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मीडिया देश को बाँट रहा है अब जनता को स्वयं सबक सिखाना चाहिए !

भारतीय प्रेस परिषद के नये अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने
भारतीय इलेक्ट्रानिक एवं प्रिण्ट मीडिया को सरेआम लताड़ते हुए एक
इंटरव्यू में कहा है कि -
1) भारत का मीडिया महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, बदतर स्वास्थ्य सुविधाओं
की खबरें दिखाने की बजाय क्रिकेट, फ़िल्में, ज्योतिष, जादूटोना और फ़ैशन
जैसी अनावश्यक बातें जानबूझकर दिखाता है…
2) मीडिया क्षेत्र में काम करने वालों में 80% से भी अधिक
पत्रकारों-कर्मचारियों को आर्थिक गतिविधियों, राजनीति शास्त्र,
साहित्य अथवा फ़िलॉसॉफ़ी इत्यादि के बारे में जरा भी ज्ञान नहीं है,
संभवतः उन्होंने कभी इसकी पढ़ाई भी नहीं की होगी।
3) भारत का मीडिया जानबूझकर देश के लोगों को तोड़ने का काम कर रहा
है...
4) भारत के मीडिया को "प्रशिक्षित" करने की भी जरुरत है, उसे भारत के
गरीबों और समस्याओं पर फ़ोकस करना चाहिए, न कि लेडी गागा के नाच और
करीना के रोमांस पर…
5) मीडिया कर्मियों एवं मालिकों को "डण्डे" का डर अवश्य होना ही
चाहिए, इसकी व्यवस्था कैसी हो इस पर बहस की जा सकती है...
6) मीडिया को भी सूचना के अधिकार एवं लोकपाल के तहत लाया जाना चाहिए,
तथा झूठी खबरें परोसने पर इन्हें भी जुर्माना एवं सजा जैसे प्रावधानों
का सामना करना पड़े…
जस्टिस काटजू ने मीडियाई भाण्डों को जो "आईना" दिखाया है, उससे मैं
पूरी तरह सहमत हूँ। मीडिया द्वारा फ़ैलाई जा रही "फ़फ़ूंद" का उचित इलाज
बहुत पहले किया जाना चाहिए था, फ़िर भी "जब जागे तभी सवेरा" की तर्ज़ पर
मीडिया के पिछवाड़े पर "छड़ी" जमाने के प्रावधान जल्दी से जल्दी किए ही
जाने चाहिए। नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज भी जस्टिस काटजू के इस
प्रस्ताव से "सैद्धांतिक" रूप से सहमत हैं।
(अ) यदि "बिग बॉस" या "राखी का स्वयंवर" जैसे छिछोरे शो प्रतिबंधित हो
भी जाएं, तो भारत की जनता पर कोई आफ़त नहीं आने वाली…
(ब) यदि शाहरुख, सलमान या आमिर के कूल्हे मटकाऊ दृश्य अथवा ऐश्वर्या
की "ऐतिहासिक गोद भराई" न भी देखें तो हमारा पाचन तंत्र बिगड़ने वाला
नहीं है…
अब मीडिया को उसकी औकात और जिम्मेदारी दोनों ही दिखाने का समय आ चुका
है। आप क्या कहते हैं?
यह विचार लेखक के व्यक्तिगत है, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार है —
सुरेश चिपलूनकर
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