लाखों कश्मीरी हिन्दू पलायन कर शरणार्थी कैम्पों में समा चुके थे : नरेन्द्र मोदी "प्रवृत्ति" का उदभव एवं विकास

Published: Wednesday, Dec 19,2012, 15:00 IST
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मित्रों… पिछले भाग में हमने देखा कि किस तरह से – राजीव गाँधी सरकार शाहबानो मामले में इस्लामी कट्टरपंथियों के सामने झुकी और उसने सुप्रीम कोर्ट को ताक पर रखा… फ़िर वीपी सिंह की मण्डलवादी राजनीति और मुफ़्ती सईद द्वारा आतंकवादियों को छोड़ने की 'परम्परा' शुरु करने जैसे शर्मनाक वाकये सामने आए… फ़िर 'सांसदों को खरीदने' की नीति, लेकिन 'देश के संसाधन बेचने' की नीति को आगे बढ़ाने वाले नरसिंहराव आए… इस तरह हम 1996 के चुनावों तक पहुँच चुके हैं…

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1996 के चुनावों पर बात करने से पहले नरसिंहराव सरकार के कार्यकाल की एक घटना का उल्लेख करना जरूरी है। यह घटना घटी थी कश्मीर की प्रसिद्ध चरार-ए-शरीफ़ दरगाह में 1994 के अंत में मस्त गुल नाम के आतंकवादी ने अपने कई साथियों के साथ कश्मीर की प्रसिद्ध चरार-ए-शरीफ़ दरगाह पर कब्जा जमा लिया था। हालांकि कश्मीर में हमारे सुरक्षा बलों को इसकी भनक लग चुकी थी, लेकिन कड़ाके की सर्दी और बर्फ़बारी तथा कश्मीर में उसे हासिल स्थानीय मदद के कारण मस्त गुल उस दरगाह में घुसने में कामयाब हो गया था। बस… इसके बाद भारत सरकार और आतंकवादियों के बीच चूहे-बिल्ली का थकाने वाला खेल शुरु हुआ। हमारी सेना आसानी से हमला करके दरगाह में घुसे बैठे चूहों को मार गिराती, परन्तु हमारे देश के राजनैतिक नेतृत्व और मीडिया ने हमेशा ही पुलिस और सैन्य बलों का मनोबल गिराने का काम किया है। जो 'राष्ट्रीय शर्म', 1990 में महबूबा मुफ़्ती के अपहरण के बदले पाँच खूँखार आतंकवादियों को छोड़ने पर हमने झेली थी, ठीक वैसा ही इस घटना में भी हुआ…

लगभग दो महीने तक हमारे सुरक्षा बलों ने दरगाह पर घेरा डाले रखा, आतंकवादियों को खाना-पानी के तरसा दिया, ताकि वे दरगाह छोड़कर बाहर आएं, लेकिन नरसिंहराव सरकार उन आतंकवादियों के सामने गिड़गिड़ाती भर रही, इन आतंकवादियों को बिरयानी, चिकन और पुलाव की दावतें दी गईं। समूचे विश्व के सामने हमारी खिल्ली उड़ती रही, भारत का 'पिलपिला' थोबड़ा लगातार दूसरी बार विश्व के सामने आ चुका था… आज 17 साल बाद भी यह स्पष्ट नहीं है कि इस घटना में आतंकवादी थक गए थे, या सरकार ने उनके साथ कोई गुप्त समझौता किया था, परन्तु जाते-जाते मस्त गुल और उसके साथियों ने लकड़ी से निर्मित शानदार वास्तुकला के नमूने 'चरार-ए-शरीफ़' को आग के हवाले कर दिया। सेना मुँह देखती रह गई और सरकार व कश्मीर के स्थानीय 'शांतिदूतों' की मदद से मस्त गुल पाकिस्तान भागने में सफ़ल रहा, जहाँ उसका स्वागत 'इस्लाम के एक हीरो' के रूप में हुआ। रॉ और आईबी के अधिकारियों की चुप्पी की वजह से अभी तक ये भी रहस्य ही है कि मस्त गुल को पाकिस्तान की सीमा तक छोड़ने कौन गया था?

उस वक्त भी हमारा मीडिया, सैन्य बलों और पुलिस की नकारात्मक छवि पेश करने में माहिर था, और आज भी वैसा ही है। मीडिया ने दरगाह के जलने का सारा दोष भारतीय सैन्य बलों पर मढ़ दिया, और कहा कि यह सब सेना के हमले की वजह से हुआ है, जबकि मीडिया को चरार-ए-शरीफ़ दरगाह से 10 किमी दूर ही रोक दिया गया था। मीडिया का यही 'घटिया' और 'देशद्रोही' रुख हमने मुम्बई हमले के वक्त भी देखा था, जब सुरक्षा बलों का साथ देने की बजाय इनका सारा जोर यह दिखाने में था कि कमाण्डो कहाँ से उतरेंगे, कहाँ से ताज होटल में घुसेंगे?

नरेन्द्र मोदी 'प्रवृत्ति' के उभार की श्रृंखला में इस घटना का उल्लेख करना इसलिए आवश्यक था, ताकि भारत की सरकारों की 'दब्बू', 'डरपोक' और 'पिलपिली' मानसिकता साफ़-साफ़ उजागर हो सके, जिसकी वजह से भारतीय युवाओं के मन में आक्रोश पनपता और पल्ल्वित होता जा रहा था। और जब यही दब्बूपन, अनिर्णय और डरपोक नीति वाजपेयी सरकार के दौरान IC-814 विमान अपहरण काण्ड में भी सामने आई, तो भाजपा के समर्थकों का विश्वास और भी कमजोर हो गया… (इस काण्ड पर चर्चा अगले किसी भाग में होगी)। परन्तु मुम्बई रैली में राज ठाकरे को मंच पर जाकर गुलाब का फ़ूल देने वाले सिपाही की जो विद्रोही मानसिकता है, उस मानसिकता को समझने में भारतीय नेताओं ने हमेशा ही भूल की है…

1991 के चुनावों तक देश की हालत आर्थिक मोर्चे पर बहुत पतली हो चुकी थी, सोना भी गिरवी रखना पड़ा था… इस पृष्ठभूमि में चलते चुनावों के बीच ही राजीव गाँधी की हत्या भी हो गई, जिसका फ़ायदा कांग्रेस को मिला और उसकी सीटें 197 से बढ़कर 244 हो गईं। परन्तु भाजपा की सीटें भी 85 से बढ़कर 120 हो गईं… (आम धारणा है कि यदि राजीव गाँधी की हत्या न हुई होती, तो 1991 में ही भाजपा की ताकत 150 सीटों से ऊपर निकल गई होती), जबकि जनता दल 59 सीटें लेकर लगभग साफ़ हो गया। राम मन्दिर आंदोलन और वाजपेयी-आडवाणी की स्वच्छ छवि के चलते, भाजपा की ताकत बढ़ती रही और हिन्दुत्व के मुद्दे पर देश आंदोलित होने लगा था। परन्तु उस समय देश की आर्थिक हालत को देखते हुए और 273 के आँकड़े के लिए कोई भी समीकरण नहीं बन पाने की मजबूरी के चलते, कोई भी पार्टी सरकार गिराना नहीं चाहती थी। इसलिए पीवी नरसिंहराव ने पूरे पाँच साल तक एक 'अल्पमत सरकार' चलाई और मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी के दिशानिर्देशों के तहत विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के सहारे, भारत को 'आर्थिक सुधारों'(?) के मार्ग पर धकेल दिया। अतः कहा जा सकता है कि देशहित को ध्यान में रखते हुए सभी पार्टियों ने अपने विवादित मुद्दों को अधिक हवा न देने का फ़ैसला कर लिया था, इसलिए 1991 से 1996 के दौरान मण्डल-मन्दिर दोनों ही आंदोलनों की आँच, अंदर ही अंदर सुलगती रही, लेकिन थोड़ी धीमी पड़ी।

हालांकि इन पाँच सालों में देश ने कांग्रेसी पतन की नई 'नीचाईयाँ' भी देखीं। चूंकि नरसिंहराव सिर्फ़ विद्वान और चतुर नेता थे, करिश्माई नहीं… इसलिए अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी, और माखनलाल फ़ोतेदार जैसे घाघ नेताओं ने उन्हें कभी चैन से रहने नहीं दिया। सरकार शुरु से अन्त तक अल्पमत में थी, इसलिए झारखण्ड के 'सांसदों को खरीदकर बहुमत जुटाने' की नई परम्परा को भी कांग्रेस ने जन्म दिया। 1995 में एक कांग्रेसी नेता सुशील ने अपनी पत्नी की हत्या कर, उसके टुकड़े-टुकड़े करते हुए उसे तंदूर में जला दिया, यह घटना भी चर्चित रही… कुल मिलाकर देश में एक हताशा, क्रोध और निराशा का माहौल घर करने लगा था।

इसके बाद आया 1996 का आम चुनाव… यहीं से देश में सेकुलर गिरोहबाजी आधारित 'राजनैतिक अछूतवाद' ने जन्म लिया, जिस कारण हिन्दुओं के मन का आक्रोश और गहराता गया…

इस प्रकार, 1) शाहबानो केस, 2) महबूबा मुफ़्ती केस और 3) चरार-ए-शरीफ़ (मस्त गुल) केस, इन तीन प्रमुख मामलों ने हिन्दू युवाओं के मन पर (1996 तक) तीन बड़े आघात कर दिए थे…। इन ज़ख्मों पर नमक मलने के तौर पर, कश्मीर से लाखों हिन्दू पलायन करके दिल्ली में शरणार्थी कैम्पों में समा चुके थे…। अर्थात नरेन्द्र मोदी 'प्रवृत्ति' के उभरने की जड़ मजबूती से जम चुकी थी…

(अगले भाग में 1996 के चुनावों से आगे का सफ़र जारी रहेगा…)

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