राजस्थान उच्च न्यायालय ने भी अब वो कह दिया है जो देश की जनता कब से अनुभव करती आ रही है की सीबीआई जिस कार्य के लिए बनायीं..
शहीद खुदीराम बोस के जन्मदिवस पर शत शत नमन, जिन्हें १८ वर्ष की आयु में मृत्युदंड मिला

खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 ई. को बंगाल में मिदनापुर ज़िले
के हबीबपुर गाँव में त्रैलोक्य नाथ बोस के यहाँ हुआ था। खुदीराम बोस
जब बहुत छोटे थे तभी उनके माता-पिता का निधन हो गया था। खुदीराम बोस
की बड़ी बहन ने उनका लालन-पालन किया था। वे स्कूल के दिनों से ही
राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेने लगे थे। उन दिनों छोटे-छोटे
भारतीय स्कूली बच्चे भी अंग्रेज़ों से घृणा किया करते
थे। वे प्रदर्शनों में शामिल होते थे तथा अंग्रेज़ी
साम्राज्यवाद के विरुद्ध नारे लगाते थे। 1905 में जब बंगाल का विभाजन
हुआ तो घृणा की यह भावना और भी तेज़ हो गई। खुदीराम बोस ने 9वीं कक्षा
में स्कूल छोड़ दिया और वह क्रांतिकारी दल के सक्रिय सदस्य हो गए।
पुलिस ने 28 फरवरी, 1906 को सोनार बंगला नामक एक ज्ञापन बांटते हुए
बोस को पकड़ लिया। परन्तु वह शारीरक रूप से बहुत शक्तिशाली थे।
उन्होंने पुलिस की पिटाई की और उसके शिकंजे से भागने में सफल रहे। 16
मई, 1906 को एक बार फिर पुलिस ने उन्हें बंदी बना लिया, मगर उनकी छोटी
आयु को देखते हुए चेतावनी देकर उन्हें छोड़ दिया गया था। छह दिसम्बर,
1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर किए गए बम विस्फोट की
घटना में भी वह सम्मिलित थे। उन्होंने अंग्रेज़ी वस्तुओं के बहिष्कार
आन्दोलन में आगे बढ़ कर भाग लिया।
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नेहरू का क्रोध यह देखकर निरंकुश हो गया कि ‘खुदीराम बोस जैसे एक
शस्त्राचारी युवक के स्मारक के लिए मेरे जैसे गांधीजी के वारिस को
बुलाने का साहस इन युवकों ने किया !’ उसने उन युवकों को फटकारा और
कहा, ‘‘अत्याचारी मार्ग का जिसने आधार लिया, उसके स्मारक के उद्घाटन
को मैं नहीं आऊंगा !’’
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बंगाल में चीफ प्रसिडेंसी किंग्सफोर्ड अन्याय और अत्याचार का
पर्यायवाची बन चुका था ! क्रांतिकारी उसे फूटी आँख नहीं सुहाते थे
वन्देमातरम शब्द से उसे घृणा थी ! क्रांतिकारियों को वह कड़ी से कड़ी
सजा देता था उस समय देश भक्ति तथा राष्ट्रीय भावनाओं को अभिव्यक्ति
करने पर वह अत्याचार करता वे देशभक्ति और स्वतंत्रता की बातें कहने
वाले समाचार पत्र संपादकों को जेल में ठूंस देता था यह सब देख
क्रांतिकारियों ने उसका वध करने का प्रण लिया और सर्वप्रथम इसका बीड़ा
उठाया सुशील कुमार सेन ने उनकी योजना के अनुसार किंग्सफोर्ड को पहले
एक पुस्तकबम्ब भेजा गया लेकिन यह योजना असफल रही वह किंग्सफोर्ड तक
पहुंचने से पहले उसके कर्मचारी ने खोल लिया और उसकी मृत्यु हो गयी इस
घटना ने प्रुरे ब्रिटिशतंत्र को हिला दिया और वे सावधान हो गए इसलिए
किंग्सफोर्ड का स्थानान्तरण कलकत्ता से मुजफ्फरपुर भेज दिया और वहाँ
पर भी उसे कड़ी सुरक्षा व्यवस्था में रखा गया लेकिन किंग्सफोर्ड को
मारने का बीड़ा उठाया खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने और वे पिस्तौल
और बम्ब के साथ मुजफ्फरपुर पहुंच गए और किंग्सफोर्ड की गतिविधियों की
जानकारी करने हेतु पीछा करना प्रारंभ कर दिया और किंग्सफोर्ड के क्लब
से रात्रि वापिस लौटने का समय उसके वध के लिए चुना।
30 अप्रैल 1908 की रात खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी किंग्सफोर्ड की
ताक में यूरोपियन क्लब के बाहर एक पेड के पीछे छिप गए और जब बग्घी
बाहर आई तो वे दोनों बग्घी ओर बढे और बग्घी के पास आते ही दोनों ने एक
एक बम्ब उछाल दिया पूरी बग्घी आग की लपटों में घिर गयी और दोनों
क्रांतिकरी निश्चिन्त होकर वहाँ से भाग निकले परन्तु खुदीराम बोस के
जूते वहीं छूट गए वो दोनों रेल की पटरी के सहारे सहारे बहुत दूर तक
भागते गए और अंत में एक जगह उन्होंने अलग होने का निर्णय लिया और
खुदीराम बोस पैदल चलते २४ मील चलकर बैनी गाँव पहंचे
वे भूखे प्यासे थे एक चाय की दुकान से उन्होंने लाई चना खरीदा और वहाँ
बैठकर खाने लगे वहाँ पर दो सिपाही बात कर रहे थे की किंग्सफोर्ड भाग्य
का धनी है उसने उस रात अपनी बग्घी में अपने सहयोगी की पत्नी मिसेज़
कनेडी और उनकी बेटी को भेज दिया और वह बच गया यह सुन खुदीराम के मुँह
से निकल गया "किंग्सफोर्ड बच गया "यह सुन सिपाही चौकन्ने हो गए और
खुदीराम को नंगे पैर देखकर उन्हें विश्वास हो गया कि ये वही हैं
जिन्होंने उस बग्घी पर बम्ब फेंका था उन सिपाहियों ने खुदीराम बोस को
पकड़ लिया तलाशी में उनके पास दो पिस्तौल निकले। उनके मन में तनिक भी
भय की भावना नहीं थी। खुदीराम बोस को जेल में डाल दिया गया और उन पर
हत्या का मुकदमा चला। अपने बयान में स्वीकार किया कि उन्होंने तो
किंग्सफोर्ड को मारने का प्रयास किया था। लेकिन उसे इस बात पर बहुत
अफसोस है कि निर्दोष कैनेडी तथा उनकी बेटी गलती से मारे गए।
मुकदमा केवल पांच दिन चला। आठ जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया
गया और 13 जुन को उन्हें प्राण दण्ड की सज़ा सुनाई गई। इतना गंभीर
मुकदमा और केवल पांच दिन में समाप्त। यह बात न्याय के इतिहास में एक
मज़ाक बना रहेगा लेकिन खुदीराम बोस की राष्ट्र प्रेम की परिकाष्ठा
क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा बन गयी देश के लिए जान देने की
प्रसन्नता के कारण फांसी के दिन 11 अगस्त, 1908 को खुदीराम बोस का वनज
दो पौण्ड़ बढ़ गया था। प्रातः 06 बजे उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया
था। गंड़क नदी के तट पर खुदीराम बोस के वकील श्री करलीदास मुखर्जी ने
उनके चिता में आग लगाई। हजारों की संख्या में युवकों का समूह एकत्रित
था। चिता की आग से निकली चिंगारियां सम्पूर्ण भारत में फैली।
चिता की भस्मी को लोगों ने अपने माथे पर लगाया, पुड़िया बांध कर घर ले
गये। खुदीराम बोस ही प्रथम क्रांतिवीर हैं जिन्होंने बीसवीं
सदी में आजादी के लिए फांसी के तख्ते पर अपने प्राणों की आहुति दी
थी।
परन्तु विडंबना देखिये स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्च्यात क्रांतिवीर
खुदीराम बोस का स्मारक बनाने की योजना कानपुर के युवकों ने बनाई और
प्रधानमंत्री नेहरू को उसका उद्घाटन के लिए बुलाया। खुदीराम बोस का
बलिदान अनेक युवकों के लिए स्फूर्तिदायी था। उनके पीछे असंख्य युवक इस
स्वतंत्रतायज्ञ में आत्मार्पण करने के लिए प्रेरित हुए। नेहरू का
क्रोध यह देखकर निरंकुश हो गया कि ‘खुदीराम बोस जैसे एक शस्त्राचारी
युवक के स्मारक के लिए मेरे जैसे गांधीजी के वारिस को बुलाने का साहस
इन युवकों ने किया !’ उसने उन युवकों को फटकारा और कहा, ‘‘अत्याचारी
मार्ग का जिसने आधार लिया, उसके स्मारक के उद्घाटन को मैं नहीं आऊंगा
!’’ (लाल किले की यादें, लेखक : गोपाल गोडसे) देश के लिए अपने जीवन को
अर्पित करने वाले भारत माता के सच्चे सपूत को अत्याचारी कहने का पाप
करने वाले जवाहरलाल नेहरु को देश की जनता ने प्रधानमंत्री पद पर
पुन्हः सुशोभित किया उसी का यह प्रतिफल है कि आज देशभक्तों को गाली
देना आज के नेताओं का प्रिय कार्य हो गया है देश से ऐसे नेताओं को
उखाड फेंकना होगा और इन शहीदों को वह सम्मान देना जिसके वे पात्र हैं
यही इन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
साभार राष्ट्र वंदना मिशन
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