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केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री को दुर्बल पाकर विदेशी ताकतें अपना स्वार्थ साधने का प्रयत्न करने लगी हैं

अमेरिकी राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था और व्यापार नीति पर तीखी टिप्पणी से फिर एक बार विदेशी निवेश का मसला गरम हो गया है। अमेरिकी और ब्रितानी समाचार पत्रा-पत्रिकाओं में श्री मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री चित्रित किया जा रहा है। कहीं यह सब सोची समझी रणनीति तो नहीं ऐसी आशंका पैदा हो गई है। वैश्विक आर्थिक संकट तथा सत्ताधरी कांग्रेस दल के आंतरिक कारणों से श्री मनमोहन सिंह अवश्य दुर्बल और असहाय दशा में है, पर इस संकट का लाभ विदेशी ताकतें न उठा सकें, यह प्रत्येक प्रबुद्ध् भारतीय का कर्तव्य है।
दृतीय विश्व युद्ध के पश्चात राजनैतिक साम्राज्यवाद समाप्त होते चला गया, पर विश्व के ताकतवर देशों ने आर्थिक साम्राज्यवाद को शोषण का जरिया बना दिया। पहले ऋण और अनुदान के नाम पर गरीब मुल्कों का शोषण किया गया और अब विश्व व्यापार संगठन बनाकर ‘मुक्त व्यापार’ को माध्यम बनाकर कमजोर देशों का शोषण किया जा रहा है। दबंग देशों ने ‘मुक्त व्यापार’ को अपने हितों की रक्षा के लिए परिभाषित कर रखा है। शक्तिशाली देशों की महाकाय कंपनियों को किसी भी देश में उद्योग-व्यापार की छूट मिले पर गरीब मुल्कों के बेरोजगार शोषित व्यक्तियों को अमीर मुल्कों में जाकर रोजगार प्राप्त करने पर अनेकों प्रतिबंध् लगे हैं। यदि उद्योग-व्यापार का घटक पूंजी को मुक्त संचार चाहिए तो उद्योग-व्यापार के अन्य घटक मजदूर को मुक्त संचार का अधिकार क्यों नहीं?
IBTL Columns
गांधीजी ने ‘स्वराज्य’ के पश्चात सर्वाधिक ‘स्वदेशी’ का पक्ष लिया। उन्होंने स्वदेशी के विषय में हरिजन में लिखा था-‘‘स्वदेशी कंपनी की मेरी व्याख्या है कि जिस उद्योग-व्यापार की सत्ता, व्यवस्था और मार्गदर्शन, मैनेजिंग डायरेक्टर एवं एजेण्ट के रूप में भारतीय लोगों के हाथ में हो वह कंपनी स्वदेशी। जब भारत को आवश्यकता पड़ेगी व यहीं पूरी न हो सकेगी तब विदेशी पूँजी और विदेशी तंत्राज्ञों का उपयोग करने में मेरा विरोध नहीं है, पर शर्त यही है कि वे भारतीय सत्ता व व्यवस्था के नीचे हों तथा उसका उपयोग भारत के हित में होना चाहिए।’’ (26 03 1938)
देश के दुर्भाग्य से हमने गांधी जी के विचारों की जगह पर विदेशी हुक्मरानों के विचारो को तरजीह दी और भारत ‘विश्व व्यापार संगठन’ का हिस्सा बन गया। आज भारत में सैकड़ों विदेशी कंपनियाँ आ चुकी हैं और देश का शोषण करके अपने देश में मुनापफा भेजकर प्रकृति विरोधी और मानवता विरोधी अनैतिक जीवनशैली को पोषित कर रही हैं।
यद्यपि अब तक आयी-गयी सरकारों का वश चलता तो वे बहुत पहले ही विदेशी कंपनियों को सभी प्रकार के उद्योग-व्यापार में आने की छूट दे चुके होते। पर विविध जनसंगठनों, उद्योग-व्यापार संगठनों और मजदूर संगठनों के प्रबल विरोध के कारण अभी भी बहुत से क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों को आने की छूट नहीं मिल पाई है। अब केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री को दुर्बल पाकर अनेक विदेशी ताकतें अपना स्वार्थ साधने का कपटपूर्ण प्रयत्न करने लगी है। देश के प्रबुद्ध वर्ग को सचेत और संगठित होने का समय आ गया है। हमारे पूर्वजों ने कहा है- "सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति पण्डितः।" अर्थात् सर्वनाश दिखने लगे तो आधे की रक्षा कर लेना ही बुद्धिमत्ता है। पूर्वजों की इस नेक सलाह को मानते हुए हमें सोचना चाहिए कि किन-किन क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों को बिल्कुल नहीं आने देना चाहिए?
राष्ट्रहित और समाजहित पर विचार करने के पश्चात निम्न छः क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों को नहीं आने देना चाहिए- 1. शिक्षा 2. रक्षा 3. कृषि 4. घरेलू व्यापार 5. बैंकिग और 6. मीडिया। इन क्षेत्रों की संवेदनशीलता को देखते हुए इनमें विदेशी कंपनियों को आने देने से होने वाली हानियों से आप सभी प्रबुद्ध जन परिचित हैं। देश की संप्रभुता, समाज के जीवनमूल्यों की रक्षा और विशाल जनसंख्या के रोजगार की रक्षा इनमें प्रमुख कारण है।
आप सभी देश के कर्णधार हैं। आप देश हित में जनमत बनाने और जनदबाब के माध्यम से सरकारों को प्रभावित कर सकते हैं। विदेशी कंपनियों को नहीं आने दिया जाना चाहिए। आपके इस विषय में कुछ विचार होंगे। उन देश हितकारी विचारों को आप भी प्रबुद्धजनों तक पहुँचाए। भारत द्वारा अधिकाधिक स्वस्थ और हितकारी ‘विदेश व्यापार नीति’ अपनाई जाए इसके लिए संगठित प्रयत्नों की आवश्यकता है। आपके इस कार्य में पूर्ण सहभाग और सहयोग की आशा के साथ।
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