नरेन्द्र मोदी से निपटने के दूसरे तरीके ढूँढ रही है कांग्रेस - सुरेश चिपलूनकर

Published: Thursday, Sep 08,2011, 12:34 IST
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नरेन्द्र मोदी, कांग्रेसी, लोकायुक्त, राहुल गाँधी, अण्णा आंदोलन

विगत तीन चुनावों से गुजरात में बड़ी ही मजबूती से जमे हुए भारत के सबसे सफ़ल मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को वहाँ से उखाड़ने के लिए कांग्रेसी हथकण्डों का कोई अन्त नज़र नहीं आ रहा। गुजरात के चुनावों में लगातार जनता द्वारा नकारे जाने के बावजूद कांग्रेसी चालबाजियों में कोई कमी नहीं आई है। याद नहीं पड़ता कि भारत के किसी भी मुख्यमंत्री के खिलाफ़ कांग्रेस ने इतनी साज़िशें रची हों… कुछ बानगियाँ देखिये -

1) जैसा कि सभी को याद है, 2002 के गुजरात दंगों के बाद नरेन्द्र मोदी के खिलाफ़ सतत एक विशिष्ट "घृणा अभियान" चलाया गया। मीडिया के पालतू कुत्तों को लगातार मोदी पर भौंकने के लिए छोड़ा गया।

2) तीस्ता सीतलवाड ने तो सुप्रीम कोर्ट में झूठे हलफ़नामों (Teesta Setalvad Fake Affidavits) की झड़ी ही लगा दी, रईस खान नामक अपने ही सहयोगी को धोखा दिया, प्रमुख गवाह ज़ोहरा को मुम्बई ले जाकर बन्धक बनाकर रखा, उससे कोरे कागज़ों पर दस्तखत करवाए गये… लेकिन सभी दाँव बेकार चले गये जब स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने तीस्ता को लताड़ लगाते हुए फ़र्जी हलफ़नामे दायर करने के लिए उसी पर केस करने का निर्देश दे दिया।

3) नरेन्द्र मोदी को "राजनैतिक अछूत" बनाने की पूरी कोशिशे हुईं, आपको याद होगा कि किस तरह बिहार के चुनावों में सिर्फ़ एक बार मंच पर नीतीश कुमार और नरेन्द्र मोदी को हाथ मिलाते देखकर कांग्रेस-राजद और मीडिया के कुछ स्वयंभू पत्रकारों(?) को हिस्टीरिया के दौरे पड़ने लगे थे। इस घृणा अभियान के बावजूद नीतीश कुमार और भाजपा ने मिलकर बिहार में सरकार बना ही ली…

4) सोहराबुद्दीन एनकाउण्टर के मामला भी सभी को याद है। किस तरह से एक खूंखार अपराधी को पुलिस द्वारा एनकाउण्टर में मार दिये जाने को मीडिया-कांग्रेस और सेकुलरों(?) ने "मानवाधिकार" (Soharabuddin Encounter Case) का मामला बना दिया। अपराधी सिर्फ़ अपराधी होता है, लेकिन एक अपराधी को "मुस्लिम मज़लूम" बनाकर जिस तरह से पेश किया गया वह बेहद घृणित रहा। ये बात और है कि पिछले 5 वर्ष के आँकड़े उठाकर देखे जाएं तो उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र में सबसे अधिक "पुलिस एनकाउण्टर" हुए हैं, लेकिन चूंकि वहाँ भाजपा की सरकारें नहीं हैं इसलिए अपराधियों को "सताये हुए मुसलमान" बताने की कोशिश नहीं की गई। बहरहाल, नरेन्द्र मोदी को "बदनाम" करने में कांग्रेस और मीडिया सफ़ल रहे… ("बदनाम" अर्थात, उन तटस्थ और दुनिया से कटे हुए लोगों के बीच बदनाम, जो लोग मीडिया की ऊलजलूल बातों से प्रभावित हो जाते हैं), परन्तु अन्त-पन्त कांग्रेस का यह खेल भी बिगड़ गया और नरेन्द्र मोदी एक के बाद एक चुनाव जीतते ही जा रहे हैं।

5) हाल ही में कांग्रेस ने एक कोशिश और की, कि 2002 के दंगों के भूत को फ़िर से जिलाया जाए… इस कड़ी में संजीव भट्ट नामक पुलिस अधिकारी (जो कि कांग्रेसी नेताओं के नज़दीकी हैं और जिनके आपसी ईमेल से उनकी पोल खुल गई) के जरिये एक शपथ-पत्र दायर करके नरेन्द्र मोदी को घेरने की कोशिश की गई…। लेकिन मामला तीस्ता सीतलवाड की तरह फ़िर से उलट गया और संजीव भट्ट कोर्ट में झूठे साबित हो गये।

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यह तो थे चन्द ऐसे मामले जहाँ बार-बार गुजरात में 2002 में हुए दंगों को "भुनाने"(?) की भद्दी कोशिशें हुई, क्योंकि कांग्रेस-मीडिया और वामपंथी सेकुलरों का ऐसा मानना है कि भारत के 60 साल के इतिहास में सिर्फ़ एक ही हिन्दू-मुस्लिम दंगा हुआ है और वह है गुजरात 2002। इससे पहले के सभी दंगों, एवं कांग्रेसी सरकारों के कालखण्ड में हुए मुरादाबाद-बरेली-मालेगाँव-भागलपुर-मुम्बई-भिवण्डी जैसे हजारों भीषण दंगों को "भुला दिया जाना" चाहिए।

खैर… अब जबकि कांग्रेस के सभी "धार्मिक और साम्प्रदायिक" दाँव उलटे पड़ चुके, तो अब कांग्रेस ने नरेन्द्र मोदी को अपदस्थ करने के लिए, "कर्नाटक में आजमाई हुई चाल" सोची है… जी हाँ सही समझे आप, लोकायुक्त-लोकायुक्त रिपोर्ट का कार्ड खेलकर नरेन्द्र मोदी को 2014 के आम चुनावों से पहले हटाने की साज़िशें शुरु हो गई हैं। फ़िलहाल देश में "ब्राण्ड अण्णा" की बदौलत भ्रष्टाचार के विरुद्ध माहौल बना हुआ है, इसी का फ़ायदा उठाकर कांग्रेसी राज्यपाल ने गुजरात में श्री मेहता को एकतरफ़ा निर्णय करके लोकायुक्त नियुक्त कर दिया। इस बात पर संसद की कार्रवाई कई बार ठप भी हुई, लेकिन कांग्रेस अड़ी हुई है कि यदि लोकायुक्त रहेंगे तो मेहता साहब ही।

पहले हम नियम-कानूनों, प्रक्रिया और परम्परा के बारे में जान लें, फ़िर मेहता साहब के बारे में बात करेंगे…। भारत एक संघ-राज्य है, जहाँ कोई सा भी महत्वपूर्ण प्रशासनिक निर्णय जिसमें राज्यों पर कोई प्रभाव पड़ता हो… वह निर्णय केन्द्र और राज्य सरकार की सहमति से ही हो सकता है। केन्द्र अपनी तरफ़ से कोई भी मनमाना निर्णय नहीं ले सकता, चाहे वह शिक्षा का मामला हो, पुलिस का मामला हो या किसी नियुक्ति का मामला हो। किसी भी राज्य में लोकायुक्त की नियुक्ति राज्य सरकार की सहमति से ही हो सकती है, जिसमें राज्य का मंत्रिमण्डल रिटायर्ड जजों का एक "पैनल" सुझाता है, जिसमें से एक जज को आपसी सहमति से लोकायुक्त चुना जाता है। (उदाहरण के तौर पर संतोष हेगड़े को कर्नाटक का लोकायुक्त बनवाने में आडवाणी जी की सहमति महत्वपूर्ण थी)।

गुजरात के वर्तमान मामले में जो हुआ वह "आश्चर्यजनक" है -

1) विपक्ष और मुख्य न्यायाधीश ने "पैनल" की जगह सिर्फ़ एक नाम (यानी श्री मेहता का) ही भेजा, बाकी नामों पर विचार तक नहीं हुआ।

2) नरेन्द्र मोदी ने चार जजों के नाम भेजे थे, लेकिन राज्यपाल और नेता प्रतिपक्ष सिर्फ़ मेहता के नाम पर ही अड़े रहे, मामला लटका रहा और अब "अण्णा इफ़ेक्ट" का फ़ायदा उठाने के लिए राज्यपाल ने एकतरफ़ा निर्णय लेते हुए मेहता की नियुक्ति कर दी, जिसमें मुख्यमंत्री की सहमति नहीं थी।

3) नवनियुक्त लोकायुक्त श्री मेहता 1983 में जज बनने से पहले वरिष्ठ कांग्रेसी नेता केके वखारिया के असिस्टेंट हुआ करते थे, वखारिया जी गुजरात कांग्रेस के "लीगल सेल" के प्रमुख हैं।

4) जस्टिस मेहता की सबसे बड़ी क्वालिफ़िकेशन यह बताई गई है कि "अण्णा हजारे" जो कि फ़िलहाल "भ्रष्टाचार हटाओ के चकमक ब्राण्ड" बने हुए हैं, वे जब गुजरात आए थे तो श्री मेहता के यहाँ रुके थे… (यानी अण्णा हजारे जिसके यहाँ रुक जाएं, वह व्यक्ति एकदम "पवित्र" बन जाएगा)।

5) नेता प्रतिपक्ष को गुजरात में उपलब्ध 40 अन्य रिटायर्ड जजों के नाम में से कोई नाम सुझाने को कहा गया, लेकिन नहीं… कांग्रेस सिर्फ़ जस्टिस मेहता के नाम पर ही अड़ी है।

6) इससे पहले 2006 से 2009 के बीच एक अन्य रिटायर्ड जज श्री केआर व्यास का नाम भी, लोकायुक्त पद के लिए कांग्रेस ने खारिज कर दिया था, जबकि यही सज्जन महाराष्ट्र के लोकायुक्त चुन लिए गये। क्या कोई कांग्रेसी यह बता सकता है कि जो जज गुजरात में लोकायुक्त बनने के लायक नहीं समझा गया, वह महाराष्ट्र में कैसे लोकायुक्त बनाया गया?

एक बात और भी गौर करने वाली है कि गुजरात से सम्बन्धित कई मामलों पर न्यायालयों ने अपने निर्णय सुरक्षित रखे हैं या रोक रखे हैं, लेकिन जब भी कोई NGO गुजरात या नरेन्द्र मोदी के खिलाफ़ याचिका लगाता है तो उसकी सुनवाई बड़ी तेज़ गति से होती है, ऐसा क्यों होता है यह भी एक रहस्य ही है।

कुल मिलाकर तात्पर्य यह है कि गुजरात दंगों की फ़र्जी कहानियाँ, गर्भवती मुस्लिम महिला का पेट फ़ाड़ने जैसी झूठी कहानियाँ मीडिया में बिखेरने, तीस्ता "जावेद" सीतलवाड द्वारा झूठे हलफ़नामों में पिट जाने, सोहराबुद्दीन मामले में "मानवाधिकारों" का गला फ़ाड़ने, संजीव भट्ट द्वारा एक और "कोशिश" करने के बाद, अब जबकि कांग्रेस को समझ में आने लगा है कि "धर्म", "साम्प्रदायिकता" के नारों और गुजरात दंगों पर "रुदालियाँ" एकत्रित करके उसे चुनावी लाभ मिलने वाला नहीं है तो अब वह नरेन्द्र मोदी को अस्थिर करने के लिए "दूसरा रास्ता" पकड़ रही है।

ज़ाहिर है कि यह दूसरा रास्ता है "अपना लोकायुक्त" नियुक्त करना, अब तक मोदी के खिलाफ़ भ्रष्टाचार का एक भी मुद्दा नहीं है, इसलिए लोकायुक्त के जरिये भ्रष्टाचार के मुद्दों को हवा देना। यदि मुद्दे नहीं हों तो "निर्मित करना", उसके बाद हो-हल्ला मचाकर "अण्णा हजारे ब्राण्ड" के उपयोग से नरेन्द्र मोदी को अपदस्थ या अस्थिर किया जा सके…। कांग्रेस को यह काम 2013 के अन्त से पहले ही पूरा करना है, क्योंकि उसे पता है कि देश में 2014 का अगला आम चुनाव "राहुल गाँधी Vs नरेन्द्र मोदी" ही होगा, इसलिये कांग्रेस में भारी बेचैनी है। यह बेचैनी, "अण्णा आंदोलन" के दौरान मुँह छिपाए बैठे रहे, और फ़िर संसद में लिखा हुआ बकवास भाषण पढ़कर अपनी भद पिटवा चुके "युवराज" के कारण और भी बढ़ गई है…

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