चौंकिए नहीं, ये बात पाकिस्तान या किसी तालिबानी देश की नहीं है। घटना हमारे महाराष्ट्र की है जहाँ गत १२-१३ वर्षों से कांग्..
राष्ट्रकवि दिनकर के मकान पर उप मुख्यमंत्री के भाई का कब्जा, केंद्र ने बिहार सरकार को पत्र लिखा

इन पंक्तियों को उद्धृत करते हुए केंद्र सरकार ने पिछले महीने बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार से अनुरोध किया है कि राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ लिखित जिन ओजस्वी कविताओं को सुनकर हम सभी बड़े हुए और भारतीय सैनिकों ने तीन-तीन युद्ध में अपनी ‘विजय पताका’ लहराई थी, आज उनके ही बहु और बच्चों को सरकार के समक्ष अपना दामन फैला कर ‘न्याय की भीख’ मांगनी पड़े, यह दुखद है।
सरकार ने बिहार के मुख्य मंत्री से गुजारिश की है कि “इस मसले को भावनात्मक दृष्टि से हल करने की दिशा में अगर राज्य सरकार की ओर से पहल की जाती है, तो भारत के अब तक के एकमात्र “राष्ट्रकवि” के सम्मान से सम्मानित रामधारी सिंह दिनकर का अपमान नहीं होगा।
संभवतः सरकार का यह कदम लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार, राज्य सभा के अध्यक्ष और उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी और केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल की “विशेष पहल” और पिछले फरवरी माह में राष्ट्रकवि की पुत्र-वधू हेमंत देवी द्वारा प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को समर्पित एक ज्ञापन पर लिया गया है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में संभवतः यह पहला कदम होगा जब स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान अपने ओजस्वी कविताओं और लेखनी के बल पर राष्ट्र को एक नई दिशा की ओर उन्मुख करने वाले लेखक के बारे में समग्र रूप से सुध ली गयी हो।
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समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा, जिसका है यह न्यास, उसे
सत्वर पहुँचाना होगा,
धारा के मार्ग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं, गंगा का पथ रोक इन्द्र
के गज जो अड़े हुए हैं,
कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएंगे, अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों
से वाह जायेंगे,
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा
उनका भी अपराध।”
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देश के “एकमात्र राष्ट्रकवि” और पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित रामधारी सिंह दिनकर का पटना के आर्यकुमार रोड (मछुआटोली) स्थित तीन महले मकान का कुछ भाग बिहार के उप-मुख्य मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री सुशील कुमार मोदी के नजदीकी रिश्तेदार श्री महेश मोदी ने “जबरन कब्ज़ा” कर रखा है और उसमे दुकान चला रहे हैं।
प्रधान मंत्री को प्रेषित ज्ञापन में राष्ट्रकवि की अस्सी-वर्षीया पुत्र-वधू हेमंत देवी के मुताबिक, “मकान के एक भाग में स्थित दुकान को सुशील कुमार मोदी के चचेरे भाई श्री महेश मोदी ने मासिक किराए पर लिया था। वर्षों बीतने के पश्चात जब खाली करने की बात आई तो वे यह कह कर धमकाने लगे कि उनके भाई बिहार के उप-मुख्य मंत्री हैं।”
दुर्भाग्य यह है कि हेमंत देवी और दिनकर के पोते श्री अरविन्द कुमार सिंह जब मुख्य मंत्री श्री नितीश कुमार से मिले तो कुमार ने भी अपना “पल्ला झाड़” लिया। इकरारनामे के अनुसार, पिछले ३० अप्रील २०११ को खाली कर देनी थी जिसके लिए विगत वर्ष दिनकर परिवार कि ओर से २४ जुलाई को एक क़ानूनी नोटिस भी दी गई थी। ज्ञातव्य है कि सन 1974 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन में राष्ट्रकवि दिनकर की पंक्ति “सिंहासन खाली करो कि जनता आ रही है..” न केवल पटना शहर में बल्कि पूरे राज्य और राष्ट्र में गूंज रही थी और यह नारा बुलंद करने वालों में नीतीश कुमार के साथ साथ सुशील कुमार मोदी भी शामिल रहे थे।
देश की आजादी की लड़ाई में भी दिनकर ने अपना योगदान दिया। दिनकर बापू के बड़े मुरीद थे। हिंदी साहित्य के बड़े नाम दिनकर उर्दू, संस्कृत, मैथिली और अंग्रेजी भाषा के भी जानकार थे। वर्ष 1999 में उनके नाम से भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया।
दिनकर का जन्म 23 सितंबर, 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले में हुआ। हिंदी साहित्य में एक नया मुकाम बनाने वाले दिनकर छात्र-जीवन में इतिहास, राजनीतिक शास्त्र और दर्शन शास्त्र जैसे विषयों को पसंद करते थे, हालांकि बाद में उनका झुकाव साहित्य की ओर हुआ। वह अल्लामा इकबाल और रवींद्रनाथ टैगोर को अपना प्रेरणा स्रोत मानते थे। उन्होंने टैगोर की रचनाओं का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद किया।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने हिंदी साहित्य में न सिर्फ वीर रस के काव्य को एक नयी ऊंचाई दी, बल्कि अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का भी सृजन किया। इसकी एक मिसाल 70 के दशक में संपूर्ण क्रांति के दौर में मिलती है। दिल्ली के रामलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने हजारों लोगों के समक्ष दिनकर की पंक्ति ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ का उद्घोष करके तत्कालीन सरकार के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद किया था।
दिनकर का पहला काव्यसंग्रह ‘विजय संदेश’ वर्ष 1928 में प्रकाशित हुआ था। अपने जीवन काल में दिनकर ने गद्य और पद्य की कई एक ऐसी बेमिसाल रचनाएँ रचीं जो जीवन पर्यंत हिंदी साहित्य के इतिहास में अमर रहेगा। गद्य में दिनकर की प्रमुख रचनाओं में ‘मिट्टी की ओर’, ‘अर्धनारीश्वर’, ‘रेती के फूल’, ‘वेणुवन’, ‘साहित्यमुखी’, ‘काव्य की भूमिका’, ‘प्रसाद, पंत और मैथिलीशरणगुप्त’, ‘संस्कृति के चार अध्याय’ हैं जबकि पद्य रचनाओं में ‘रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘रसवंती’, ‘कुरूक्षेत्र’, ‘रश्मिरथी’, ‘परशुराम की प्रतिज्ञा’, ‘उर्वशी’, ‘हारे को हरिनाम’ प्रमुख हैं।
उन्हें वर्ष 1959 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। पद्म भूषण से सम्मानित दिनकर राज्यसभा के सदस्य भी रहे। वर्ष 1972 में उन्हें ज्ञानपीठ सम्मान भी दिया गया। दिनकर राज्य सभा के भी सदस्य थे। दिनकर ने अपनी ज्यादातर रचनाएं ‘वीर रस’ में कीं। इस बारे में जनमेजय कहते हैं, ‘भूषण के बाद दिनकर ही एकमात्र ऐसे कवि रहे, जिन्होंने वीर रस का खूब इस्तेमाल किया। वह एक ऐसा दौर था, जब लोगों के भीतर राष्ट्रभक्ति की भावना जोरों पर थी। दिनकर ने उसी भावना को अपने कविता के माध्यम से आगे बढ़ाया। वह जनकवि थे इसीलिए उन्हें राष्ट्रकवि भी कहा गया।’
रामधारी सिंह दिनकर स्वतंत्रता पूर्व के विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने जाते रहे। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओं में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रांति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल शृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें कुरुक्षेत्र और उर्वशी में मिलता है।
पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव कहते हैं, “इससे दुर्भाग्य और क्या हो सकता है? रामधारी सिंह दिनकर एक अकेले कवि हुए भारत वर्ष के जिन्हें ‘राष्ट्र कवि’ सम्मान से सम्मानित किया गया। आज देश का बच्चा-बच्चा उन्हें जानता है। उनकी कविताओं को पढ़कर हम भी बड़े हुए। राज्य सरकार और अधिकारीयों को स्वतंत्रता आन्दोलन या उसके बाद भी कम-से-कम इस देश के लिए आदरणीय दिनकरजी के त्याग, बलिदान को देखकर उनकी बहु को उनका घर या घर का वह भाग वापस दिलाने की दिशा में तुरंत पहल करनी चाहिए। एक अस्सी-साल की महिला अपने ही अधिकार के लिए दर-दर की ठोकर खाए, यह अच्छा लगता है?”
बिहार के एक अन्य वरिष्ट नेता और लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष श्री राम विलास पासवान दिनकर कि कविता को दुहराते हुए कहते हैं: “समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।” राज्य के आला मंत्री या वहां के अधिकारी आज भले ही दिनकर जी के खून-पसीने से सिंचित उस भवन पर गिद्ध के तरह निगाहें जमाये बैठे हों, या दिनकर के परिवार वालों को न्याय दिलाने में भी अपनी तटस्थता दिखाते हों, लेकिन इतिहास उन्हें माफ़ नहीं करेगा।” पासवान कहते हैं, “मैं व्यक्तिगत रूप से भी उन्हें अनुरोध करूँगा कि इस दिशा में पहल करें।”
दिनकर का देहावसान 24 अप्रैल, 1974 को हुआ था। — शिवनाथ झा
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