मोदी के गरवी गुजरात का गौरव गान नित्य नयी स्वर लहरियाँ बिखेरता जा रहा है | पहले संयुक्त राष्ट्र संघ ने गुजरात के जनकल्याण ..

19 नवंबर, 1835 ई. के दिन काशी में मोरोपन्त जी की पत्नी भागीरथी बाई ने एक पुत्री को जन्म दिया। पुत्री का नाम मणिकार्णिक रखा गया परन्तु प्यार से मनु पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। मनु के पिता मोरोपन्त जी मराठा पेशवा बाजीराव की सेवा में थे। चूँकि घर में मनु की देखाभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गए जहाँ चञ्चल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया। लोग उसे प्यार से "छबीली" बुलाने लगे।
रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था। स्वच्छन्द विचारों वाली रानी को यह रास नहीं आया। उन्होंने किले के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और शस्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु आवश्यक प्रबन्ध किए। उन्होंने स्रियों की एक सेना भी तैयार की।
राजा गंगाधर राव अपनी पत्नी की योग्यता से अतीव प्रसन्न थे। रानी अत्यन्त दयालु भी थीं। एक दिन जब कुलदेवी महालक्ष्मी की पूजा करके लौट रही थीं, कुछ निर्धन लोगों ने उन्हें घेर लिया। उन्हें देखकर महारानी का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने नगर में घोषणा करवा कर एक निश्चित दिन गरीबों में वस्रादि का वितरण कराया।
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Khoob ladi mardaani wo to Jhansi
waali Raani thi
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कुछ समय पश्चात् रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। सम्पूर्ण झाँसी आनन्दित हो उठा एवं उत्सव मनाया गया किन्तु यह आनन्द अल्पकालिक ही था। कुछ ही महीने बाद बालक गम्भीर रुप से बीमार हुआ और उसकी मृत्यु हो गयी। झाँसी शोक के सागर में डूब गई। शोकाकुल राजा गंगाधर राव भी बीमार रहने लगे एवं मृतप्राय हो गये। दरबारियों ने उन्हें पुत्र गोद लेने की सलाह दी। अपने ही परिवार के पाँच वर्ष के एक बालक को उन्होंने गोद लिया और उसे अपना दत्तक पुत्र बनाया। इस बालक का नाम दामोदर राव रखा गया। गोद लेने के दूसरे दिन ही राजा गंगाधर राव की दु:खद मृत्यु हो गयी।
इसी के साथ रानी पर शोक का पहाड़ टूट पड़ा। झाँसी का प्रत्येक व्यक्ति रानी के दु:ख से शोकाकुल हो गया।
उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेजों का शासन था। वे झाँसी को अपने अधीन करना चाहते थे। उन्हें यह एक उपयुक्त अवसर लगा। उन्हें लगा रानी लक्ष्मीबाई स्त्री है और हमारा प्रतिरोध नहीं करेगी। उन्होंने रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी के पत्र लिख भेजा कि चूँकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसलिए झाँसी पर अब अंग्रेजों का अधिकार होगा। रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं घोषणा की कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी। अंग्रेज तिलमिला उठे। परिणाम स्वरुप अंग्रेजों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। किले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं। रानी ने अपने महल के सोने एवं चाँदी का सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया।
रानी के किले की प्राचीर पर जो तोपें थीं उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख थीं। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे गौस खाँ तथा खुदा बक्श। रानी ने किले की मजबूत किलाबन्दी की। रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज सेनापित ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेजों ने किले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया।
अंग्रेज आठ दिनों तक किले पर गोले बरसाते रहे परन्तु किला न जीत सके। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अन्तिम साँस तक किले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज सेनापति ह्यूराज ने अनुभव किया कि सैन्य-बल से किला जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया जिसने किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना किले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया।
घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रुप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं। झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उदघोष से रणभूमि गूँज उठी। किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेजों की तुलना में छोटी थी। रानी अंग्रेजों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई। अंग्रेज सैनिक उनके समीप आ गए।
रानी ने पुन: अपना घोड़ा दौड़ाया। दुर्भाग्य से मार्ग में एक नाला आ गया। घोड़ा नाला पार न कर सका। तभी अंग्रेज घुड़सवार वहां आ गए। एक ने पीछे से रानी के सिर पर प्रहार किया जिससे उनके सिर का दाहिना भाग कट गया और उनकी एक आँख बाहर निकल आयी। उसी समय दूसरे गोरे सैनिक ने संगीन से उनके हृदय पर वार कर दिया। अत्यन्त घायल होने पर भी रानी अपनी तलवार चलाती रहीं और उन्होंने दोनों आक्रमणकारियों का वध कर डाला। फिर वे स्वयं भूमि पर गिर पड़ी। पठान सरदार गौस खाँ अब भी रानी के साथ था। उसका रौद्र रुप देख कर गोरे भाग खड़े हुए।
स्वामिभक्त रामराव देशमुख अन्त तक रानी के साथ थे। उन्होंने रानी के रक्त रंजित शरीर को समीप ही बाबा गंगादास की कुटिया में पहुँचाया। रानी ने व्यथा से व्याकुल हो जल माँगा और बाबा गंगादास ने उन्हें जल पिलाया।
रानी को असह्य वेदना हो रही थी परन्तु मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बन्द हो गए। वह १८ जून १८५९ का दिन था जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी। उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी। दानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे सदा के लिए अमर हो गयीं। आज भी उनकी वीरता के गीत प्रसिद्ध हैं -
बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थीं।।
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