नमस्कार एवं वन्दे मातरम,
सबसे पहले हम माननीय बाला साहब ठाकरे,श्री उद्धव ठाकरे जी और देश की
उन लाखो-करोड़ो जनता ..

विश्व के इतिहास में धर्म एवं सिद्धांतों की रक्षा के लिए प्राणों
की आहुति देने वालों में गुरु तेगबहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है।
(जन्म: 1 अप्रैल, सन 1621) तेगबहादुर जी के बलिदान से हिंदुओं व
हिन्दू धर्म की रक्षा हुई। हिन्दू धर्म के लोग भी उन्हें याद करते और
उनसे संबंधित कार्यक्रमों में भाग लेते हैं।
त्यागमल से तेगबहादुर - गुरु तेगबहादुर जी का जन्म
पंजाब के अमृतसर नगर में हुआ था। ये गुरु हरगोविन्द जी के पाँचवें
पुत्र थे। आठवें गुरु इनके पोते 'हरिकृष्ण राय' जी की अकाल मृत्यु हो
जाने के कारण जनमत द्वारा ये नवम गुरु बनाए गए। इन्होंने आनन्दपुर
साहिब का निर्माण कराया और ये वहीं रहने लगे थे । उनका बचपन का नाम
त्यागमल था। मात्र 14 वर्ष की आयु में अपने पिता के साथ मुग़लों के
हमले के ख़िलाफ़ हुए युद्ध में उन्होंने वीरता का परिचय दिया। उनकी
वीरता से प्रभावित होकर उनके पिता ने उनका नाम त्यागमल से तेगबहादुर
(तलवार के धनी) रख दिया।
युद्धस्थल में भीषण रक्तपात से गुरु तेगबहादुर जी के वैरागी मन पर
गहरा प्रभाव पड़ा और उनका का मन आध्यात्मिक चिंतन की ओर हुआ। धैर्य,
वैराग्य और त्याग की मूर्ति गुरु तेगबहादुर जी ने एकांत में लगातार 20
वर्ष तक 'बाबा बकाला' नामक स्थान पर साधना की। आठवें गुरु हरकिशन जी
ने अपने उत्तराधिकारी का नाम के लिए 'बाबा बकाले' का निर्देश दिया।
गुरु जी ने धर्म के प्रसार लिए कई स्थानों का भ्रमण किया। आनंदपुर
साहब से कीरतपुर, रोपण, सैफाबाद होते हुए वे खिआला (खदल) पहुँचे। यहाँ
उपदेश देते हुए दमदमा साहब से होते हुए कुरुक्षेत्र पहुँचे।
कुरुक्षेत्र से यमुना के किनारे होते हुए कड़ामानकपुर पहुँचे और यहीं
पर उन्होंने साधु भाई मलूकदास का उद्धार किया।
इसके बाद गुरु तेगबहादुर जी प्रयाग, बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों
में गए, जहाँ उन्होंने आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नयन के लिए
रचनात्मक कार्य किए। आध्यात्मिकता, धर्म का ज्ञान बाँटा। रूढ़ियों,
अंधविश्वासों की आलोचना कर नये आदर्श स्थापित किए। उन्होंने परोपकार
के लिए कुएँ खुदवाना, धर्मशालाएँ बनवाना आदि कार्य भी किए। इन्हीं
यात्राओं में 1666 में गुरुजी के यहाँ पटना साहब में पुत्र का जन्म
हुआ। जो दसवें गुरु- गुरु गोविंद सिंह बने।
बलिदान की कथा - गुरु तेगबहादुर जी सिखों के नौवें
गुरु माने जाते हैं। औरंगज़ेब के शासन काल की बात है। औरंगज़ेब के
दरबार में एक विद्वान पंडित आकर रोज़ गीता के श्लोक पढ़ता और उसका
अर्थ सुनाता था, पर वह पंडित गीता में से कुछ श्लोक छोड़ दिया करता
था।
एक दिन पंडित बीमार हो गया और औरंगज़ेब को गीता सुनाने के लिए उसने
अपने बेटे को भेज दिया परन्तु उसे बताना भूल गया कि उसे किन किन
श्लोकों का अर्थ राजा से सामने नहीं करना था। पंडित के बेटे ने जाकर
औरंगज़ेब को पूरी गीता का अर्थ सुना दिया। गीता का पूरा अर्थ सुनकर
औरंगज़ेब को यह ज्ञान हो गया कि प्रत्येक धर्म अपने आपमें महान है
किन्तु औरंगजेब की हठधर्मिता थी कि वह अपने के धर्म के अतिरिक्त किसी
दूसरे धर्म की प्रशंसा सहन नहीं थी।
औरंगज़ेब ने सबको इस्लाम धर्म अपनाने का आदेश दे दिया और संबंधित
अधिकारी को यह कार्य सौंप दिया। औरंगज़ेब ने कहा -'सबसे कह दो या तो
इस्लाम धर्म कबूल करें या मौत को गले लगा लें।' इस प्रकार की
ज़बर्दस्ती शुरू हो जाने से अन्य धर्म के लोगों का जीवन कठिन हो
गया।
जुल्म से ग्रस्त कश्मीर के पंडित गुरु तेगबहादुर के पास आए और उन्हें
बताया कि किस प्रकार इस्लाम को स्वीकार करने के लिए अत्याचार किया जा
रहा है, यातनाएँ दी जा रही हैं। हमें मारा जा रहा है। कृपया आप हमारे
धर्म को बचाइए। गुरु तेगबहादुर जब लोगों की व्यथा सुन रहे थे, उनके 9
वर्षीय पुत्र बाला प्रीतम (गुरु गोविंदसिंह) वहाँ आए और उन्होंने
पिताजी से पूछा-
'पिताजी, ये सब इतने उदास क्यों हैं? आप क्या सोच रहे हैं?'
गुरु तेगबहादुर ने कश्मीरी पंडितों की सारी समस्याएं बाला प्रीतम को
बताईं तो उन्होंने पूछा- 'इसका हल कैसे होगा?'
गुरु साहिब ने कहा- 'इसके लिए बलिदान देना होगा।'
बाला प्रीतम ने कहा-' आपसे महान पुरुष कोई नहीं है। बलिदान देकर आप इन
सबके धर्म को बचाइए।'
उस बच्चे की बातें सुनकर वहाँ उपस्थित लोगों ने पूछा- 'यदि आपके पिता
बलिदान देंगे तो आप यतीम हो जाएँगे। आपकी माँ विधवा हो जाएगीं।'
बाला प्रीतम ने उत्तर दिया- 'यदि मेरे अकेले के यतीम होने से लाखों
बच्चे यतीम होने से बच सकते हैं या अकेले मेरी माता के विधवा होने
जाने से लाखों माताएँ विधवा होने से बच सकती है तो मुझे यह स्वीकार
है।'
तत्पश्चात गुरु तेगबहादुर जी ने पंडितों से कहा कि आप जाकर औरंगज़ेब
से कह दें कि यदि गुरु तेगबहादुर ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया तो
उनके बाद हम भी इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे और यदि आप गुरु तेगबहादुर
जी से इस्लाम धारण नहीं करवा पाए तो हम भी इस्लाम धर्म धारण नहीं
करेंगे'। औरंगज़ेब ने यह स्वीकार कर लिया।
गुरु तेगबहादुर दिल्ली में औरंगज़ेब के दरबार में स्वयं गए। औरंगज़ेब
ने उन्हें बहुत से लालच दिए, पर गुरु तेगबहादुर जी नहीं माने तो उन पर
ज़ुल्म किए गये, उन्हें कैद कर लिया गया, दो शिष्यों को मारकर गुरु
तेगबहादुर जी को ड़राने की कोशिश की गयी, पर वे नहीं माने। उन्होंने
औरंगजेब से कहा- 'यदि तुम ज़बर्दस्ती लोगों से इस्लाम धर्म ग्रहण
करवाओगे तो तुम सच्चे मुसलमान नहीं हो क्योंकि इस्लाम धर्म यह शिक्षा
नहीं देता कि किसी पर जुल्म करके मुस्लिम बनाया जाए।'
गुरुद्वारा शीश गंज साहिब - औरंगजेब यह सुनकर
आगबबूला हो गया। उसने दिल्ली के चाँदनी चौक पर गुरु तेगबहादुर जी का
शीश काटने का हुक्म ज़ारी कर दिया और गुरु जी ने हँसते-हँसते बलिदान
दे दिया। गुरु तेगबहादुरजी की याद में उनके 'शहीदी स्थल' पर
गुरुद्वारा बना है, जिसका नाम गुरुद्वारा 'शीश गंज साहिब' है।
गुरु तेग बहादुर जी की बहुत सी रचनाएँ ग्रंथ साहब के महला 9 में
संग्रहित हैं। इन्होंने शुध्द हिन्दी में सरल और भावयुक्त 'पदों' और
'साखी' की रचनायें की। सन 1675 में गुरु जी धर्म की रक्षा के लिए
अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध अपने चार शिष्यों के साथ धार्मिक
औरवैचारिक स्वतंत्रता के लिए शहीद हो गए। उनके अद्वितीय बलिदान ने देश
की 'सर्व धर्म सम भाव' की संस्कृति को सुदृढ़ बनाया और धार्मिक,
सांस्कृतिक, वैचारिक स्वतंत्रता के साथ निर्भयता से जीवन जीने का
मंत्र भी दिया।
साभार भारत डिस्कवरी ...
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