केवल साम्प्रदायिक शक्तियों को सत्ता से दूर रखने हेतु समर्थन ...

Published: Thursday, Dec 06,2012, 00:38 IST
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अपनी जुगाड-राजनीति के लिये प्रसिद्ध यू.पी.ए-2 सरकार वर्तमान समय में अपने कार्यकाल के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार के ऐलान के साथ कि एफडीआई मुद्दे पर संसद मे नियम 184 के तहत चर्चा होगी। परिणामत: एफडीआई पर आखिरकार सरकार का रुख नरम पड़ा और संसद मे गतिरोध टूटा। यू पी ए-2 के अहम सहयोगी सपा, बसपा और डीमके जैसे दलों ने वर्तमान सरकार को बचाने हेतु भले ही सशर्त समर्थन देने की बात की हो परंतु स्वतंत्रता के बाद से सत्ताधारी दलों के पास इससे ज्यादा राजनैतिक दिवालियापन अब तक देखने को नही मिला। यह कैसी जुगाड की राजनीति है कि जो दल सड़कों पर जनता के हित की बात करते हुए सत्ताधारी दलों की नीतियों का खुलकर विरोध करने हेतु धरना-प्रदर्शन कर अपनी गिरफ्तारी देते है वही दल संसद के अन्दर सत्ता की मलाई खाने हेतु उन्ही सत्ताधारी दलों की सरकार को गिरने से बचाने हेतु उनका संकटमोचन बनकर खडे हो जाते है।

डीएमके ने तो यहाँ तक कह दिया कि अगर वे एफडीआई के विरोध में वोट करते हैं तो यह यूपीए सरकार के लिए खतरा होगा और बीजेपी के सत्ता में आने से बाबरी मस्जिद जैसी घटनाएं हो सकती हैं। वही सपा और बसपा का तर्क है कि साम्प्रदायिक शक्तियों को सत्ता से दूर रखने हेतु ही वे सरकार के साथ खडी होंगी। जबकि सच्चाई यह है कि अभी पिछले दिनों चार राज्यों आन्ध्र प्रदेश - चारमीनार, असम–कोकराझार, महाराष्ट्र–मुम्बई, उत्तर प्रदेश–फैज़ाबाद, बरेली, कोसीकलाँ मे साम्प्रदायिक दंगे भडके परंतु इन सभी राज्यों में भाजपा की सरकार न होकर कांग्रेस, एन.सी.पी व सपा जैसे दलों की ही सरकार है। इसके उलटे गुजरात, मध्यप्रदेश, छतीसगढ, झारखंड, गोवा, कर्नाटक, बिहार आदि जिन राज्यों मे भाजपा व उसके समर्थक दलों की सरकार है वहाँ पर इस समय किसी भी प्रकार के साम्प्रदायिक दंगे नही हुए। इन दलों के बयानों को देखते हुए क्या यह मान लिया जाय कि राजनीति में देश के विकास का मुद्दा अब कोई स्थान नही रखता तथा चर्चा विकास केन्द्रित होने की बजाय सिर्फ साम्प्रदायिकता की आड मे सत्ता लोलुपता के चलते जुगाड-केद्रित ही राजनीति पर होगी।

22 नवंबर से शुरू हुए शीतकालीन सत्र की हंगामेदार शुरुआत के बीच तृणमूल कांग्रेस द्वारा पेश किया गया अविश्वास प्रस्ताव जरूरी समर्थन न मिल पाने की वजह से लोकसभा में भले ही गिर गया। परंतु पूंजी निवेश के नाम पर एफडीआई का फैसला अब उसके गले की फांस बन चुका है। एफडीआई पर सरकार के फैसले के विरोध मे जहाँ 4-5 दिसम्बर को राष्ट्रव्यापी आन्दोलन के चलते व्यापारी सड़कों पर उतरेंगे तो वही इस गम्भीर विषय पर राजनैतिक पंडित संसद मे बहस कर वोटिंग करगे। संप्रग सरकार खुदरा व्यापार में सीधे विदेशी निवेश (एफडीआई) का विरोध करने वाले दलों को जोड़-तोड़कर जुगाड से उन्हे अपने साथ कर संसद में बहुमत जुटाने में अगर सफल हो भी जाती है तो माकपा महासचिव प्रकाश करात के अनुसार वाम दल उसे लागू करने के लिए फेमा में संशोधन के समय भी मत विभाजन पर जोर देगा। उनके अनुसार केंद्र की संप्रग सरकार अमेरिका और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में खुदरा व्यापार के क्षेत्र में एफडीआई की अनुमति देने के बाद अब वह संसद में बहुमत जुटाने के लिए इसका विरोध करने वाले दलों को जोड़ने-तोड़ने में लगी है। सपा नेता राम गोपाल यादव के अनुसार अगर सरकार एफडीआई का मुद्दा राज्यसभा में लाती है तो वे उसके खिलाफ मतदान करेंगे परंतु लोकसभा मे सपा सरकार के साथ खडी रहेगी।

कृषि मंत्री शरद पवार के अनुसार भारत मे बहुब्रांड खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश का स्वागत है और इससे किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को फायदा होगा। दूसरी तरफ पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के अनुसार बहु ब्रांड खुदरा क्षेत्र में एफडीआई लागू करना गरीबों के खिलाफ अपराध है। एक तरफ प्रधानमंत्री द्वारा यह तर्क दिया जा रहा है कि खुदरा व्यापार के क्षेत्र में बडी कंपनियों के उतरने से प्रत्येक वर्ष एक करोड़ रोजगार का सृजन होगा पर हकीकत यह है कि इसके कारण करीब पांच करोड़ लोगों की आजीविका छिन जाएगी। इसका ताज़ा उदाहरण यह भी है कि अमेरिका और मेक्सिको जैसे देशों में खुदरा व्यापार के क्षेत्र में एफडीआई की अनुमति दिया जाना विफल साबित हुई। इन राजनैतिक पंडितो के मंतव्यो से यही लगता है कि अब बिसात बिछ चुकी है और इनके बीच चल रहे शह और मात के खेल के बीच आम जनता पिसकर मात्र तमासबीन बनी हुई है।

इसका एक पहलू और भी है कि अगर हम कुछ दिनों पूर्व प्रधानमंत्री द्वारा दिये गये "शहीदी वाले" वक्तव्य पर ध्यान दे जिसमे उन्होने कहा था कि “जाना होगा तो लडते-लडते जायेंगे” तो पायेंगे कि महँगाई, भ्रष्टाचार जैसे गम्भीर आरोपो से घिरी सरकार अब अपनी छवि सुधारने मे लग गयी है। उसके पास सरकार चलाने के लिये जुगाड से पर्याप्त संख्या बल है और अगर कभी उस संख्या बल में कोई कमी आई तो उसके पास आर्थिक पैकेज और सीबीआई रूपी ऐसी कुंजी है जिसकी बदौलत वह किसी भी दल को समर्थन देने के लिए मजबूर कर सकती है। अगर इतने में भी बात न बनी और मध्यावधि चुनाव हो भी गए तो कांग्रेस जनता को यह दिखाने के लिए हमने अर्थव्यस्था को पटरी पर लाने की कोशिश तो की थी पर इन राजनैतिक दलों ने आर्थिक सुधार नहीं होने दिया का ऐसा भंवरजाल बुना जायगा कि आम-जनता उसमे खुद फंस जायेगी।

इस समय भारत की जनता के सम्मुख राजनैतिक दलों की विश्वसनीयता ही सवालों के घेरे में है और वह इन सब उठापटक के बीच मौन होकर स्थिति को भांप रही है। सरकार बेनकाब हो चुकी है और महँगाई की मार से आम जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। आम आदमी जो छोटे-मोटे व्यापार से अभी तक अपना परिवार पाल रहा था सरकार ने अपने एफडीआई के फैसले से उसको बेरोजगार करने का पुख्ता इंतजाम कर लिया है क्योंकि खुदरे व्यापार से सीधे आम जनता का सरोकार है। सरकार को यह ध्यान रखना चाहिये कि विदेश निवेश करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमारे देश मे व्यापार करने के लिये ही आयेंगी अत: वे अपने मुनाफे के बारे मे ही सोचेंगी।

भारत जैसा देश जहाँ की आबादी लगभग सवा सौ करोड़ हो, आर्थिक सुधार की अत्यंत आवश्यकता है परन्तु आर्थिक सुधार भारतीयों के हितों को ध्यान में रखकर करना होगा न कि विदेशियों के हितो को ध्यान में रखकर। ऐसे मे सरकार किसके इशारे पर और किसको खुश करने के लिये और क्या छुपाने के लिए आर्थिक सुधार के नाम पर इतनी जल्दबाजी में इतने विरोधे के बावजूद इतने बड़े-बड़े फैसले ले रही है असली मुद्दा यह है। राजनेता तो राजनीति करते ही है परन्तु परेशानी तो आम जनता को ही होती है ऐसे में भला आम जनता जाये तो कहाँ जाये।

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