का था, अंग्रेजी बहिष्कार का नहीं।
श्रीअरविंद, रवींद्रनाथ ठाकुर, सुभाषचंद्र बोस, गांधी, सरदार पटेल,
राजाजी, मुंशी, महादेवी, शंकर कुरुप आदि महापुरुषों ने बल दिया था कि
हर भारतीय की पहली और सिद्ध भाषा उसकी मातृभाषा हो। तभी वह सच्चे अर्थ
में शिक्षित होगा। उनके लिए हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाए रखने का
आग्रह उसी का दूसरा पहलू था, कोई विलग बात नहीं।
अगर हमारे अंग्रेजीदां बौद्धिक आज इन बातों को सुनना भी नहीं चाहते,
तो वे मैकॉले को बार-बार सही साबित कर रहे हैं। वे बौद्धिक और उनकी
नकल करने वाले हिंदी रेडिकल भी एक कृत्रिम, संकीर्ण दुनिया में रहते
हैं। इसीलिए वे नहीं देख पाते कि भारत में पश्चिमी
मानसिकता का दबदबा और हिंदू-विरोधी बौद्धिकता जितनी सशक्त आज
है, उतनी ब्रिटिश राज में कभी न रही। हमारे उच्च-वर्ग के बौद्धिक
प्रतिनिधि अपने ही देश के धर्म, शास्त्र, साहित्य और परंपराओं के
प्रति दुराग्रही हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘तीन सौ रामायण’ से
संबंधित विवाद इसका नवीनतम प्रमाण है।
अंग्रेजी के एकाधिकार से ही विचार-विमर्श में सामान्य जनगण की इच्छा,
भावना आदि का बहिष्कार सहजता से होता है। अंग्रेजी में ‘सार्वजनिक’
विमर्श वैसा ही है, जैसे शीशे के केबिन में बोल कर बाहर लोगों को
संबोधित करना। आधुनिक दार्शनिक हाइडेगर ने कहा भी था- ‘हर भाषा उन
लोगों के इर्द-गिर्द, जो उसे बोलते हैं, एक जादुई घेरा खींच देती है।’
ऐसे ही एक संकीर्ण घेरे में रहते हुए हमारे बुद्धिजीवी पूरे देश को
जानने का भ्रम पालते हैं।
भाषा कोई मोटरकार-सी निर्जीव उपयोगी वस्तु नहीं। भाषा में संस्कृति
अनिवार्यत: समाहित होती है। जब आप एक भाषा छोड़ते हैं तो उसकी संस्कृति
भी छोड़ते हैं। किसी पराई भाषा में बात कहते हैं तो उस भाषा के आग्रह
आपके विचारों को मोड़ने, अनुशासित करने लग जाते हैं। इसीलिए कोई भारतीय
अंग्रेजी-भाषी बन कर जनता से ‘ऊपर’ ही हो सकता है, उसके साथ नहीं। यही
उसका आकर्षण भी है और भारी सीमा भी। अंग्रेजी सीखने-बोलने की
मारा-मारी ज्ञान और विवेक पाने के लिए नहीं हो रही है।
यह भी सर्वाधिक झूठी बातों में एक है कि अंग्रेजी
भारत के विभिन्न लोगों को जोड़ती है। उससे भी बड़ी झूठी बात यह है कि
अंग्रेजी के बिना अखिल भारतीय संवाद नहीं हो सकता। अभी अण्णा हजारे ने
इसे फिर दिखाया कि अंग्रेजी को छोड़ कर ही वास्तविक जन-संवाद हो सकता
है। अंग्रेजी की भूमिका तो कहानी के बंदर जैसी है जो पंच बन कर
बिल्लियों की रोटियां उड़ाती है। वह भारत के अंग्रेजी-भाषी उच्च-वर्ग
से शेष ‘नीचे वालों’ को, फिर उन्हें एक-दूसरे से अलग-थलग कर, असहाय
बना कर और हीनता की भावना भर कर वास्तव में तोड़ती है।
इन टूटने वालों में वे भी हैं जो अंग्रेजी लिखते-बोलते हैं, पर अच्छी
नहीं। इसलिए भारतीय शिक्षित वर्ग में अंग्रेजी आत्मविश्वास से अधिक एक
हीन-भावना, देशवासियों से लगाव के बदले विलगाव और ईर्ष्या-द्वेष से
युक्त प्रतियोगिता पैदा करती है। ऐसी चूहा-दौड़, जिसमें देश की कीमत पर
स्वार्थ सर्वोपरि होता है। अंग्रेजी की लालसा में सभी भारतीय भाषाओं
की हालत पतली हो रही है। उसके साथ-साथ सांस्कृतिक चेतना की भी।
युवाओं में अंग्रेजी भाषी बनने की लालसा दरअसल दूसरों से ऊपर और
प्रभावशाली होने की लालसा है। लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले भी इसी लालसा से
भारतीय समाज के तुच्छ तत्त्वों ने अंग्रेजी के प्रति अधिक उत्साह
दिखाया था। यह रोचक सत्य ब्रिटिश अधिकारी और विद्वान जी लीटनर ने अपनी
विस्तृत रिपोर्ट (१८८३) में नोट किया था। यहां अंग्रेजी शिक्षा आरंभ
से ही ज्ञानवान बनने, बनाने की नहीं, बल्कि किसी तरह शासन में कोई
स्थान पाकर रौबदार बनने की थी। उसी मनोवृत्ति का विकास होते-होते
स्थिति यह बन गई कि स्वतंत्र भारत में भी अंग्रेजी से दूर भारतवासी
स्वत: हीन समझा जाता है।
अगर अंग्रेजी देश के हजारों युवाओं को विभिन्न क्षेत्रों में,
देश-विदेश में पैसे वाले पदों पर स्थापित कराती है तो लाखों प्रतिभाओं
को घुटने, छीजने, नष्ट होने के लिए भी छोड़ देती है। सरल गणित में कहें
तो वह हजार देकर लाख छीन रही है। सबसे घातक बात यह है कि अंग्रेजी
वर्चस्व हमारे शिक्षित वर्ग को अपनी सभ्यता, संस्कृति और धर्म से
विमुख बनाता है। दूसरी ओर, विशाल जन-गण को स्वत्वहीन, निर्बल, मूक बना
कर छोड़ देता है। अगर इस अपरिमित हानि की चर्चा नहीं होती, तो इसलिए
क्योंकि विचार-प्रचार-शासन की संपूर्ण प्रणाली पर आंग्लभाषियों का
विशेषाधिकार है। उनका, जो दासता के प्रतियोगी हैं।
प्रश्न यह है कि क्या हम भारत को अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, अरब
आदि देशों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला एक अघोषित मानव-कारखाना
बनाना चाहते हैं, जो उनके शोध संस्थानों से लेकर हॉलीवुड और
झाड़ू-बर्तन, सफाई तक के लिए हर तरह के साधन और ‘मानव संसाधन’ मुहैया
करता रहे? चाहे इधर खुद भारत के सामान्य लोग भ्रष्टाचार, बाढ़, सूखा,
गंदगी, अपराध से लेकर नक्सलवाद, आतंकवाद, अलगाववाद, सीमाओं के संकुचन
जैसी हर विभीषिका के समक्ष असहाय होकर विनष्ट होने के लिए छोड़ दिए
जाएं।
‘सिलिकन वैली’ और विदेशों में उद्योग-व्यापार में भारतीय ‘उपलब्धियों’
पर गर्व करने वालों ने क्या कभी सोचा है कि जो भारतीय युवा
अंग्रेजी-प्रवीण होते हैं, आमतौर पर उनकी इच्छा कैलिफोर्निया जाकर काम
करने की हो जाती है? वही इच्छा धीरे-धीरे, देश-बदल करके अमेरिकी
नागरिक बन जाने की भी हो जाती है। इस प्रकार एक भारतीय बालक भारत के
संसाधनों का उपयोग कर केवल अंग्रेजी की बदौलत आखिरकार एक विदेशी होकर
रह जाता है।इस प्रकार, यहां अंग्रेजी वर्चस्व ने केवल भारतीय युवाओं
को प्राय: संस्कृतिहीन और समाज-विमुख बनाया है।
देश की समस्याओं को इस अर्थ में बढ़ाया है कि हमारी सर्वोत्तम
प्रतिभाएं या तो विदेश चली जाती हैं या आंतरिक दुर्व्यवस्था का शिकार
या उपेक्षित होकर खत्म हो जाती हैं। अन्यथा ठीक यही लोग देश की सभी
समस्याओं के समाधान में जुटते। फूट डालो-राज करो के नए, अदृश्य
संस्करण के रूप में विभिन्न भारतीय भाषा-भाषियों में आपसी दूरी को
बढ़ाया है। विदेशियों द्वारा भारत के एक संकीर्ण आंग्लभाषी वर्ग के
माध्यम से संवाद के कारण हम बाहरी दुनिया से और बाहरी दुनिया संपूर्ण
भारत से कट गई है।
कृपया इस पर गंभीरता से ध्यान दें, अंग्रेजी के माध्यम से दुनिया से
जुड़ने की बात कही जाती है। लेकिन ठीक उसी कारण से वास्तव में हमसे
दुनिया कट गई है! किसी विषय में दुनिया भर की सर्वश्रेष्ठ नई पुस्तकें
भारत में किसी भाषा में उपलब्ध नहीं होतीं- अंग्रेजी में भी नहीं।
क्यों? क्योंकि हमारे उच्च वर्ग के लोग समझते हैं कि यहां
ज्ञान-विमर्श की भाषा अंग्रेजी है, इसलिए भारतीय भाषाओं में नवीनतम
विश्व ज्ञान, विमर्श को रूपांतरण करने का कोई उद्योग जरूरी नहीं।
दूसरी ओर, चूंकि वास्तव में अंग्रेजी में यहां कोई जन-व्यापक अध्ययन
नहीं होता, हो ही नहीं सकता, इसलिए (सस्ते उपन्यासों को छोड़ कर)
दुनिया भर में अंग्रेजी में लिखित, अनूदित नए राजनीतिक, सामाजिक,
सांस्कृतिक, लेखन भारत में आते ही नहीं।
सच तो यह है कि अंग्रेजी में उपलब्ध नया विश्व साहित्य भी भारत के
बाजार में उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि उसका कोई लाभकारी बाजार नहीं है।
केवल इक्का-दुक्का, किसी कारण विख्यात या विवादस्पद पुस्तकें ही भारत
की अंग्रेजी किताबों की दुकानों में मिल पाती हैं। यही इसका सबसे
भयावह प्रमाण है कि अंग्रेजी के कारण किस तरह हम दुनिया से, और दुनिया
हमसे कट गई है। विशेषकर विचार-विमर्श और विद्वत-चर्चा के ही क्षेत्र
में।
दूसरी ओर, अंग्रेजी के पीछे बरसों, दशकों
मगजपच्ची करने के कारण ही हमारे युवा अपनी भाषाओं में उपलब्ध ज्ञान को
जानने से वंचित रह जाते हैं। इस प्रकार, अंग्रेजी के प्रति युवाओं में
ललक बढ़ाना अपने अंतिम परिणाम में एक ओर तो उनके वास्तविक ज्ञान को
अतिसीमित कर डालता है। दूसरी ओर, भारतीय राष्ट्र, संस्कृति, खुशहाली,
एकता और सामाजिक सौमनस्य के लिए भी घातक हो जाता है।
लेकिन आज देश के अधिकतर शिक्षित लोग इन बातों पर विचार भी नहीं करते।
यह इसका प्रमाण है कि भारत का शिक्षित वर्ग अपनी जनता, संस्कृति और
ज्ञान की अभिलाषा से दूर हो चुका है। मैकॉले का अभियान सौ वर्ष के
अंदर ही आज इंडिया के कोने-कोने तक पहुंच चुका है। महात्मा गांधी तो
अपने जीवन में ही बुरी तरह हार चुके थे, जब उन्होंने दूसरे कामों के
अलावा ‘कांग्रेस में एकमात्र अंग्रेज’ को इसी आधार पर अपना
उत्तराधिकारी बनाया! उसके बाद जो हुआ, होता रहा, वह हम देखते ही रहे
हैं। अपनी भाषा-संस्कृति से प्रेम रखने वाले भारतवासियों को
भ्रम-मुक्त होकर और विचारधारा के नशे से भी मुक्त होकर वैकल्पिक
उपायों पर सोचना चाहिए!
साभार जनसत्ता, शंकर शरण
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